शुक्रवार 21 जुमादा-1 1446 - 22 नवंबर 2024
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उसने अज्ञानता के कारण फज्र उदय होने के बाद सह़री की

प्रश्न

मैंने हाल ही में तुर्की में लगभग 3 महीने से निवास किया है। मैंने पिछले शाबान के पहले अर्ध में रमज़ान की क़जा का रोज़ा रखा। मुझे तुर्की में फ़ज्र की अज़ान में अंतर के मुद्दे के बारे में पता नहीं था, जो कि संयोग से शाबान के अंतिम दिन पता चला। तो क्या मुझपर क़ज़ा करना और खाना खलाना अनिवार्य है, दोनों में से कोई एक या दोनों, या मुझपर कुछ भी अनिवार्य नहीं है क्योंकि मैं इस मुद्दे से अनभिज्ञ थीॽ

उत्तर का पाठ

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.

यदि आप उस शहर में फज्र के समय के शुरू होने का सही समय नहीं जानती थीं, जिसमें आप स्थानांतरित हुई हैं; और आपने फज्र के प्रवेश होने के बाद खाया है और आपको इस बारे में पता नहीं था : विद्वानों ने उस आदमी के हुक्म के बारे में मतभेद किया है, जिसने यह सोचकर खाया या पिया कि रात अभी बाक़ी है और फज्र उदय नहीं हुई है, इसी तरह वह व्यक्ति जिसने यह समझते हुए खाया या पिया कि सूरज डूब गया है, फिर उसे पता चला कि वह गलती पर था।

तो बहुत से विद्वानों का मत यह है कि इसकी वजह से उसका रोज़ा अमान्य हो जाएगा, और उसे इसके स्थान पर एक दिन रोज़ा रखना होगा।

जबकि अन्य विद्वानो का विचार यह ​​है कि उसका रोज़ा सही है और वह अपना रोज़ा पूरा करेगा है और उसके ऊपर क़ज़ा अनिवार्य नहीं है।

यह ताबेईन में से मुजाहिद और हसन का कथन है, और इमाम अहमद से वर्णित एक कथन है। तथा शाफेइय्या में से अल-मुज़नी, और शैखुल-इस्लाम इब्ने तैमिय्यह ने इसे चयन किया है, और शैख मुहम्मद अस-सालेह अल-उसैमीन - अल्ला उन सब पर दया करे – ने इसे राजेह (प्रबल) कहा है।

सह्ल बिन सअद रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि उन्होंने कहा : यह आयत उतरी :

 وَكُلُوا وَاشْرَبُوا حَتَّى يَتَبَيَّنَ لَكُمُ الخَيْطُ الأَبْيَضُ، مِنَ الخَيْطِ الأَسْوَدِ 

“तथा खाओ और पियो यहाँ तक कि तुम्हारे लिए काले धागे से सफ़ेद धागा स्पष्ट हो जाए।” (सूरतुल बक़रा : 187) और आयत का यह अंश : (مِنَ الفَجْرِ) “फ़ज्र का” अवतरित नहीं हुआ। चुनाँचे कुछ लोग जब रोज़ा रखना चाहते, तो उनमें का एक व्यक्ति अपने पैर में सफेद धागा और काला धागा बाँध लेता और खाता रहता यहाँ तक कि वह उन दोनों को स्पष्ट रूप से देख लेता। तो अल्लाह ने उसके बाद : (مِنَ الفَجْرِ) का अंश अवतरित किया, तो उन्हें पता चला कि इससे अभिप्राय रात और दिन है।” (अर्थात रात का कालापन और दिन की सफेदी)। इसे बुखारी (हदीस संख्या : 1917) और मुस्लिम (हदीस संख्या : 1091) ने रिवायत किया है।

शैख़ुल इस्लाम इब्ने तैमिय्यह रहिमहुल्लाह ने फरमाया :

“जो वाजिब से अनभिज्ञता के कारण त्याग कर दिया गया है, उदाहरण के तौर पर कोई आदमी बिना इतमिनान के नमाज़ पढ़ता था और वह यह नहीं जानता था कि यह अनिवार्य है। तो उसके बारे में विद्वानों ने मतभेद किया है : क्या समय बीत जाने के बाद उसपर उसे दोहराना अनिवार्य है या नहींॽ इसके बारे में दो प्रसिद्ध कथन (विचार) हैं। और वे दोनों इमाम अहमद के मत और उसके अलावा में दो कथन हैं।

सही मत यह है कि इस तरह के व्यक्ति पर उसे दोहराना अनिवार्य नहीं है; क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से सहीह ह़दीस में प्रमाणित है कि आपने नमाज़ में गलती करने वाले देहाती सहाबी से फरमाया : “जाओ, नमाज़ पढ़ो। क्योंकि तुमने नमाज़ नहीं पढ़ी। - दो या तीन बार – तो उसने कहा : उस अस्तित्व की क़सम! जिसने आपको सत्य के साथ भेजा है, मैं इससे बेहतर नहीं पढ़ सकता : इसलिए आप मुझे सिखाएँ जो मेरे लिए मेरी नमाज़ में पर्याप्त हो।” चुनाँचे नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उस सहाबी को इतमिनान के साथ नमाज़ पढ़ना सिखाया। आपने उन्हें उस समय से पहले पढ़ी गई नमाज़ों को दोहराने का आदेश नहीं दिया। जबकि उस सहाबी ने कहा था : “उस अस्तित्व की क़सम, जिसने आपको सत्य के साथ भेजा है, मैं इससे बेहतर नहीं पढ़ सकता।” लेकिन आपने उन्हें उस नमाज़ को दोहराने का आदेश दिया। क्योंकि उसका समय बाक़ी था। चुनाँचे उसे समय पर नमाज़ अदा करने का आदेश दिया गया है। लेकिन जिस नमाज़ का समय निकल गया, उसे उस नमाज़ को दोहराने का आदेश नहीं दिया, जबकि उसने उसके कुछ वाजिबात को छोड़ दिया था। क्योंकि वह नहीं जानता था कि यह उसके लिए अनिवार्य था ...

इसी तरह, जिन लोगों ने रमज़ान में तब तक खाना खाया जब तक कि उनके लिए काले रंग की रस्सियों से सफेद रंग की रस्सियाँ स्पष्ट न हो गईं, उन्होंने फज़्र के उदय होने के बाद खाया था और आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उन्हें दोहराने का आदेश नहीं दिया था। क्योंकि ये लोग अनिवार्यता से अनभिज्ञ थे। इसलिए आपने उन्हें उसकी क़ज़ा करने का आदेश नहीं दिया, जो उन्होंने अज्ञानता की स्थिति में छोड़ा था। जिस तरह काफ़िर को उस चीज़ की क़ज़ा करने का आदेश नहीं दिया जाता है, जो कुछ उसने अपने कुफ़्र और अज्ञानता की स्थिति में छोड़ा है।” “मजमूउल-फ़तावा” (21/429-331)।

तथा शैख़ इब्ने उसैमीन रहिमहुल्लाह ने कहा :

अज्ञानता - अल्लाह आपको बरकत प्रदान करे - : ज्ञान न होने को कहते हैं। लेकिन कभी-कभी इनसान को अज्ञानता के कारण उस चीज़ के बारे में क्षम्य समझा जाता है, जो बीत चुकी है, उसके बारे में नहीं जो वर्तमान में है। उदाहरण के लिए : सह़ीह़ बुख़ारी व सह़ीह़ मुस्लिम में अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु की हदीस से उल्लेख किया गया है : “एक आदमी आया और उसने ऐसी नमाज़ पढ़ी, जिसमें कोई इतमिनान नहीं था। फिर वह आया और उसने नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को सलाम किया। तो आपने उससे कहा : वापस जाओ और नमाज़ पढ़ों। क्योंकि तुमने नमाज़ नहीं पढ़ी। आपने इसे तीन बार दोहराया। तो उसने कहा : “उस अस्तित्व की क़सम! जिसने आपको सत्य के साथ भेजा है, मैं इससे बेहतर नहीं पढ़ सकता। इसलिए मुझे सिखाएँ।” तो आपने उन्हें सिखाया। लेकिन उन्हें उसकी क़ज़ा करने का आदेश नहीं दिया जो बीत चुका था। क्योंकि वह उस समय अनभिज्ञ थे। आपने उन्हें केवल वर्तमान नमाज़ को दोहराने का आदेश दिया।”

“लिक़ाउल बाब अल-मफ़तूह़” (19/32 अश-शामिला लाईब्रेरी के स्वचालित नंबरिंग के अनुसार)

अधिक जानकारी के लिए, प्रश्न संख्या : (38543) का उत्तर देखें।

इस कथन का निष्कर्ष यह है कि : नए शहर में समय के अंतर से अनभिज्ञ होने के कारण आप क्षम्य हैं और आपका रोज़ा सही (मान्य) है। ऐसी ही कुछ चीज़ें कुछ सह़ाबा रज़ियल्लाहु अन्हुम के साथ हुई थीं। लेकिन कहीं भी यह वर्णित नहीं है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उन्हें क़ज़ा करने का आदेश दिया।

फिर भी, यदि आप अपने धर्म के मामले में सावधानी का पक्ष अपनाते हुए, इन दिनों की क़ज़ा को दोहरा लेती हैं, तो यह बेहतर है और संदेह से अधिक दूर है, और उन विद्वानों के के मतभेद से बाहर निकलना है, जिन्होंने इसे अनिवार्य कहा है।

और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है। 

स्रोत: साइट इस्लाम प्रश्न और उत्तर