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जो व्यक्ति आज्ञाकारिता की नज़्र पूरी करेगा, उसे आज्ञाकारिता के उस कार्य को करने तथा उस नज़्र को पूरा करने के लिए प्रतिफल दिया जाएगा।

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प्रकाशन की तिथि : 13-02-2021

दृश्य : 1622

प्रश्न

मेरे पास नज़्र (मन्नत) से संबंधित तीन प्रश्न हैं : पहला : क्या मेरे लिए उस चीज़ के प्राप्त होने से पहले नज़्र पूरी करना जायज़ है, जिसपर मैंने अपनी नज़्र को लंबित किया हैॽ दूसरा : अगर मैंने कोई नज़्र मानी, फिर मैंने उसे मुश्किल पाया और उससे पीछे हट गया, तो मुझे क्या करना चाहिएॽ तीसरा : अगर मैं कहता हूँ : मैं अल्लाह के लिए नज़्र मानता हूँ, यदि अमुक चीज़ प्राप्त हो गई, तो मैं 1000 बार तस्बीह पढ़ूँगा। फिर वह चीज़ प्राप्त हो गई, तो अगर मैं एक हज़ार बार तस्बीह पढ़ता हूँ, तो क्या मुझे उस तस्बीह पर नेकियों के रूप में बदला दिया जाएगा, या वह तस्बीह उस नज़्र की पूर्ति मात्र होगी और मुझे उस तस्बीह की नेकियों का लाभ नहीं मिलेगाॽ

उत्तर का पाठ

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.

सर्व प्रथम :

आपके सवालों का जवाब देने से पहले, हम आपके लिए यह स्पष्ट कर देना पसंद करते हैं कि : नज़्र मानना शुरुआत ही से मक्रूह (नापसंदीदा) है। क्योंकि बुखारी (हदीस संख्या : 6608) और मुस्लिम (हदीस संख्या : 1639) ने इब्ने उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा से रिवायत किया है कि उन्होंने कहा : नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने नज़्र मानने से मना किया और फरमाया : “यह (नज़्र) तक़दीर में से कोई चीज़ नहीं फेर सकती है, बल्कि उसके द्वारा कंजूस से निकलवाया जाता है।”

इब्ने क़ुदामा रहिमहुल्लाह ने फरमाया : “और वह – अर्थात् नज़्र मानना – मुस्तहब (वांछनीय) नहीं है। क्योंकि इब्ने उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा ने नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से रिवायत किया है कि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने नज़्र मानने से मना किया और फरमाया : “यह (नज़्र) कोई भलाई नहीं लाती है, बल्कि उसके द्वारा कंजूस व्यक्ति से (उसका धन) निकलवाया जाता है।” (बुखारी व मुस्लिम)

यह निषेध यह दर्शाने के लिए है कि ऐसा करना नापसंद है, इसका अर्थ यह नहीं है कि यह निषिद्ध (हराम) है; क्योंकि अगर यह (नज़्र) हराम होती, तो अल्लाह अपनी नज़्र (मन्नत) पूरी करने वालों की प्रशंसा नहीं करता; क्योंकि एक निषिद्ध (हराम कार्य) करने में उनका पाप, उसे पूरा करने में उनकी आज्ञाकारिता से अधिक गंभीर है; और इसलिए कि यदि नज़्र मुस्तहब होती, तो नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और आपके प्रतिष्ठित सहाबा उसे अवश्य करते।” अल-मुग़्नी (10/68) से उद्धरण समाप्त हुआ।

दूसरी बात :

किसी चीज़ पर लंबित नज़्र को पूरा करना अनिवार्य नहीं है, जब तक कि वह चीज़ प्राप्त न हो जाए जिस पर नज़्र को लंबित किया गया है।

अल-कासानी रहिमहुल्लाह ने कहा : “यदि वह – अर्थात नज़् – किसी शर्त पर लंबित है, जैसे कि वह कहता है : यदि अल्लाह ने मेरे बीमार को ठीक कर दिया, या फलाँ अनुपस्थिति व्यक्ति आ गया, तो मैं अल्लाह के लिए एक महीने रोज़ा रखूँगा, या दो रकअत नमाज़ अदा करूँगा, या एक दिरहम दान में दूँगा, इत्यादि। तो उसको पूरा करने का समय उस शर्त के पाए जाने का समय है। अतः जब तक वह शर्त पाई नहीं जाती है, वह अनिवार्य नहीं है; इसपर विद्वानों की सर्वसम्मति है।”

“बदाए-उस-सनाए” (5/94) से उद्धरण समाप्त हुआ।

लेकिन अगर कोई व्यक्ति उस चीज़ के होने से पहले अपनी मन्नत पूरी करना चाहता है जिस पर उसने नज़्र को लंबित किया है, तो यह जायज़ (अनुमेय) है; इसे क़सम तोड़ने से पहले क़सम का कफ़्फ़ारा निकालने के मुद्दे पर क़यास करते हुए।

अल-बहूती रहिमहुल्लाह ने कहा : “(यह करने की अनुमति है) अर्थात् : मन्नत पूरी करने की (इससे पहले) अर्थात् : उसकी शर्त पाई जाने से पहले, जैसे कि क़सम खाने के बाद और उसे तोड़ने से पहले कफ़्फ़ारा निकालना।”

“कश्शाफ़ुल-क़िनाअ” (6/278) से उद्धरण समाप्त हुआ।

तीसरा :

वह कठिनाई जिसके कारण नज़्र पूरी करने का दायित्व समाप्त हो जाता है, वह ऐसी कठिनाई है जिसके होते हुए बंदा उस काम को करने में असमर्थ हो, जिसकी उसने मन्नत मानी है। इसलिए यदि मुसलमान कुछ ऐसा करने की नज़्र मानता है जो उसकी क्षमता से बाहर है और वह उसे सहन नहीं कर सकता है, या वह ऐसा कुछ करने की नज़्र मानता है, जो उसकी क्षमता के भीतर है, लेकिन वह उसे पूरा करने में पूरी तरह से असमर्थ है। तो ऐसी स्थिति में उस नज़्र को पूरा करने का दायित्व उससे समाप्त हो जाएगा और उसके लिए क़सम तोड़ने का कफ़्फ़ारा देना अनिवार्य है। जिसका प्रमाण यह है कि अबू दाऊद (हदीस संख्या : 3322) ने इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा से रिवायत किया है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : “जिस व्यक्ति ने ऐसी नज़्र मानी जिसे वह पूरा करने में असमर्थ है, तो उसका कफ़्फ़ारा (प्रायश्चित) क़सम (तोड़ने) का कफ़्फ़ारा है।”

इब्ने क़ुदामा रहिमहुल्लाह ने अल-मुग़्नी (10/72) में कहा : “जिसने कोई ऐसी नज़्र मानी जिसकी वह क्षमता नहीं रखता है, या वह उसकी क्षमता रखता था, फिर वह उसे पूरी करने में असमर्थ हो गया, तो उसपर क़सम (तोड़ने) का कफ़्फ़ारा है।” उद्धरण समाप्त हुआ।

जहाँ तक सामान्य रूप से कठिनाई का संबंध है, जो कि सभी धार्मिक कर्तव्यों को पूरा करने के दौरान सामान्य है, और यह नज़्र के मामले में भी सामान्य है, जो कि शरई कर्तव्य से अलग एक अतिरिक्त प्रतिबद्धता है और यह एक प्रकार की कठिनाई है। तथा जो लोग नज़्र मानते हैं, उनमें से ज़्यादातर जानबूझकर ऐसी चीज़ लाते हैं, जिसकी उसकी मन्नत में महत्ता होती है और वह उस इबादत का सम्मान करता है, जिसे वह अपनी नज़्र ठहराता है – तो यह सब (उसके लिए) कोई उज़्र और बहाना नहीं है, और इसकी वजह से उस व्यक्ति से नज़्र की अनिवार्यता समाप्त नहीं होगी, जब तक कि उसका निष्पादन करना उसके लिए दुर्लभ (बहुत कठिन) न हो जाए।

चौथा :

यदि कोई व्यक्ति आज्ञाकारिता की नज्र पूरी करता है, तो उसे नज़्र मानी हुई आज्ञाकारिता के कार्य को करने का प्रतिफल दिया जाएगा, तथा – इन शा अल्लाह – उसे उस नज़्र को पूरा करने का भी प्रतिफल दिया जाएगा। क्योंकि अल्लाह तआला ने नज़्र पूरी करने वालों की सराहना की है, जैसा कि अल्लाह तआला के इस फरमान में है :

يُوفُونَ بِالنَّذْرِ وَيَخَافُونَ يَوْمًا كَانَ شَرُّهُ مُسْتَطِيرًا   ]الإنسان :7 [

“वे लोग नज़्र पूरी करते हैं और उस दिन (के अज़ाब) से डरते हैं जिसकी बुराई बहुत अधिक फैली हुई होगी।’’ (सूरतुल इन्सान : 7)

और प्रशंसा केवल एक वांछनीय काम या अनिवार्य कार्य के मामले ही में की जाती है और इन दोनों ही मामले में कर्ता को प्रतिफल दिया जाएगा।

इसके आधार पर, जो व्यक्ति अपनी नज़्र की पूर्ति करते हुए एक हज़ार बार तस्बीह का पाठ करता है, उसे उस तस्बीह के लिए प्रतिफल दिया जाएगा; क्योंकि वह मूल रूप से आज्ञाकारिता (इबादत का कार्य) है, तथा उस मन्नत को पूरा करने पर उसे ईश्वरीय आदेश का पालन करने के लिए भी प्रतिफल दिया जाएगा।

और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।

स्रोत: साइट इस्लाम प्रश्न और उत्तर