हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.
दुआ का अध्याय इबादत के अध्यायों में से एक विस्तृत और व्यापक अध्याय है। तथा वह अल्लाह के निकट सबसे श्रेष्ठ, सबसे महान और सबसे प्रिय है। यहाँ तक कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने दुआ ही को इबादत क़रार दिया है। चुनाँचे अहमद (हदीस संख्या : 18849) और तिर्मिज़ी (हदीस संख्या : 3232) ने नो’मान बिन बशीर रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णन किया है कि उन्होंने कहा : अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : “दुआ ही इबादत है।” फिर आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने यह आयत पढ़ी :
وقال ربكم ادعوني أستجب لكم إن الذين يستكبرون عن عبادتي سيدخلون جهنم داخرين [غافر : 60].
“और तुम्हारे पालनहार ने फरमाया : तुम मुझे पुकारो, मैं तुम्हारी दुआ क़बूल करूँगा। निःसंदेह जो लोग मेरी इबादत से तकब्बुर (अहंकार) करते हैं, वे अपमानित होकर जहन्नम में जाएँगे।” (सूरत ग़ाफ़िर : 60)” इस हदीस के बारे में तिर्मिज़ी ने कहा : यह हसन सहीह है। और अल्बानी ने “सहीह व ज़ईफ़ सुनन तिर्मिज़ी” (हदीस संख्या : 2969) में इसे सहीह कहा है। तथा देखें : तफ़सीर तबरी 3/485.
उपर्युक्त मामले में दुआ करने के दो रूप हैं :
पहला :
वह दुआ एक ऐसी चीज़ के बारे में हो जिसका फ़ैसला हो चुका है और दुआ करने वाले व्यक्ति को उस फ़ैसले (परिणाम) के बारे में जानकारी है, जैसे कि वह जानता है कि वह फेल हो गया है, फिर वह अल्लाह से पास होने की दुआ करे, या वह जानता है कि अमुक व्यक्ति मर गया है, तो वह अल्लाह से दुआ करे कि उसे पुनर्जीवित कर दे। तो इस परिस्थिति में दुआ करना निरर्थक और व्यर्थ है, बल्कि वास्तव में उसे दुआ में सीमोल्लंघन करना माना जाएगा; क्योंकि वह एक ऐसी चीज़ के लिए दुआ करना है जो असंभव है।
अब्दुल्लाह बिन मुग़फ़्फ़ल रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि उन्होंने कहा : मैंने अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को फरमाते हुए सुना : “इस उम्मत में ऐसे लोग होंगे, जो तहारत (शुद्धिकरण) और दुआ में सीमा का उल्लंघन करेंगे।” इसे अहमद (हदीस संख्या : 17254) और अबू दाऊद (हदीस संख्या : 96) ने रिवायत किया है और अलबानी ने “सहीह सुनन अबू दाऊद - अल-उम्म” (हदीस संख्या : 86) में सहीह के रूप में वर्गीकृत किया है।
शैख़ुल-इस्लाम इब्ने तैमियह रहिमहुल्लाह ने कहा : “दुआ में सीमोल्लंघन कभी-कभी इस तरह होता है कि वह कोई ऐसी चीज़ माँगे, जिसका माँगना जायज़ नहीं है, जैसे कि निषिद्ध (हराम) चीजों के लिए सहायता माँगना, तथा कभी-कभी इस प्रकार हो सकता है कि वह ऐसी चीज़ का प्रश्न करे, जो अल्लाह नहीं करेगा, जैसे कि वह अपने लिए क़ियामत के दिन तक जीवित रहने का प्रश्न करे, या अपने आपसे उन चीजों की आवश्यकता को समाप्त करने के लिए प्रश्न करे जो मनुष्य के लिए अपरिहार्य हैं, जैसे कि खाने और पीने की आवश्यकता, या यह प्रश्न करने कि उसे अपने परोक्ष (ग़ैब) से अवगत कर दे, या उसे मासूम (पाप रहित) लोगों में से बना दे, या उसे बिना पत्नी के संतान प्रदान कर दे, और इसी तरह की अन्य चीज़ें जिनका माँगना सीमा का उल्लंघन है, जिसे अल्लाह पसंद नहीं करता और न ही ऐसी चीज़ का प्रश्न करने वाले को पसंद करता है।”
“मजमूउल-फतावा” (15/22) से उद्धरण समाप्त हुआ।
इब्ने आबिदीन ने कहा : “ऐसी चीज़ों का प्रश्न करना हराम है जो सामान्य रूप से असंभव हैं, जबकि वह कोई नबी या वर्तमान में कोई वली (अल्लाह का क़रीबी दोस्त) नहीं है, जैसे कि हवा में साँस लेने की ज़रूरत से मुक्त (बेनियाज़) होने का सवाल करना, ताकि वह दम घुटन से सुरक्षित रहे, या जीवन भर बीमारी से मुक्त रहने का प्रश्न करना, ताकि वह अपनी ताकत और इंद्रियों से हमेशा के लिए लाभ उठा सके। क्योंकि आदत (सामान्य स्थिति) उसकी असंभवता को इंगित करती है ... इसलिए यह सब निषिद्ध (हराम) है।”
“रद्दुल-मुहतार” (4/121) से उद्धरण समाप्त हुआ।
दूसरा रूप :
वह जानता है कि वह चीज़ हो चुकी है, जैसा कि प्रश्न में उल्लेख किया गया है, लेकिन वह नहीं जानता कि क्या फैसला किया गया है। तो ऐसी स्थिति में दुआ करने में कोई हर्ज नहीं है। इसलिए उसके लिए धर्मसंगत है कि अल्लाह की ओर मुतवज्जेह होकर जो कुछ वह चाहता है दुआ करे। क्योंकि बंदा अल्लाह के उस फैसले को नहीं जानता जो घटित हुआ है, क्या वह अच्छा है या बुराॽ
अहमद (हदीस संख्या : 22694) ने उल्लेख किया है और अलबानी ने “सहीह अत-तर्गीब वत-तर्हीब” (हदीस संख्या : 1634) में उसे हसन के रूप में वर्गीकृत किया है, मुआज़ रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाय : “निःसंदेह दुआ उस चीज़ के लिए भी लाभदायक है जो घटित हो चुकी और उसके लिए भी लाभकारी है जो अभी घटित नहीं हुई है। अतः ऐ अल्लाह के बंदो, तुम दुआ को अपने लिए अनिवार्य कर लो।”
नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के कथन : (निःसंदेह दुआ उसके लिए भी लाभदायक है जो घटित हो चुकी है और उस चीज़ के लिए भी लाभकारी है जो अभी घटित नहीं हुई है।) के सामान्य अर्थ से पता चलता है कि ऊपर जिस स्थिति का उल्लेख हुआ है, उस जैसी स्थिति में दुआ करना धर्मसंगत है।
अल्लामा मुबारकपूरी रहिमहुल्लाह ने “तुहफ़तुल-अह़्वज़ी” (5/427) में नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के फरमान : “तक़दीर (अल्लाह के फ़ैसले) को केवल दुआ ही टाल सकती।” के बारे में कहा : (... हालाँकि तक़दीर में जो कुछ निर्धारित है वह घटित होने वाली है, इसके बावजूद (शरीयत ने) चिकित्सा उपचार करने और दुआ करने का आदेश दिया है; क्योंकि वह (तक़दीर) लोगों से छिपी हुई है और वे नहीं जानते कि क्या होगा और क्या नहीं होगा .. इस तथ्य का समर्थन इब्ने उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा की उस हदीस से होता है जिसे तिर्मिज़ी ने रिवायत की है : “निःसंदेह दुआ उसके लिए भी लाभदायक है जो घटित हो चुकी है और उस चीज़ के लिए भी लाभकारी है जो अभी घटित नहीं हुई है।” उद्धरण समाप्त हुआ।
अतः जब आदमी को इस बात का ज्ञान नहीं है कि क्या फ़ैसला किया गया है, तो उसके लिए उस भलाई को प्राप्त करने के लिए जो वह चाहता है, और उस बुराई को दूर करने के लिए, जिससे वह डरता और बचाव चाहता है, दुआ करना धर्मसंगत है। और उस स्थिति में उसका दुआ करना उन नुसूस (ग्रंथों) के सामान्य अर्थ में शामिल है जिनमें दुआ करने के लिए प्रोत्साहित किया गया है और बल दिया गया है, जैसे कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का यह कथन है : “जो भी मुसलमान कोई ऐसी दुआ करता है, जिसमें कोई पाप या रिश्ते-नाते तोड़ने की बात नहीं होती है, तो अल्लाह उसे उस दुआ के कारण तीन चीजों में से एक चीज़ अवश्य प्रदान करता है : या तो वह उसकी माँग को दुनिया ही में पूरी कर देता है, या वह उसे उसके लिए आख़िरत में संग्रहित कर देता है। या वह उससे उसी के समान कोई बुराई दूर कर देता है।” सहाबा ने यह सुनकर कहा : तब तो हम बहुत अधिक दुआ करेंगे। आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : अल्लाह इससे भी बहुत अधिक देने वाला है।” इसे अहमद ने “अल-मुसनद” (हदीस संख्या : 11133) में अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत किया है और अलबानी ने “सहीह अत-तर्ग़ीब वत-तर्हीब” (हदीस संख्या : 1633) में इसे सहीह क़रार दिया है।
और अल्लाह तआला ही सबसे बेहतर जानता है।