सोमवार 22 जुमादा-2 1446 - 23 दिसंबर 2024
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जमाअत "अल-अहबाश"

प्रश्न

"अहबाश" के नाम से उभरने वाले समूह के बारे में इस्लाम का क्या विचार है ? और उस के प्रति हमारा रवैया क्या होना चाहिये ? और अक़ीदा (विश्वास) के अध्याय में उनकी गलतियाँ क्या हैं ?

उत्तर का पाठ

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान अल्लाह के लिए योग्य है।

हर प्रकार की प्रशंसा केवल अल्लाह के लिए है, और उस अस्तित्व पर अल्लाह की दया और शांति अवतरित हो जिस के बाद कोई नबी नहीं, तथा उनकी संतान और साथियों पर भी। अल्लाह की प्रशंसा व गुणगान और दुरूद व सलाम के बाद :

वैज्ञानिक अनुसंधान और इफ्ता (फतवा जारी करने) की स्थायी समिति को (जमाअतुल-अहबाश) और लबनान में रहने वाले इस जमाअत के नेता अब्दुल्लाह अल-हबशी से संबंधित कई प्रश्न और जानकारी के अनुरोध प्राप्त हुए। इस समूह के यूरोप, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के कुछ देशों में सक्रिय संगठन हैं। इसलिए समिति ने इस जमाअत के द्वारा प्रकाशित पुस्तकों और लेखों का जांच किया जो इसके विश्वास, मान्यताओं, विचारों और निमंत्रण (दावत) को स्पष्ट करते हैं, इन सामग्रियों से अवगत होने और गौर (विचार) करने के बाद समिति सामान्य मुसलमानों के लिए यह निम्नलिखित बयान जारी करती है :

सर्वप्रथम : सहीह बुखारी और सहीह मुस्लिम में इब्ने मसऊद रज़ियल्लाहु अन्हु की हदीस से प्रमाणित है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "सब से अच्छे लोग मेरी पेढ़ी के लोग हैं, फिर वे लोग हैं जो उसके बाद की पेढ़ी में हैं, फिर वे लोग हैं जो उसके बाद की पीढ़ी मे हैं।" इस हदीस के दूसरे शब्द भी हैं। तथा आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फामाया : "मैं तुम्हें अल्लाह तआला से डरने और (अमीर की) बात को सुनने और उसका पालन करने की वसीयत करता हूँ, यद्यपि तुम्हारे ऊपर एक गुलाम ही क्यों न हाकिम बन जाये। और तुम में से जो आदमी मेरे बाद ज़िन्दा रहे गा वह इख्तिलाफ (मतभेद) देखेगा, अत: तुम मेरी सुन्नत और हिदायत याफ्ता (पथप्रदर्शित) ख़ुलफा-ए-राशिदीन की सुन्नत को दृढ़ता से थाम लो और उसे दाँतों से जकड़ लो। तथा धर्म में नयी ईजाद कर ली गयी चीज़ों (यानी बिद्अतों) से बचो, क्योंकि हर बिद्अत गुमराही (पथभ्रष्टता) है।" (इसे अहमद, अबू दाऊद और तिर्मिज़ी ने रिवायत किया है, और तिर्मिज ने इसे हसन सहीह कहा है)

सब से महत्वपूर्ण गुण और विशेषता जिस से वह सर्वश्रेष्ठ पीढ़ियाँ (शताब्दियाँ) विशिष्ट थीं, और जिस के द्वारा वह समस्त लोगों पर श्रेष्ठता और अच्छाई का पात्र बनीं : वह सभी मामलों में क़ुर्आन और हदीस को निर्णायक बनाना, उन्हें हर एक के कथन पर प्राथमिकता देना चाहे वह कोई भी हो, तथा दोनों पवित्र वह्य (अर्थात् क़ुरआन और हदीस) के नुसूस (ग्रंथों) को शरीअत के नियमों और सिद्धांतों और अरबी भाषा के अनुसार समझना, संपूर्ण शरीअत को उसकी सार्वलौकिकता और उसके व्यापक और सामान्य नियमों और सिद्धांतों, तथा उसके व्यक्तिगत और आंशिक नियमों के साथ अपनाना, तथा सदृश और अस्पष्ट नुसूस (ग्रंथों) को दृढ़ और स्पष्ट नुसूस की तरफ लौटाना है। इसीलिए वे लोग शरीअत पर मज़बूती से क़ायम रहे, उस के अनुसार कार्य किये, उसे दृढ़ता के साथ थामे रहे और उस में कमी और बेशी नहीं किये, और उन से धर्म के अंदर कोई वृद्धि या कमी कैसे हो सकती है जब कि वे लोग गलती और त्रुटि से पवित्र नुसूस को मज़बूती के साथ पकड़े हुये थे ?

दूसरा : फिर उनके बाद ऐसे अयोग्य और अपात्र लोग आये जिनके बीच बिद्अतों और नयी अविष्कार कर ली गई चीज़ों की बहुतायत हो गई, हर विचार वाला आदमी अपने विचार पर मोहित रहने लगा, शरीअत के नुसूस (ग्रंथों) को छोड़ दिया गया और उस में हेर-फेर और संशोधन कर लिया गया ताकि वह लोगों की इच्छाओं और विचारों के अनुकूल बन जायें, इस तरह उन्हों ने विश्वस्त पैग़ंबर का विरोध किया और मोमिनों के रास्ते को छोड़ कर दूसरे रास्ते की पैरवी की, अल्लाह सुब्हानहु व तआला का फरमान है :

"और जो सच्ची राह के स्पष्ट हो जाने के बाद रसूल (मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की मुखालफत करेगा और मुसलमानों के रास्ते के सिवाय खोज करेगा, हम उसे उसी ओर जिस ओर वह फिरता हो फेर देंगे, फिर हम उसे जहन्नम में झोंक देंगे और वह बहुत ही बुरी जगह है।" (सूरतुन्निसा : 115)

इस उम्मत (समुदाय) पर अल्लाह तआला की यह कृपा है कि वह इस के लिए हर युग में ज्ञान के अंदर ऐसे निपुण विद्वान को भेजता रहता है जो हर उस बिद्अत का सामना करने के लिए उठ खड़ा होता है जो दीन की सुंदरता को विकृत बनाती है,उसकी निर्मलता को मलिन करती है और सुन्नत का विरोध करती या उसे नष्ट कर देने वाली होती है, और यह वास्तव में अल्लाह तआला के अपने धर्म और शरीअत की रक्षा करने के वादे की पूर्ति है जिसका अल्लाह तआला ने अपने इस कथन में उल्लेख किया है : "हम ने ही ज़िक्र -क़ुर्आन- को उतारा है और हम ही उस की सुरक्षा करने वाले हैं।" (सूरतुल हिज्र : 9) तथा सिहाह, सुनन और मसानीद इत्यादि की किताबों में प्रमाणित हदीस के अंदर नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का यह फरमान है : "मेरी उम्मत का एक समूह सर्वथा अल्लाह के आदेश पर स्थापित (कार्यरत) रहेगा, उनको असहाय छोड़ देने वाले या उनका विरोध करने वाले उन्हें कोई नुक़सान नहीं पहुँचा सकते यहाँ तक कि अल्लाह तआला का फैसला आ जायेगा और वह उसी पर गालिब रहें गे।" इस हदीस के दूसरे शब्द भी हैं।

तीसरा : चौदहवीं शताब्दी हिज्री के अंतिम चौथाई में एक जमाअत उदय हुई जिस की अगुवाही अब्दुल्लाह अल-हबशी करता है जो अपने देश इथोपिया को छोड़ कर अपनी गुम्राही के साथ सीरिया के छेत्र में पहुँचा, और उसके नगरों के बीच स्थानांतरित होता रहा यहाँ तक कि लेबनान में निवास ग्रहण कर लिया, और लोगों को अपने तरीक़े से बुलाना शुरू कर दिया, और अपने अनुयायियों की संख्या को बढ़ाने लगा और अपने विचारों को फैलाना शुरू कर दिया जो कि जह्मिय्या, मो'तज़िला, क़ब्र के पुजारियों और सूफियों के अक़ीदा का मिश्रण है, तथा इसी के लिए वह पक्षपात करने, उसके लिए बहस करने, और उसकी तरफ निमंत्रण देने वाली पुस्तकें और पत्रिकायें छापने लगा।

इस संप्रदाय ने जो कुछ लिखा और प्रकाशित किया है उन्हें देखने वाले के लिए स्पष्ट रूप से यह विदित हो जाता है कि वे लोग अपने विश्वास में मुसलमानों के समूह (अह्ले सुन्नत व जमाअत) से बाहर (निष्कासित) हैं, उनकी झूठी मान्यताओं में से उदाहरण के तौर पर (यह पूरी सूची नहीं है) कुछ निम्नलिखित हैं :

1- वे विश्वास (आस्था) के मुद्दे के संबंध में निंदित अह्ले इर्जा (वे लोग जो अमल को ईमान से अलग मानते है और उन के निकट ईमान के साथ पाप का कोई हानि नहीं है) के मत पर हैं।

यह बात सर्वज्ञात है कि मुसलमानों का अक़ीदा जिस पर सहाबा और ताबेईन और आज तक उन के मार्ग का अनुसरण करने वाले लोग क़ायम हैं यह है कि ईमान ज़ुबान से इक़रार करने, दिल से विश्वास रखने और शरीर के अंगों द्वारा कार्य करने का नाम है, अत: सत्यापन के साथ पवित्र शरीअत की अनुकूलता, पालन और अनुसरण अनिवार्य है, अन्यथा उस कथित ईमान का कोई मान्य और सच्चाई नहीं है।

सलफ सालेहीन (पुनीत पूर्वजों) से इस अक़ीदा को प्रमाणित करने में बहुत से कथन वर्णित हैं, उन ही में से इमाम शाफेइ रहिमहुल्लाह का यह कथन है : "सहाबा,ताबेईन और उनके बाद आने वाले लोगों, तथा जिनको हम ने पाया है उनकी आम सहमति है, वह कहत हैं कि : ईमान कथन, कार्य और इरादे का नाम है, इन तीनों में से एक भी दूसरे के बिना पर्याप्त नहीं है।"

2- ये लोग अल्लाह तआला को छोड़ कर मृतकों से फर्याद चाहना, शरण ढूंढ़ना, मदद मांगना और उन्हें पुकारना वैध ठहराते हैं, और यह क़ुरआन व हदीस के नुसूस और मुसलमानों की सर्वसहमति के अनुसार बड़ा शिर्क है, और यही शिर्क पहले मुशरेकीन क़ुरैश के काफिरों वगैरा का धर्म है, जैसाकि अल्लाह सुब्हानहु व तआला ने उनके बारे में फरमाया है : "और ये लोग अल्लाह को छोड़ कर ऐसी चीज़ों की इबादत करते हैं जो न उन को नुक़सान पहुँचा सकें और न उन को लाभ पहुँचा सकें और कहते हैं कि ये अल्लाह के सामने हमारी सिफारिश करने वाले हैं।" (सूरत यूनुस : 18)

तथा अल्लाह अज़्ज़ा व जल्ल का फरमान है : "तो आप केवल अल्लाह ही की इबादत करें उसी के लिए दीन को खालिस (शुद्ध) करते हुये। सुनो! अल्लाह तआला ही के लिए खालिस इबादत करना है, और जिन लोगों ने उस के सिवाय औलिया बना रखे हैं (और कहते हैं) कि हम इन की इबादत केवल इसलिए करते हैं कि यह (बुज़ुर्ग) हम को अल्लाह के क़रीब पहुँचा दें। ये लोग जिस बारे में मतभेद कर रहे हैं उस का फैसला अल्लाह तआला स्वयं कर देगा, झूठे और नाशुक्रे (लोगों) को अल्लाह तआला रास्ता नहीं दिखाता।" (सूरतुज़्ज़ुमर : 2-3)

तथा अल्लाह सुब्हानहु व तआला ने फरमाया : "आप कहिये कि थल और जल के अंधेरों से जब उसे नर्मी और चुपके से पुकारते हो कि अगर हमें इस से आज़ाद कर दे तो तेरे ज़रूर शुक्रगुज़ार हो जायेंगे तो तुम्हें कौन बचाता है ? आप स्वयं कहिये कि इस से और हर मुसीबत से तुम्हें अल्लाह ही बचाता है, फिर भी तुम ही शिर्क करते हो।" (सूरतुल अनआमः 63-64)

तथा अल्लाह तआला ने फरमाया : "और यह कि मिस्जदें केवल अल्लाह ही के लिए (खास) हैं, तो अल्लाह तआला के साथ किसी दूसरे को न पुकारो।" (सूरतुल जिन्न : 18)

तथा अल्लाह सुब्हानहु व तआला ने फरमाया : "यही है अल्लाह तुम सब का रब,इसी का मुल्क (राज) है और जिन्हें तुम उसके सिवाय पुकार रहे हो वह तो खजूर की गुठली के छिलके के भी मालिक नहीं, अगर तुम उन्हें पुकारो तो वे तुम्हारी पुकार सुनते ही नहीं और अगर (मान लिया कि) सुन भी लें तो क़बूल नहीं करेंगे, बल्कि क़ियामत के दिन तुम्हारे शिर्क को साफ नकार देंगे। और आप को कोई भी (अल्लाह तआला) जैसा जानकार खबरें नहीं देगा।" (सूरत फातिर : 13-14)

तथा नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "दुआ ही इबादत है।" इसे अहले सुनन ने सहीह इसनाद के साथ रिवायत किया है। (यह एक सहीह हदीस है जिसे अबू दाऊद और तिर्मिज़ी आदि ने रिवायत किया है, और तिर्मिज़ी ने कहा है कि यह हदीस हसन सहीह है।) इस अर्थ की आयतें और हदीसें बहुत अधिक हैं, जो इस बात पर तर्क हैं कि पहले के मुशरिकीन इस बात को जानते थे कि अल्लाह तआला ही पैदा करने वाला, रोज़ी देने वाला, लाभ और हानि पहुँचाने वाला है, और उन्हों ने अपने पूज्यो की पूजा मात्र इसलिए किया ताकि वे अल्लाह के पास उनके लिए सिफारिश करें, और उन्हें अल्लाह की निकटता तक पहुँचा दें, तो इस पर अल्लाह तआला ने उन्हें काफिर घोषित कर दिया, और उनके ऊपर कुफ्र और शिर्क का हुक्म लगाया, और अपने नबी को उनसे लड़ाई करने का आदेश दिया यहाँ तक कि इबादत (उपासना और पूजा) संपूर्ण रूप से अल्लाह के लिए हो जाये। जैसाकि अल्लाह सुब्हानहु व तआला का फरमान है : "और तुम उन से उस समय तक संघर्ष करो कि फित्ना (शिर्क) बाक़ी न रहे और धर्म पूरा का पूरा अल्लाह ही का हो जाये।" (सूरतुल अंफाल : 39)

विद्वानों ने इस बारे में बहुत सारी किताबें लिखी हैं, और उन के अंदर उस इस्लाम की हक़ीक़त (वास्तविकता) को स्पष्ट किया है जिस के साथ अल्लाह तआला ने अपने पैगंबरों को भेजा और जिस के साथ अपनी किताबें अवतरित की, तथा उनके अंदर जाहिलियत (अज्ञानता) के युग के लोगों के धर्म,उनकी मान्यताओं,आस्थाओं और शरीअत के विरूद्ध उनके कामों को बयान किया है, इस विषय में सब से श्रेष्ठ बात शैखुल इस्लाम इब्ने तैमिय्या रहिमहुल्लाह ने अपनी बहुत सारी किताबों में लिखी है, उनमें सबसे संछिप्त किताब में से एक : (क़ाइदा जलीला फित्तवस्सुल वल-वसीला) है।

3- उनके निकट क़ुर्आन वास्तव में अल्लाह का कलाम (वाणी) नहीं है।

कु़रआन और हदीस के ग्रंथों और मुसलमानों की सर्व सहमति से यह बात विज्ञात है कि अल्लाह तआला जब चाहे अपनी महिमा के योग्य बोलता (कलाम करता) है, और यह कि क़ुर्आन करीम अपने अक्षरों और अर्थों समेत वास्तव में अल्लाह तआला का कलाम (वाणी) है, जैसाकि अल्लाह तआला का फरमान है : "अगर मुश्रिकों में से कोई तुझ से पनाह माँगे तो तू उसे पनाह दे दे, यहाँ तक कि वह अल्लाह का कलाम सुन ले।" (सूरतुत्तौबा :6)

तथा अल्लाह सुब्हानहु व तआला ने फरमाया : "और मूसा से अल्लाह ने सीधे बात की।" (सूरतुन्निसा : 164)

तथा अल्ला जल्ला व अला ने फरमाया : "और तुम्हारे रब के कलाम सच्चे क़ौल और इंसाफ में पूरा हो गये।" (सूरतुल अनआम : 115)

तथा अल्लाह सुब्हनहु ने फरमाया : "जब कि उन में ऐसे भी हैं जो अल्लाह का कलाम सुनते हैं फिर उसे समझने के बाद उसे फेर-बदल कर देते हैं, और ऐसा वे जान कर करते हैं।" (सूरतुल बक़रा : 75)

तथा अल्लाह तआला ने फरमाया : "वे चाहते हैं कि अल्लाह के कथन (कलाम) को बदल दें, (आप) कह दें कि अल्लाह तआला पूर्व ही कह चुका है कि तुम कभी हमारी पैरवी नहीं करो गे।" (सूरतुल फत्ह : 25)

इस अर्थ की आयतें बहुत हैं और ज्ञात हैं। तथा सलफ सालेहीन से इस अक़ीदा का सबूत तवातुर के साथ प्रमाणित है, जैसाकि क़ुरआन व हदीस के नुसूस इसके साक्षी हैं, और हर प्रकार की स्तुति और उपकार अल्लाह के लिए योग्य है।

4- अल्लाह जल्ला व अला के गुणों के बारे में क़ुरआन व हदीस में वर्णित नुसूस की तावील करने (अर्थात् उसके स्पष्ट अर्थ से हट कर दूसरा अर्थ मुराद लेने) को अनिवार्य समझते हैं, और यह सहाबा और ताबेईन से लेकर आज तक उनके रास्ते का पालन करने वाले मुसलमानों की सहमति के विपरीत है, क्योंकि ये लोग (अर्थात सहाबा और ताबेऊन) यह आस्था रखते हैं कि अल्लाह तआला के नामों और गुणों के नुसूस जिन अर्थों पर दलालत करते हैं उन पर उनमें बिना किसी तहरीफ (हेर-फेर) के या उनके अर्थ को निरस्त किये हुये, और बिना उनकी कोई कैफियत (दशा) निर्धारित किये हुये और उन्हें बिना किसी के समान और सदृश ठहराये हुये उन पर ईमान रखना अनिवार्य यमझते हैं, बल्कि वे इस बात पर ईमान रखते हैं कि अल्लाह के समान कोई नहीं और वह सुनने वाला और देखने वाला है, अत: वे लोग अल्लाह तआला से उस चीज़ का इनकार नहीं करते हैं जिस से अल्लाह तआला ने अपने आप को विशिष्ट किया है, और न ही शब्दों को उनके स्थानों से बदलते हैं, और न अल्लाह तआला के नामों और गुणों में टेढ़ापन से काम लेते हैं, न उनकी कोई कैफियत (दशा और स्थिति) निर्धारित करते हैं, और न ही उसके गुणों को उसकी सृष्टि में किसी के गुणों के समान और सदृश ठहराते हैं, क्योंकि उसका कोई हम नाम नहीं, न उसका कोई समकक्ष है और न ही उसका कोई प्रतिद्वंद्वी है।

इमाम शाफेई रहिमहुल्लाह कहते हैं : "मैं अल्लाह तआला पर और जो कुछ अल्लाह के बारे में वर्णित है, उस पर अल्लाह तआला के अभिप्राय के अनुसार ईमान लाया, और मैं अल्लाह के पैगंबर पर और जो कुछ अल्लाह के पैगंबर के बारे में वर्णित हुआ है, उस पर अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के अभिप्राय के अनुकूल ईमान लाया।"

तथा इमाम अहमद रहिमहुल्लाह ने फरमाया : "हम उन पर ईमान रखते और पुष्टि करते हैं, और हम अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का खण्डन नहीं करते हैं, और हम अल्लाह तआला को उस से अधिक किसी चीज़ से विशिष्टि नहीं करते हैं जिस से उसने अपने आप को स्वयं विशिष्ट किया है।´´

5- उनकी झूठी मान्यताओं में से : अल्लाह सुब्हानहु व तआला के अपनी सृष्टि के ऊपर बुलंद होने का इनकार करना है ।

मुसलमानों का अक़ीदा जो क़ुरआन करीम की स्पष्ट आयतों, नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की हदीसों और विशुद्ध प्रकृति और स्पष्ट बुद्धि के द्वारा पता चलता है, वह यह है कि : सर्वशक्तिमान अल्लाह अपनी सृष्टि के ऊपर बुलंद, अपने सिंहासन पर मुस्तवी (उच्च और स्थिर) है, उसके ऊपर उसके बन्दों के मामलों में से कोई भी चीज़ गुप्त और रहस्य नहीं है। अल्लाह तआला ने अपनी किताब क़र्आन करीम में सात स्थानों पर फरमाया : "और फिर अर्श (सिंहासन) पर मुस्तवी (उच्च और स्थिर) हो गया।" (सूरतुल आराफ :54,सूरत यूनुस :3, सूरतुर्राद :2,सूरतुल फुरक़ान :59,सूरतुस्सज्दा :4,सूरतुल हदीद :4, सूरत ताहा :5)

तथा महान प्रतिष्ठा वाले अल्लाह ने फरमाया : "सभी पाक कलिमे उसी की तरफ चढ़ते हैं, और नेक अमल उन को ऊँचा करता है।" (सूरत फातिर :10)

तथा सर्वशक्तिमान अल्लाह ने फरमाया : "वह बहुत ऊँचा और महान है।" (सूरतुल बक़रा : 255)

और सर्वशक्तिमान अल्लाह ने फरमाया : "अपने बहुत ही बुलन्द रब के नाम की पाकी बयान कर।" (सूरतुल आला : 1)

तथा सर्वशक्तिमान अल्लाह ने फरमाया : "और नि:सन्देह आकाशों और धरती के सभी जानदार और सभी फरिश्ते अल्लाह तआला के सामने सज्दा करते हैं और तनिक भी घमण्ड नहीं करते। और अपने रब से जो उनके ऊपर है कपकपाते रहते हैं और जो हुक्म मिल जाये उसके पालन करने में लगे रहते हैं।" (सूरतुन नह्ल : 49-50)इनके अलावा अन्य आयतें भी हैं।

तथा नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से सहीह हदीसों में बहुत सारी चीज़ें प्रमाणित हैं, और उन ही में से तवातुर के साथ प्रमाणित मे'राज (नबी सल्लल्लाहु अलैहि व स्ललम के आसमान पर चढ़ने) की कहानी है, जिस में वर्णित है कि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने एक एक आकाश को पार किया, यहाँ तक कि आप अपने सर्वशक्तिमान अल्लाह के पास पहुँचे, तो अल्लाह तआला ने आप को क़रीब किया या आप को पुकारा, और आप पर पचास समय की नमाज़ अनिवार्य की, फिर आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम मूसा अलैहिस्सलाम और अपने महान रब के बीच बार-बार आते जाते, आप अपने रब के पास से उतर कर मूसा अलैहिस्सलाम के पास आते, तो वह पूछते अल्लाह तआला आप पर कितनी नमाज़ अनिवार्य की है, आप उन्हें बताते तो वह कहते : अपने रब के पास जाओ और उनमें छूट और कमी करने का प्रश्न करो, चुनाँचि आप अपने रब के पास चढ़ कर जाते और उसे से नमाज़ की संख्या में छूट और कमी का प्रश्न करते।

और उन ही में से सहीह बुखारी और सहीह मुस्लिम में अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु की हदीस है कि अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "जब अल्लाह तआला ने सृष्टि (मख़्लूक़) को पैदा किया तो एक पुस्तक में लिखा, जो उस के पास अर्श (सिंहासन) के ऊपर है,कि : मेरी दया मेरे क्रोध से बढ़ कर है।"

तथा सहीह बुखारी और सहीह मुस्लिम में अबू सईद खुदरी रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "क्या तुम्हें मेरे ऊपर विश्वास नहीं (या क्या तुम मुझे विश्वस्त नहीं समझते) जबकि मैं उस अस्तित्व का अमीन (विश्वस्त) हूँ जो आकाश के ऊपर है।"

तथा सहीह इब्ने ख़ुज़ैमा और सुनन अबू दाऊद में हैं कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "अर्श (सिंहासन) पानी के ऊपर है, और अल्लाह तआला अर्श के ऊपर है, और जो कुछ तुम कर रहे हो, अल्लाह तआला उसे जानता है।´´

सहीह मुस्लिम वगैरा में लौण्डी की कहानी वाली हदीस में है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उस से पूछा : "अल्लाह कहाँ है ?" उस ने उत्तर दिया : आकाश पर। आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने पूछा: "मैं कौन हूँ ?"उस ने उत्तर दिया : आप अल्लाह के पैगंबर हैं, आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "इसे आज़ाद कर दो क्योंकि यह ईमान वाली है।"

हर प्रकार की प्रशंसा अल्लाह तआला के लिए है कि सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम, ताबेईन और आज के दिन तक भलाई के साथ उनका पालन करने वाले मुसलमान इसी स्वच्छ और शुद्ध अक़ीदा पर चलते आ रहे हैं। और इस मुद्दे के महत्व और उसके सबूतों और प्रमाणों की बाहुल्यता के कारण जो कि एक हज़ार से भी अधिक हैं, विद्वानों ने इस विषय पर विशिष्ट रूप से किताबें लिखी हैं, उदाहरण के तौर पर हाफिज़ अबू अब्दुल्लाह अज़्ज़हबी की किताब "अल-उलुव्वो लिल-अलीय्यिल ग़फ्फार", और हाफिज़ इब्नुल क़ैयिम की किताब "इज्तिमाउल जुयूशिल इस्लामिय्या"।

6- वे लोग पैग़ंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के कुछ साथियों (सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम) के बारे में अनुचित बातें कहते हैं।

इस बात का एक उदाहरण यह है कि वे स्पष्ट रूप से मुआविय्या रज़ियल्लाहु अन्हु को फासिक़ कहते हैं, इस के कारण वे राफिज़ा (शियाओं) -अल्लाह उन्हें विकृत करे- के समान हैं। जबकि मुसलमानों पर अनिवार्य यह है कि सहाबा रज़ियल्लाहु अन्हुम के बीच पैदा होने वाले मतभेदों के विषय में पड़ने से रूक जाये और उनकी प्रतिष्ठा और उनके रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की संगत अपनाने की विशिष्टता का अपने दिल में आस्था रखते हुये अपनी ज़ुबानों को उनके बारे में समीक्षा करने से सुरक्षित रखे, नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से प्रमाणित है कि आप ने फरमाया : "मेरे सहाबा को गाली न दो (उन्हें बुरा-भला मत कहो), अगर तुम में से कोई आदमी उहुद पहाड़ के बराबर सोना -अल्लाह के रास्ते में- खर्च कर दे, तब भी वह उनके एक मुद्द (लगभग 510 ग्राम का एक मापक), बल्कि आधे मुद्द के बराबर भी नहीं पहुँच सकता।" (बुखारी एंव मुस्लिम)

तथा अल्लाह तआला का फरमान है : "और (उन के लिए) जो उन के बाद आयें, जो कहें गे कि हे हमारे रब! हमें क्षमा कर दे और हमारे उन भाईयों को भी जो हम से पहले ईमान ला चुके हैं और ईमानदारों के लिए हमारे हृदय में कपट (और दुश्मनी) न डाल, ऐ हमारे रब! नि:सन्देह तू कृपा और दया करने वाला है।" (सूरतुल हश्र : 10)

नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के साथियों के प्रति यही शुद्ध और उचित आस्था सदियों से अह्ले सुन्नत व जमाअत का अक़ीदा और आस्था रहा है, इमाम अबू जा'फर तहावी रहिमहुल्लाह अह्ले सुन्नत व जमाअत का अक़ीदा वर्णन करते हुए कहते हैं : ((और हम अल्लाह के रसूल सल्लाहु अलैहि व सल्लम के साथियों से महब्बत करते हैं, और उन में से किसी की महब्बत में हम अतिशयोक्ति (बाहुल्य) नहीं करते हैं, और न हम उन में से किसी से तबर्रा (घृणा, बेज़ारी और नफ्रत) करते हैं, तथा उन से दुश्मनी और द्वेष रखने वालों और अच्छाई के अलावा से उन का चर्चा करने वालों से हम द्वेष रखते हैं, और हम उन का चर्चा केवल भलाई और अच्छाई के साथ ही करते हैं, उन से महब्बत और प्यार करना धर्म, ईमान और एहसान (अच्छाई व भलाइ) है, और उन से द्वेष और दुश्मनी रखना कुफ्र, पाखण्ड और अत्याचार और अपराध है।))

चौथा : इस समूह पर आपत्तिजनक चीज़ों में से एक उसके फत्वों में शुज़ूज़ (अधिकांश लोगों के विचार की मुखालफत) क़ुराअन व वहदीस के शरई नुसूस (ग्रंथों) से टकराव पाया जाता है, उसके उदाहरणों में से कुछ निम्नलिखित हैं :

इन लोगों ने काफिरों के साथ उनके धन की उगाही के लिए जुआ खेलना वैध ठहराया है, तथा उनकी फसलों और उनके जानवरों की चोरी करना जाइज़ क़रार दिया है इस शर्त के साथ कि चोरी से फित्ना (विद्रोह) भड़कने का खतरा न हो, तथा इन्हों ने काफिरों के साथ सूद का कारोबार करना वैध घोषित किया है, और ज़रूरतमंद आदमी का हराम लॉटरी के टिकट का लेन देन करना वैध है। तथा इनकी शरीअत की खुली मुखालफतों में से : अजनबी (परायी) महिला की तरफ दर्पण में, या स्क्रीन पर देखना जाइज़ ठहराना है यद्यपि शह्वत (कामवासना) के साथ ही क्यों न हो, तथा परायी महिला की तरफ लगातार देखते रहना हराम (वर्जित) नहीं है, और मर्द का ऐसी महिला के शरीर का कोई भाग देखना, जो (महिला) उसके लिए हलाल नहीं है, हराम नहीं है, और महिला का बन-ठन (श्रृंगार) कर के और सुगंध (इत्र) लगा कर बाहर निकलना वैध है अगर उसका मक़सद मर्दों को अपनी तरफ आकर्षित करना न हो, तथा पुरूषों और महिलाओं के बीच मिश्रण की अनुमति है, इनके अलावा अन्य दूसरे शाज़ (सत्य के विरूध) और विचित्र फतावे हैं जिन में शरीअत से टकराव पाया जाता है, और बड़े-बड़े गुनाहों को वैध और जाइज़ चीज़ों में शुमार करना है, हम अल्लाह तआला से उसके क्रोध और उसके प्रकोप के कारणों से बचाव का प्रश्न करते हैं।

पाँचवां : उम्मत के गहरा ज्ञान रखने वाले विद्वानों से, तथा उनकी किताबों को पढ़ने और उनकी बातों पर भरोसा करने से लोगों को घृणा और नफरत दिलाने के उद्देश्य से उनकी घृणित और अपमानजनक शैलियों में से उन विद्वानों को बुरा-भला कहना, उनको बदनाम करना, उनके पद को गिराना, बल्कि उन्हें काफिर घोषित करना है, और इन विद्वानों की सूची में सब से महत्वपूर्ण : इमाम मुजद्दिद शैखुल इस्लाम अबुल अब्बास अहमद बिन हलीम बिन अब्दुस्सलाम बिन तैमिय्या रहिमहुल्लाह हैं, यहाँ तक कि अब्दुल्लाह अल-हबशी इस सुधारक इमाम के विषय में एक विशिष्ट पुस्तक लिखी है, जिस में उन की तरफ पथभ्रष्टा और गुम्राही की निस्बत की है, और उनके बारे में ऐसी बात गढ़ी है जिसे उन्हों ने नहीं कही है और उन पर झूठा आरोप लगाया है, अत: अल्लाह तआला ही उस का हिसाब लेने वाला है, और अल्लाह के पास ही सभी एकत्र होंगे।

और इसी में से उन लोगों का इमाम मुजद्दिद शैख मुहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब रहिमहुल्लाह और उनकी सुधार संबंधी दावत को निंदित और आरोपित करना भी है जिसका उन्हों ने अरब प्रायद्वीप में बेड़ा उठाया था, चुनाँचि लोगों को एक मात्र अल्लाह तआला की उपासना करने, और उसके साथ शिर्क (किसी को भागीदार बनाने) को त्यागने, क़ुरआन व हदीस के नुसूस (ग्रंथों) का सम्मान करने और उन पर अमल करने, सुन्नतों को स्थापित करने और बिद्अतों को मिटाने की ओर बुलाया, तो अल्लाह तआला उन के कारण दीन की जो निशानियाँ (महत्वपूर्ण शिक्षायें) मिट चुकी थीं उन्हें पुनर्जीवित किया, और जिन बिद्अतों और धर्म में नवीन अविष्कार कर ली गई चीज़ों को चाहा आप के द्वारा उन्हें मिटा दिया, और -अल्लाह की कृपा और अनुकम्पा से- इस दावत के प्रभाव पूरी इस्लामी दुनिया में फैल गये और इस के द्वारा अल्लाह तआला ने बहुत से लोगों को मार्गदर्शन प्रदान किया, किन्तु इस गुमराह समूह ने इस सुन्नी दावत और उसके कार्यकर्ता के विरूध अपना तीर चलाया, चुनाँचि उनके बारे में झूठे आरोप गढ़े और सन्देहों का प्रचार किया, और उस के अंदर कुर्आन और हदीस की तरफ जो स्पष्ट और साफ दावत थी उसको नकार दिया, ये सब कुछ उन्हों ने लोगों को हक़ बात से भड़काने और घृणा दिलाने के लिये, तथा सीधे मार्ग से रोकन के उद्देश्य से किया, हम ऐसे काम से अल्लाह तआला की पनाह में आते हैं।

इस में कोई सन्दहे नहीं कि इस भटके हुये समूह का मुस्लिम उम्मत के इन पुनीत और धन्य विद्वानों से नफरत और द्वेष रखना, इनके दिलों में हर तौहीद की तरफ बुलाने वाले और सर्वश्रेष्ठ पीढ़ियों के लोग जिस आस्था और अमल पर क़ायम थे उसका पालन करने वालों के प्रति जो कीना-कपट और दुश्मनी पायी जाती है उसका साफ-साफ सूचक और संकेतक है, और यह कि ये लोग इस्लाम की हक़ीक़त और उसके सार से दूर और अलग-थलग हैं।

छठा : जो कुछ हम ने ऊपर उल्लेख किया है, और उनके अलावा अन्य चीज़ें जिन का हम ने उल्लेख नहीं किया है, इन सब के आधार पर समिति निम्नलिखित निर्णय देती है :

1- जमाअतुल अहबाश एक गुमराह और पथभ्रष्ट दल है जो मुसलमानों की जमाअत (अह्ले सुन्नत व जमाअत) से बाहर और अलग-थलग है, और यह कि उनके ऊपर अनिवार्य है कि वे उस हक़ की तरफ लौट आयें जिस पर अमल, अक़ीदा और दीन के सभी अघ्यायों में सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम और ताबेईन क़ायम थे, यह उनके लिए बेहतर और अधिक स्थायी है।

2- इस जमाअत के फत्वा पर भरोसा करना जाइज़ नहीं है ; क्योंकि ये लोग शाज़ (विचित्र अर्थात् अधिकांश की राय के विरूध) कथनों के आधार पर, बल्कि क़ुरआन व हदीस के ग्रंथों के विपरीत कथनों के आधार पर दीन को अपनाना जाइज़ समझते हैं, और कुछ धार्मिक ग्रंथों के कारण सच्चाई से दूर और भ्रष्ट कथनों पर भरोसा करते हैं, यह सारी बातें आम मुसलमानों की तरफ से उनके फत्वों पर एतिमाद और भरोसा को समाप्त कर देती हैं।

3- नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की हदीसों के बारे में उनकी बातों पर भरोसा नहीं किया जाना चाहिए, चाहे वह उनकी सनदों के बारे में हो या उन के अर्थ के बारे में।

4- सभी स्थानों में मुसलमानों पर अनिवार्य है कि इस गुमराह जमाअत से सावधान रहें और दूसरों को इस के प्रति चेतावनी दें और इनके जाल में फंसने से आगाह करें, चाहे वह किसी भी नाम या किसी भी बैनर तले क्यों न हो, तथा उसके अनुयायियों और उनके धोखे के शिकार लोगों को नसीहत करने (समझाने बुझाने), और इनके विचार और आस्था के भ्रष्टाचार को स्पष्ट करने में अल्लाह तआला से अज्र व सवाब की आशा रखनी चाहिए।

समिति यह निर्णय प्रस्तुत करते हुए और इसे लोगों के लिए स्पष्ट करते हुए, अल्लाह सुब्हानहु व तआला से उसके सुंदर नामों और सर्वोच्च गुणों के द्वारा यह प्रार्थना करती है कि वह मुसलमानों को दृश्य और अदृश्य फित्नों (प्रलोभन और परीक्षा) से दूर रखे, गुमराह मुसलमानों का पथ प्रदर्शन करे, उनकी स्थितियों को सुधार दे, मुसलमानों के साथ छल और फरेब करने वालों के फरेब और छल को उनके ऊपर ही लौटा दे, और मुसलमानों के लिए उनकी बुराईयों से काफी हो जाये, अल्लाह तआला हर चीज़ पर सर्वशक्तिमान है, और वह स्वीकार करने के योग्य है। अल्लाह तआला हमारे पैग़ंबर मुहम्मद, आप के परिवार और साथियों तथा भलाई के साथ उनका पालन करने वालों पर शांति और दया अवतरित करे।

स्रोत: फतावा अल्लजना अद्दाईमा 12/323 (स्थायी समिति का फतावा संग्रह 12/323)