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इन अज़कार (दुआओं) को एक ऐसे व्यक्ति द्वारा संकलित किया गया था, जो उम्रा से प्यार करता था और वह उन्हें उम्रा करने वालों के बीच वितरित करना चाहता था। लेकिन वह रुक गया यहाँ तक कि वह कृतज्ञता के साथ आपसे इनमें से सही और कमज़ोर दुआओं का स्पष्टीकरण जान ले। इनमें से कुछ अज़कार वे हैं जिनकी उम्रा करने वाले को ज़रूरत होती है : तवाफ़ के दौरान क्या पढ़ना चाहिए : पहले चक्कर को अल्लाह की स्तुति एवं प्रशंसा के साथ शुरू करना, फिर उसके पैगंबर पर दुरूद भेजना, फिर दुआ करना, धर्म से संबंधित दुआओं को सांसारिक मामलों से संबंधित दुआओ पर प्राथमिकता देना और दिल की उपस्थिति के साथ दुआ करना।
हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.
जहाँ तक हम जानते हैं, नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से ऐसे अज़कार या दुआएँ वर्णित नहीं हैं जो तवाफ़ के दौरान पढ़ी जाएँ। हाँ, केवल यमनी कोने और हज्रे-अस्वद के बीच :
رَبَّنَا آتِنَا فِي الدُّنْيَا حَسَنَةً وَفِي الْآخِرَةِ حَسَنَةً وَقِنَا عَذَابَ النَّارِ
“रब्बना आतिना फिद्दुन्या हसनतन, व फिल-आख़िरति हसनतन, व-क़िना अज़ाबन्नार” (ऐ हमारे पालनहार! हमें दुनिया में भलाई प्रदान कर और आख़िरत में भी भलाई प्रदान करे और हमें नरक की यातना से सुरक्षित रख।) पढ़ना प्रमाणित है। इसे अहमद ने “अल-मुसनद” (3/411) में रिवायत किया है, तथा इब्ने हिब्बान (9/134) और हाकिम (1/625) ने इसे सहीह कहा है। तथा जब भी हज्रे-अस्वाद के बराबर में आएँ, तो तकबीर (अल्लाहु अकबर) कहना। इसे बुखारी (हदीस संख्या : 4987) ने रिवायत किया है।
जहाँ तक तवाफ़ के शेष हिस्से का संबंध है, तो उसे ज़िक्र, दुआ और क़ुरआन के पाठ के बीच कुछ भी चुनने का इख़्तियार है।
इब्ने क़ुदामा ने “अल-मुग़्नी” (3/187) में कहा :
“तवाफ करते समय दुआ करना और अधिक से अधिक अल्लाह का ज़िक्र करना मुस्तहब है; क्योंकि यह सभी परिस्थितियों में मुस्तहब है। इसलिए इस इबादत को करते समय यह और भी उपयुक्त है। तथा उसके लिए मुस्तहब है कि वह बात करने (बोलने) से परहेज़ करे, सिवाय इसके कि वह अल्लाह का ज़िक्र करे, या क़ुरआन पढ़े, या भलाई का हुक्म दे, या बुराई से रोके, या कोई ऐसी बात करे जो अपरिहार्य हो।” उद्धरण समाप्त हुआ।
शैखुल-इस्लाम इब्ने तैमिय्या रहिमहुल्लाह ने (मजमूउल-फ़तावा (26/122) में कहा :
“तवाफ़ में नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से ऐसा कोई विशिष्ट ज़िक्र वर्णित नहीं है, जिसका आपने आदेश दिया हो, या पढ़ा हो, या उसकी शिक्षा दी हो। बल्कि वह तवाफ़ करते समय सभी शरई दुआओं के साथ दुआ करेगा। बहुत से लोग मीज़ाब (काबा के परनाले) के नीचे जो एक विशिष्ट दुआ का उल्लेख करते हैं, उसका कोई आधार नहीं है। नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम दोनों कोनों [अर्थात यमनी कोने और हज्रे-अस्वद के कोने] के बीच अपने तवाफ़ का अंत यह कहकर करते थे :
رَبَّنَا آتِنَا فِي الدُّنْيَا حَسَنَةً وَفِي الْآخِرَةِ حَسَنَةً وَقِنَا عَذَابَ النَّارِ
“रब्बना आतिना फिद्दुन्या हसनतन, व फिल-आख़िरति हसनतन, व-क़िना अज़ाबन्नार” (सूरतुल बक़रा : 201) (ऐ हमारे पालनहार! हमें दुनिया में भलाई प्रदान कर और आख़िरत में भी भलाई प्रदान कर और हमें नरक की यातना से सुरक्षित रख।)
जिस तरह कि आप अपनी सभी दुआओं का अंत इसी पर करते थे। तथा इमामों (प्रमुख विद्वानों) की सहमति के अनुसार, तवाफ़ में कोई विशिष्ट ज़िक्र (दुआ) अनिवार्य नहीं है।” उद्धरण समाप्त हुआ।
शैख इब्ने उसैमीन रहिमहुल्लाह ने कहा :
“नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से यह प्रमाणित है कि आप जब भी ह़ज्रे-अस्वद पर आते, तो तकबीर (अल्लाहु अकबर) कहा करते थे, तथा आप यमनी कोने और हज्रे-अस्वद के बीच :
رَبَّنَا آتِنَا فِي الدُّنْيَا حَسَنَةً وَفِي الْآخِرَةِ حَسَنَةً وَقِنَا عَذَابَ النَّارِ
“रब्बना आतिना फिद्दुन्या हसनतन, व फिल-आख़िरति हसनतन, व-क़िना अज़ाबन्नार” (सूरतुल बक़रा : 201) कहते थे।
नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से तवाफ़ में हर चक्कर के लिए कोई विशिष्ट दुआ वर्णित नहीं है।
इसके आधार पर, काबा का तवाफ़ करने वाला व्यक्ति, जो भी चाहे दुनिया और आख़िरत की भलाई की दुआ करेगा, तथा वह किसी भी धर्मसंगत ज़िक्र के साथ अल्लाह को याद करेगा, जैसे कि सुब्हान अल्लाह (अल्लाह पवित्र है), अल-ह़म्दु लिल्लाह (सब प्रशंसा अल्लाह के लिए है), ला इलाहा इल्ला-अल्लाह (अल्लाह के अलावा कोई सत्य पूज्य नहीं), और अल्लाहु अकबर (अल्लाह सबसे महान है), या क़ुरआन का पाठ करना।” संक्षेप में समाप्त हुआ।
“मजमूउल-फ़तावा” (24/327)।
और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।