हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.
सबसे पहले :
इस्लाम धर्म में प्रवेश करने और उसकी शरीअत (धर्मशास्त्र) के अनुसार कार्य करने के लिए बाध्य वह व्यक्ति हैः जो समझदार (बुद्धि वाला) और व्यस्क हो, जिसे इस्लाम का निमंत्रण पहुँच गया और उसपर तर्क स्थापित किया जा चुका हो।
अबू दाऊद (हदीस संख्याः 4403) और तिर्मिज़ी (हदीस संख्याः 1423) ने अली रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत किया है कि उन्हों ने अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से रिवयात किया है कि आपने फरमायाः (तीन लोगों से क़लम उठा लिया गया है : सोनेवाले से यहाँ तक कि वह जाग जाए, बच्चे से यहाँ तक कि वह बालिग़ (व्यस्क) हो जाए और पागल व्यक्ति से यहाँ तक कि वह समझदार हो जाए (उसे बुद्धि आ जाए)।’’
इस हदीस को अल्लामा अल्बानी ने सहीह अबू दाऊद में सहीह कहा है।
”अल-मौसूअतुल फ़िक़्हिय्या” (4/36) में उल्लेख किया गया है :
“जम्हूर फुक़हा (ज्यादातर धर्मशास्त्री) इस बात की ओर गए हैं कि मनुष्य के धार्मिक कर्तव्यों के (पालन के) लिए बाध्य होने का कारण बालिग होना (यौवन को पहुँचना) है, विवेक (अर्थात अच्छे-बुरे में अंतर करने की क्षमता का होना) नहीं है, और यह कि विवेकी बच्चे पर कोई भी कर्तव्य अनिवार्य नहीं है, तथा किसी कर्तव्य का पालन न करने, या किसी निषिद्ध कार्य को कर लेने पर उसे परलोक में दंडित नहीं किया जाएगा। क्योंकि पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान हैः ‘‘तीन तरह के लोगों से क़लम उठा लिया गया है : सोनेवाले से यहाँ तक कि वह जाग जाए, बच्चे से यहाँ तक कि वह बालिग़ हो जाए (यौवन को पहुँच जाए) और पागल व्यक्ति से यहाँ तक कि वह समझदार हो जाए।’’ समाप्त हुआ।
तथा उसी किताब (30/264) में आया हैं :
‘‘फुक़हा का इस बात पर इज्माअ (सर्वसम्मत) हैं कि बुद्धि मनुष्य के शरीअत के आदेशों के (पालन के) लिए बाध्य होने का कारण है, इसलिए इबादत का कोई कार्य जैसे- नमाज़ या रोज़ा या हज्ज या जिहाद वगैरह उस व्यक्ति पर अनिवार्य नहीं है जिसके पास बुद्धि नहीं है, जैसे कि पागल का मामला है, भले ही वह एक बालिग (व्यस्क) मुसलमान हो।’’ उद्धरण समाप्त हुआ।
तथा शैख़ुल इस्लाम इब्न तैमिय्या रहिमहुल्लाह ने फरमाया :
‘‘कुरआन और सुन्नत से पता चलता है कि अल्लाह तआला किसी को संदेश (धर्म का निमंत्रण) पहुँचाने के बाद ही दंडित करता है। अतः जिस व्यक्ति को बिल्कुल संदेश नहीं पहुँचा, उसे बिल्कुल दंडित नहीं किया जाएगा। और जिसे वह संपूर्णतया कुछ विवरण के बिना पहुँचा हैः तो उसे केवल उसी चीज़ के इनकार पर दंडित किया जाएगा, जिस पर संदेश पहुँचने की वजह से तर्क स्थापित हो चुका है। वह प्रमाण, उदाहरण के तौर पर, अल्लाह तआला का यह कथन हैः
لِئَلَّا يَكُونَ لِلنَّاسِ عَلَى اللَّهِ حُجَّةٌ بَعْدَ الرُّسُلِ
[سورة النساء :165]
“ताकि इन रसूलों के (आगमन के) पश्चात् लोगों के लिए अल्लाह पर कोई तर्क न रह जाए।” (सूरतुन-निसा 4: 165)
तथा अल्लाह ने फरमायाः
يَا مَعْشَرَ الْجِنِّ وَالْإِنسِ أَلَمْ يَأْتِكُمْ رُسُلٌ مِّنكُمْ يَقُصُّونَ عَلَيْكُمْ آيَاتِي وَيُنذِرُونَكُمْ لِقَاءَ يَوْمِكُمْ هَـٰذَا ۚ قَالُوا شَهِدْنَا عَلَىٰ أَنفُسِنَا ۖ وَغَرَّتْهُمُ الْحَيَاةُ الدُّنْيَا وَشَهِدُوا عَلَىٰ أَنفُسِهِمْ أَنَّهُمْ كَانُوا كَافِرِينَ
[سورة انعام :130]
“हे जिन्नों तथा मनुष्यों के समुदाय! क्या तुम्हारे पास तुम्हीं में से रसूल नहीं आए, जो तुम्हें हमारी आयतें सुनाते और तुम्हें तुम्हारे इस दिन (के आने) से सावधान करते? वे कहेंगेः हम स्वयं अपने ही विरुद्ध गवाह हैं। उन्हें सांसारिक जीवन ने धोखे में रखा था और अपने ही विरुद्ध गवाह हो गए कि वास्तव में वही काफ़िर थे।’’ (सूरतुल अन्आम 6: 130).
तथा अल्लाह ने फरमायाः
أَوَلَمْ نُعَمِّرْكُمْ مَا يَتَذَكَّرُ فِيهِ مَنْ تَذَكَّرَ وَجَاءَكُمُ النَّذِيرُ
[سورة فاطر :37 ]
“क्या हमने तुम्हें इतनी आयु नहीं दी कि जिसमें कोई शिक्षा ग्रहण करना चाहता तो शिक्षा ग्रहण कर लेताॽ तथा तुम्हारे पास सचेतकर्ता (नबी) भी आया था।’’ (सूरत फ़ातिर 35:37)
तथा अल्लाह ने फरमायाः
وَمَا كُنَّا مُعَذِّبِينَ حَتَّى نَبْعَثَ رَسُولًا
[سورة الإسراء :15]
“और हम यातना देने वाले नहीं हैं, जब तक कि कोई रसूल न भेजें।’’ (सूरतुल इस्रा 17:15).
मज्मूउल फतावा (12/493) से समाप्त हुआ।
अधिक जानकारी के लिए, कृपया प्रश्न संख्या (239026) का उत्तर देखें।
दूसरी बात यह है :
शहादतैन (दोनों शहादत अर्थात् ला इलाहा इल्लल्लाह की शहादत और मुहम्मदुन रसूलुल्लाह की शहादत ) का उच्चारण करना इस्लाम में प्रवेश करने की एक शर्त है, उस व्यक्ति के लिए जो इन दोनों कलिमों को बोलने में सक्षम है।
शैख़ुल इस्लाम इब्ने तैमिय्या रहिमहुल्लाह फरमाते हैं :
‘‘रही बात ‘‘शहदातैन’’ की, तो यदि कोई व्यक्ति इन दोनों किलिमों को न बोले, जबकि वह ऐसा करने में सक्षम है, तो वह मुसलमानों की सर्वसहमति के अनुसार काफ़िर (अविश्वासकर्ता) है, और वह इस उम्मत (समुदाय) के पूर्वजों, इसके इमामों और इसके अधिकांश विद्वानों के निकट प्रोक्ष एवं प्रत्यक्ष रूप से काफ़िर (अविश्वासकर्ता) है।’’
‘‘मज्मूउल फतावा (7/609)’’ से समाप्त हुआ।
और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक जानता है