हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.
प्रथम :
विद्वानों ने यह नियम कि "चीज़ों के संबंध में मूल सिद्धांत यह है कि वे अनुमेय हैं'' शरीयत के प्रमाणों के आधार पर बनाया है।
शैखुल-इस्लाम इब्ने तैमिय्यह रहिमहुल्लाह ने फरमाया :
''यह बात जान लें कि सभी मौजूदा वस्तुओं के बारे में, उनके विभिन्न प्रकार और अलग-अलग विवरण के बावजूद, मूल सिद्धांत यह है कि वे मनुष्यों के लिए बिल्कुल हलाल हैं, तथा वे शुद्ध (पवित्र) हैं, उनके लिए उन्हें पहनना और उन्हें छूना वर्जित नहीं है। यह एक व्यापक शब्द, एक सामान्य कथन है, और महान लाभ और विशाल बरकत वाला एक श्रेष्ठ मुद्दा है, जिसका शरीयत को मानने वाले अनगिनत कार्यों और लोगों की घटनाओं में सहारा लेते हैं। इसपर – जहाँ तक मुझे स्मरण है शरीयत से - दस प्रमाण हैं और वे हैं : अल्लाह की किताब, उसके रसूल की सुन्नत, मोमिनों के मार्ग का अनुसरण करना, जो अल्लाह के इस कथन में वर्णित है :
أطيعوا الله وأطيعوا الرسول وأولي الأمر منكم ''ऐ ईमान वालो! अल्लाह का आज्ञापालन करो और रसूल का आज्ञापालन करो और अपने में से अधिकार वालों (शासकों) का।'' (सूरतुन-निसा : 59) तथा उसके फरमान : إنما وليكم الله ورسوله والذين آمنوا ''तुम्हारे मित्र तो केवल अल्लाह और उसका रसूल तथा वे लोग हैं जो ईमान लाए।'' (सूरतुल-मायदा : 55), फिर क़ियास और एतिबार के तरीके, राय के तरीके और अंतर्दृष्टि।''
''मजमूउल-फ़तावा'' (21/535) से उद्धरण समाप्त हुआ।
फिर आप रहिमहुल्लाह ने उसके प्रमाण प्रस्तुत किए हैं, इसलिए संदर्भित पुस्तक में उससे अवगत होना अच्छा है।
इस नियम का अर्थ यह है कि धरती पर जो भी लाभ की चीज़ें हैं और मनुष्य ने उनसे जो कुछ भी निष्कर्षित किया है : उससे लाभ उठाना जायज़ है, जब तक कि उसके हराम (निषिद्ध) होने का कोई प्रमाण स्थापित न हो जाए।
दूसरी बात :
खाद्य पदार्थ, पेय, कपड़े और सफाई सामग्री के संबंध में, यह नियम उन सभी चीज़ों पर लागू किया जाएगा, जिसके बारे में कोई शरई नस (क़ुरआन या हदीस से स्पष्ट प्रमाण) वर्णित नहीं है, और इससे दो चीज़ों को अलग रखा गया है :
पहली :
ऐसी चीज़ें जो प्रभावी एवं व्यापक हानि और क्षति वाली हैं; क्योंकि हानिकारक पदार्थों के बारे में मूल सिद्धांत यह है कि वे निषिद्ध हैं, और वे "चीज़ों के संबंध में मूल सिद्धांत अनुमेयता है" के नियम के अंतर्गत नहीं आते हैं।
अल्लाह तआला का फरमान है :
وَلَا تُلْقُوا بِأَيْدِيكُمْ إِلَى التَّهْلُكَةِ
البقرة /195.
“और अपने आपको विनाश में न डालो।” (सूरतुल बक़रा : 195)
तथा अल्लाह तआला का फरमान है :
وَلَا تَقْتُلُوا أَنفُسَكُمْ إِنَّ اللَّهَ كَانَ بِكُمْ رَحِيمًا
النساء /29.
“तथा अपने आपको क़त्ल न करो। निःसंदेह अल्लाह तुम्हारे प्रति अत्यंत दयालु है।” (सूरतुन-निसा : 29).
अबू सईद अल-खुदरी रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : “न हानि उठाना जायज़ है और न ही एक दूसरे को हानि पहुँचाना।” इसे हाकिम (2/57-58) ने रिवायत किया है और कहा है कि इमाम मुस्लिम की शर्त पर इसकी इसनाद सही (प्रामाणिक) है, और इसे अलबानी ने "सिलसिलतुल अहादीस अस-सहीहा" (1/498) में सहीह कहा है।
पवित्र क़ुरआन के प्रसिद्ध व्याख्याकार शैख मुहम्मद अल-अमीन अश-शंक़ीती रहिमहुल्लाह ने इस मुद्दे का अनुसंधान किया है। उन्होंने कहा :
“अगर इसमें ऐसा नुक़सान है जिसमें लाभ का कोई अंश नहीं है, तो यह निषिद्ध है; क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है ; “न हानि उठाना जायज़ है और न ही एक दूसरे को हानि पहुँचाना।”.
यदि इसमें एक ओर लाभ है और दूसरी ओर हानि है, तो इसकी तीन स्थितियाँ हैं :
पहली : लाभ हानि से अधिक है।
दूसरी : इसके विपरीत (यानी हानि लाभ से अधिक है).
तीसरी : दोनों बातें (यानी लाभ और हानि) बराबर हैं।
यदि हानि लाभ से अधिक या उसके बराबर है, तो वह वर्जित और निषिद्ध होगा। इस हदीस के कारण कि : “न हानि उठाना जायज़ है और न ही एक दूसरे को हानि पहुँचाना।”, तथा इसलिए कि नुकसान को दूर करने को लाभ अर्जित करने पर प्राथमिकता दी जाती है।
यदि लाभ (हानि से) अधिक और प्रबल है, तो सबसे स्पष्ट बात यह है कि वह जायज़ है; क्योंकि धर्मशास्त्र के सिद्धांतों में यह बात प्रमाणित है कि : प्रबल लाभ को संभावित हानि पर प्राथमिकता दी जाती है।” ''अज़वाउल-बयान” (7/793-794) से उद्धरण समाप्त हुआ।
दूसरी चीज़ :
मांस और ज़बह किए गए जानवरों के संबंध में मूल सिद्धांत निषेध का होना है।
क्योंकि मांस और ज़बह किए गए जानवर को उस वक़्त तक खाना जायज़ नहीं है, जब तक कि उनमें ज़बह करने की शर्तें पूरी न हों।
खत्ताबी रहिमहुल्लाह ने कहा :
“जहाँ तक उस चीज़ की बात है, जो मूल रूप से निषिद्ध है, वह केवल कुछ शर्तों के साथ और कुछ ज्ञात रूपों में अनुमेय है, जैसे कि शर्मगाहें जो विवाह के बाद या लौंडी का मालिक होने के अलावा अनुमेय नहीं हैं, और जैसे कि बकरी जिसका मांस शरई तरीक़े से ज़बह किए बिना अनुमेय नहीं है, तो जब भी उन शर्तों के अस्तित्व के बारे में और उनके निश्चित रूप से उस तरीक़े पर प्राप्त होने के बारे में संदेह पैदा होगा जो हलाल (जायज़) होने के लिए एक संकेत बना दिया गया है, तो वह अपने मूल निषेध और हराम होने पर बाक़ी रहेगा।” ''मआलिमुस-सुनन'' (3/57) से उद्धरण समाप्त हुआ।
लेकिन उनके हलाल होने को साबित करने के लिए हमारा यह जानना पर्याप्त है कि उसको ज़बह करने वाला मुसलमान है, या वह अह्ले किताब (यहूदियों और ईसाइयों) में से है, और इसके बाद प्रत्येक ज़बह किए जाने वाले जानवर में ज़बह करने की विधि को सत्यापित करना शर्त (आवश्यक) नहीं है, जैसा कि पहले फतवा संख्या : (223005) में बताया गया है।
इसके आधार पर, इस्लामी या अह्ले किताब के देशों में पाए जाने वाले ज़बह किए गए जानवरों के बारे में : यह हुक्म लगाया जाएगा कि वे हलाल हैं, जब तक कि यह साबित न हो जाए कि उन्हें इस तरह से ज़बह किया गया है जो इस्लामी शरीयत के ख़िलाफ़ (विरुद्ध) है, जैसे कि गला घोंटना, या बिजली का झटका, या उसपर अल्लाह का नाम नहीं लिया गया है... इत्यादि।
जहाँ तक उस उत्पाद का सवाल है जिसके हराम (निषिद्ध) होने के लिए कोई शरई प्रमाण नहीं है, या जिसके अवयवों की सूची में कुछ भी ऐसा नहीं लिखा गया है जो निषिद्ध या हानिकारक है : तो हम उसके अनुमेय और शुद्ध होने का हुक्म लगाएँगे, और हम मात्र संदेह या निराधार बात के कारण इस मूल सिद्धांत से अलग नहीं होंगे।
यदि किसी खाद्य पदार्थ में वर्जित तत्व मिल जाएँ, तो क्या उसे खाना पूरी तरह वर्जित है? इसमें कुछ विवरण है जो फतवा संख्या : (114129) में बताया जा चुका है।
सारांश : यह है कि यदि स्वयं निषिद्ध पदार्थ अभी भी मौजूद है, तो उसका सेवन करना हराम (वर्जित) है। यदि वह प्रतिक्रिया या निर्माण के कारण किसी अन्य पदार्थ में परिवर्तित हो गया है और पहला निषिद्ध पदार्थ अब उसमें मौजूद नहीं है : तो विद्वानों के प्रबल (राजेह) कथन के अनुसार उसका सेवन करना जायज़ है।
तीसरा :
जहाँ तक कपड़ों का संबंध है, तो वह "चीज़ों के संबंध में मूल सिद्धांत अनुमेयता है" के नियम के अंतर्गत शामिल है। अतः उनमें मूल सिद्धांत यह है कि वे अनुमेय हैं, सिवाय उसके जिसे शरीयत ने अलग कर दिया है, जैसे कि रेशम जो पुरुषों के लिए निषिद्ध है, और कुछ खालें जिन्हें दिबाग़त (टैनिंग) द्वारा शुद्ध नहीं किया जा सकाता। इसे फतवा संख्या : (221753) में उल्लेख किया जा चुका है।
और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।