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इस युग में, जहाँ हम अन्य सभी समुदायों के साथ एक वैश्विक गांव में रहते हैं, क्या व्यक्तिगत जन्म दिनों और शादी-विवाह के अवसरों को इस्लामी तरीक़े पर मनाना जायज़ है? जिनके अंदर हम अपने आपको किसी गैर इस्लामी प्रथा (व्यवहार) में संलग्न नहीं करते हैं, जबकि ये अवसर और समारोह किसी धर्म से संबंधित नहीं हैं। जैसाकि ईसाइयों के हैलोवीन, क्रिसमस, और वेलेंटाइन दिवस, तथा हिन्दुओं के ''देसहरा'' और ''दीवाली'' वगैरह का मामला है। क्या उन अवसरों को मनाना संभव है जिनका धर्म से कोई लेना देना नहीं है? मुझे पता चला है कि एक साधारण समारोह आयोजित करना संभव है जैसा कि islamonline.net और daruliftaa.com साइटों पर उल्लिखित है।
मैं अपने बच्चों को इस बात से संतुष्ट करने में बहुत कठिनाई का सामना करता हूँ कि पंद्रह सालों से हम जो कुछ करते चले आ रहे थे, और जो कुछ हमारे आस पास किया जा रहा है : वह इस्लामी नहीं है। और उसकी हमारे धर्म में कोई स्वीकृति नहीं है। कृपा करके, जो कुछ ऊपर बीत चुका है उसे अपने मस्तिष्क में रखते हुए, उत्तर दें।
हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.
अल्लाह की शरीअत में, शादियोंऔर उसके अलावा अन्य सांसारिक अवसरों पर समारोह आयोजित करने में कोई आपत्ति की बात नहीं है, इस शर्त के साथ कि वे बुराइयों जैसे महिला-पुरुष मिश्रण, और संगीत वाद्यंत्रों से खाली हों। और ये समारोह उन उपासनाओं में से नहीं हैं जिनके द्वारा अल्लाह की निकटता प्राप्त की जाती है, बल्कि वह हर्ष और उल्लास का प्रदर्शन करने के लिए एक बैठक है, और आदतों के अंदर मूल सिद्धांत अनुमेय का होना है, जबकि इबादतों का मामला इसके विपरीत है जिनके अंदर मूल सिद्धांत निषेद्ध है यहाँ तक कि उसके वैध और धर्मसंगत होने का प्रमाण आ जाए।
उन समारोहों के अलावा जिनमें बुराइयाँ और अवहेलनाएं पाई जाती हैं, शरीअत में निषिद्ध समारोहों में से : वह भी है जिनमें काफिरों की समानता पाई जाती है, जैसे कि जन्म दिन और मातृ दिवस का मनाना। तथा उस समय यह निषेध सख्त हो जाता है जब वह शरई (इस्लामी) त्योहारों का रूप धारण कर ले ; और आज उन समारोहों व अवसरों की यही वास्तकिता है, चुनाँचे उसे ‘‘ईदुल मीलाद’’ (जन्म का पर्व अर्थात जन्म दिन) और ’’ईदुल उम्म’’ (माँ का पर्व यानी मातृ दिवस) का नाम दिया जाता है। ये ऐसे अवसर हैं जिनमें काफिरों की समानता और छवि अपनाना पाया जाता है जिनकी छवि अपनाने से हमें रोका गया है। तथा निषेध उस समय और अधिक ज़ोरदार हो जाता है जब उसके मनाने वाले का मक़सद अल्लाह सर्वशक्तिमान की निकटता प्राप्त करना हो। क्योंकि उसने अल्लाह की अवज्ञा (पाप) और बिदअत (नवाचार) दोनो इकट्ठा कर लिया है।
स्थायी समिति के विद्वानों से प्रश्न किया गया कि :
बच्चों के जन्म दिन मनाने का क्या हुक्म है? हमारे यहाँ कहा जाता है कि : ‘‘उस दिन जश्न मनाने के बजाय रोज़ा रखना बेहतर है, इस बारे में सही बात क्या है?
तो उन्हों ने उत्तर दिया : ‘‘जन्म दिन मनाना या जन्मदिन के कारण रोज़ो रखना: हर एक बिदअत है, उसका कोई आधार नहीं है। बल्कि मुसलमान को चाहिए कि अल्लाह की अनिवार्य की हुई चीज़ों और स्वैच्छिक (नफली) इबदातों के द्वारा अल्लाह की निकटता प्राप्त करे, और अपने सभी समय में अल्लाह का आभारी और प्रशंसा करनेवाला हो कि उसके ऊपर दिन और साल गुज़र रहे हैं और वह शारीरिक रूप से स्वस्थ, और उसकी जान, धन और बच्चे सुरक्षित हैं।’’ समाप्त हुआ।
शैख अब्दुल अज़ीज़ बिन बाज़, शैख सालेह अल-फौज़ान, शैख बक्र अबू ज़ैद
‘‘फतावा स्थायी समिति’’ (2/260, 261).
जन्मदिन का उत्सव मनाने के हुक्म के बारे में शैख अब्दुल अज़ीज़ बिन बाज़ और शैख इब्ने उसैमीन रहिमहुमुल्लाह का फत्वा प्रश्न संख्या (1027) और (26804) के उत्तर में देखें।
तथा ‘‘मातृ दिवस’’ के बारे में शैख इब्ने उसैमीन का फत्वा प्रश्न संख्या (59905) के उत्तर में देखें।
तथा आविष्कारित त्योहारों के बारे में सामान्य चर्चा प्रश्न संख्या : (10070) के उत्तर में देखें।