हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.
सर्व प्रथम :
कोई व्यक्ति इस्लाम में तब तक प्रवेश नहीं करता, जब तक कि वह दोनों शहादतों (अर्थात् ‘ला इलाहा इल्लल्लाह’ की शहादत और ‘मुहम्मदुन रसूलुल्लाह’ की शहादत) का उच्चारण न कर ले, यदि वह उन्हें उच्चारित करने में सक्षम है, तथा वह उन दोनों के अर्थों को स्वीकार करे। इमाम नववी रहिमहुल्लाह ने फरमाया :
“अह्ले सुन्नत के मुहद्दिसीन, फुक़हा और मुतकल्लिमीन इस बात पर सहमत हैं की : वह मोमिन (विश्वासी) जिसके बारे में यह हुक्म लगाया जाता है कि वह क़िबला वालों में से है और वह आग (नरक) में सदैव नहीं रहेगा, केवल वह है जो अपने दिल में इस्लाम धर्म पर ऐसा दृढ़ विश्वास रखे जो संदेहों से मुक्त हो और वह दोनों ‘शहादतों’ का उच्चारण करे। यदि वह उन दोनों में से किसी एक तक सीमित रहता है तो वह बिल्कुल क़िब्ला वालों में से नहीं होगा, सिवाय इसके कि वह अपनी ज़बान में किसी खराबी के कारण, या मृत्यु से निपटने के लिए ऐसा करने में असमर्थता के कारण, या किसी अन्य कारण से बोलने में सक्षम न हो: तो वह मोमिन होगा।’’
"शर्हुन-नववी अला मुस्लिम" (1/149) से अंत हुआ।
शैख इब्ने बाज़ रहिमहुल्लाह ने फरमायाः
"दोनों शहादतों का उच्चारण करना आवश्यक है, अगर वह उच्चारण कर सकता है, लेकिन उसने उच्चारण करने से उपेक्षा किया: तो वह इस्लाम में प्रविष्ट नहीं हुआ यहाँ तक कि वह दोनों शहादतों का उच्चारण कर ले। इस बात पर विद्वानों की सर्वसहमति है। फिर उच्चारण के साथ दोनों शहादतों के अर्थ में विश्वास रखना और उसमें सच्चा होना आवश्यक है।''
‘‘मजमूओ फतावा इब्ने बाज़’’ (5/340) से अंत हुआ।
यदि वह उनका उच्चारण करने की क्षमता नहीं रखता है, जैसे कि गूंगा व्यक्ति : तो उसका इस्लाम स्वीकारना लिखित रूप से होगा यदि वह लिख सकता है, या ऐसे संकेत के द्वारा होगा जो संतुष्टि और स्वीकृति के साथ उसके इस्लाम में प्रवेश करने की यथार्थता को दर्शाता हो।
दूसरा :
शहादत (गवाही) में पैगंबर मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के नाम का उल्लेख किया जाना अनिवार्य है, और इसमें आपके सभी नाम, तथा इसी तरह आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की कुन्नियत बराबर हैं, जैस- मुहम्मद, अहमद, अल-माही, अबुल-क़ासिम .... इत्यादि।
अल-हलीमी रहिमहुल्लाह ने कहा :
''अगर काफिर कहे : ''ला इलाहा इल्लल्लाह, अहमद रसूलुल्लाह'' तो यह कहना और उसका : ''मुहम्मदुन रसूलुल्लाह'' कहना बराबर है।
अल्लाह सर्वशक्तिमान ने फरमाया :
ومبشرا برسول يأتي من بعدي اسمه أحمد
سورة الصف : 6
"और एक रसूल की शुभ सूचना देने वाला हूँ जो मेरे बाद आएगा, जिसका नाम अहमद है।" (सूरतुस्सफ़ः 6)
और दोनों शब्दों की व्याख्या एक है...
अतः अहमद और मुहम्मद में कोई अंतर नहीं है।
और अगर वह कहे : ''अबुल-क़ासिम रसूलुल्लाह'', तो यह भी ऐसे ही है। और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।"
''अल-मिनहाज फी शुअबिल ईमान'' लिल-हलीमी (1/140) से अंत हुआ।
तीसरा:
जो भी इस बात को जानता है कि मानव जाति का एक संदेशवाहक है जिसे अल्लाह ने समस्त लोगों के लिए भेजा है, और उसे उनका नाम ज्ञात नहीं है, फिर वह उन पर ईमान ले आया : और उसने अपनी ज़बान से इसकी गवाही दी, तो वह मुसलमान होगा, जैसे कि यदि वह कहे : मैंने इस्लाम स्वीकार कर लिया (मैं इस्लाम ले आया, या मैं मुसलमान होगया)। याः मैं उस रसूल पर ईमान लाया जिसपर मुसलमान ईमान रखते हैं। अल्लाह तआला ने फिरऔन के बारे में वर्णन किया है कि जब वह डूबने लगा तो उसने कहा :
آمَنْتُ أَنَّهُ لا إِلَهَ إِلاَّ الَّذِي آمَنَتْ بِهِ بَنُو إِسْرَائِيلَ وَأَنَا مِنْ الْمُسْلِمِينَ
سورة يونس : 91
"मैं ईमान लाया कि उसके सिवा कोई पूज्य नहीं है, जिसपर बनी इस्राईल ईमान लाये हैं और मैं मुसलमानों (आज्ञाकारियों) में से हूँ।" (सूरत यूनुसः 91).
तो अल्लाह ने उसका अपने इस कथन के द्वारा उत्तर दियाः
أَالآنَ وَقَدْ عَصَيْتَ قَبْلُ وَكُنْتَ مِنْ الْمُفْسِدِينَ
سورة يونس : 91 .
‘‘क्या अब (ईमान लाता है)? जबकि इससे पूर्व अवज्ञा करता रहा और उपद्रवियों में से था?’’ (सूरत यूनुसः 91).
यह इंगित करता है कि यदि उसने ये शब्द डूबने से पहले कहे होते, तो वे उससे स्वीकार्य होते।
अतः अगर कोई काफ़िर ऐसी बात कहता है जिससे यह पता चलता है कि वह इस्लाम धर्म में प्रवेश कर चुका है, और वह हमारे पैगंबर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर ईमान लाया हैः तो यह बात उससे स्वीकार की जाएगी और उसके इस्लाम (मुसलमान होने) का हुक्म लागू होगा, फिर इसके बाद उसे परिपूर्ण रूप से दोनों शहादतों को सिखलाया जाएगा।
बल्कि अगर काफिर ''ला इलाहा इल्लल्लाह'' कहने तक सीमित रहता है, तो उसके इस्लाम लाने का हुक्म लागू होगा। फिर उसे पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के लिए ईश्दूतत्व की गवाही की शिक्षा दी जाएगी और उसे इसका हुक्म दिया जाएगा।
शैख मुहम्मद बिन उसैमीन रहिमहुल्लाह ने कुछ ऐसी हदीसों का उल्लेख करने के बाद, जिनमें काफिर को दोनों शहादतों का आदेश दिया गया है, कहा :
“ये प्रमाण और इनके समान अन्य सबूत : यह दर्शाते हैं कि दोनों शहादतों के बिना इस्लाम परिपूर्ण नहीं हो सकता।
लेकिन कुछ ऐसे अन्य नुसूस (ग्रंथ-पाठ) हैं जो इंगित करते हैं कि एक व्यक्ति केवल पहली गवाही के साथ इस्लाम में प्रविष्ट हो जाता है, और वह “ला इलाहा इल्लल्लाह” है। इसी में से उसामा रज़ियल्लाहु अन्हु की हदीस है उस मुशरिक की कहानी में, जिसे उसामा ने अपने क़ाबू में कर लिया था। तो जब उन्होंने उसे गिरा दिया तो उसने कहा: ला इलाहा इल्लल्लाह, तो उन्हों ने उसे क़त्ल कर दिया। जब उन्होंने नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को इसकी सूचना दी, तो आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः "क्या तू ने उसे “ला इलाहा इल्लल्लाह” कहने के उपरांत भी मार दियाॽ!'' उन्होंने कहाः "हाँ, उसने तो केवल बचने के लिए कहा था अर्थात् ताकि वह उसके द्वारा क़त्ल से बच जाए। तो आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने कहाः "क्या तू ने उसे “ला इलाहा इल्लल्लाह” कहने के उपरांत भी मार दियाॽ!'' तो आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम इसे दोहराते रहे यहाँ तक कि उसामा ने कहा : मैंने कामना की काश कि मैं अभी तक इस्लाम में प्रवेश न किया होता; क्योंकि जब वह इस्लाम में प्रविष्ट हो जाते, तो इस्लाम उससे पहले जो कुछ पाप था उसे नष्ट कर देता।
इससे पता चलता है कि वह अपने कथन : "ला इलाहा इल्लल्लाह’’ के द्वारा इस्लाम में प्रविष्ट होगया और अपना खून सुरक्षित कर लिया। और इस लिए भी कि पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अपने चाचा अबू तालिब की मृत्यु के समय उपस्थित हुए और आप उनसे कह रहे थे : "हे चाचा, आप "ला इलाहा इल्लल्लाह’’ कह दें। एक ऐसा शब्द जिसके द्वारा मैं आपके लिए अल्लाह के साथ बहस करूँगा।’’, और आपने दूसरी शहादत का उल्लेख नहीं किया, और वह ‘मुहम्मदुन रसूलुल्लाह’ की शहादत है ...
मेरे लिए प्रमाणों से यही स्पष्ट होता है किः यदि उसने "ला इलाहा इल्लल्लाह’’ की गवाही दे दी, तो वह इस्लाम में प्रविष्ट हो गया, और फिर उसे ‘मुहम्मदुन रसूलुल्लाह’ की (भी) गवाही देने का आदेश दिया जाएगा।’’
संक्षेप के साथ ‘अश-शर्हुल मुम्ते’’ (14/464 - 466) से उद्धरण समाप्त हुआ।
और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।