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अगर किसी ज़ईफ़ (कमज़ोर) या मौज़ू (मनगढ़ंत) हदीस में कोई दुआ वर्णित है जिसके शब्दों के संबंध में कोई शरई निषेध नहीं है, तो क्या उसके साथ दुआ करना जायज़ हैॽ उसके शब्दों के उपयोग को इबादत का कार्य समझने के तौर पर नहीं, बल्कि उसके शब्दों से लाभान्वित होने के तौर पर।
हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.
दुआ के दो प्रकार हैं :
पहला प्रकार : किसी विशेष समय, या स्थान, या इबादत, या संख्या, या गुण के साथ प्रतिबंधित दुआ : जैसे कि नमाज़ की शुरुआत करने की दुआ, शौचालय में प्रवेश करने की दुआ, सोने के समय पढ़ी जाने वाली दुआएँ, या मस्जिद में प्रवेश करने की दुआ, इत्यादि।
इस प्रकार के संबंध में, शरीयत में वर्णित (विशिष्ट) दुआ के अलावा कोई अन्य दुआ पैदा करना जायज़ नहीं है। क्योंकि जिस तरह इस (प्रकार की दुआ) में उसके स्वीकार्य होने के लिए सर्वशक्तिमान अल्लाह के प्रति इख़्लास का होना शर्त (अनिवार्य) है, उसी तरह उसके अंदर रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के अनुसरण का होना भी शर्त (अनिवार्य) है।
शैखुल-इस्लाम इब्ने तैमिय्यह रहिमहुल्लाह ने फरमाया :
जहाँ तक ग़ैर-शरई विर्द (जप) बनाने तथा ग़ैर-शरई ज़िक्र अपनाने का संबंध है, तो यह ऐसी चीज़ है जिसकी अनुमति नहीं है। इसके बावजूद, शरई दुआओं और शरई अज़कार में सभी सही मांगों (लक्ष्यों) और सर्वोच्च उद्देश्यों का समावेश है। और इनकी उपेक्षा करते हुए अन्य अविष्कार किए गए (स्वतः रचित) अज़कार को वही व्यक्ति अपनाएगा, जो अज्ञानी या लापरवाही व कोताही करने वाला या अति करने वाला है।” उद्धरण समाप्त हुआ।
“मजमूउल-फतावा” (22/511)।
तथा अल्लामा अल-मुअल्लिमी रहिमहुल्लाह ने फरमाया :
“उस व्यक्ति का सौदा कितने घाटे का है जो सर्वशक्तिमान अल्लाह की किताब या अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की सुन्नत में साबित दुआओं को छोड़ देता है। चुनाँचे वह मुश्किल से उन दुआओं को पढ़ता है। फिर वह उनके अलावा किसी दूसरी दुआ की खोज करता ओर उसे नियमित रूप से पढ़ता है। क्या यह अन्याय और आक्रामकता नहीं हैॽ!” उद्धरण समाप्त हुआ।
“अल--इबादह” (524)।
आवश्यक यह है कि अलग-अलग समय और परिस्थितियों में पढ़ी जाने वाली जो दुआएँ नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से प्रामाणित हदीसों में वर्णित हैं उनकी पाबंदी की जाए।
यही कारण है कि विद्वानों ने नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से प्रमाणित दुआओं को संकलित करने पर विशेष ध्यान दिया है, ताकि वे लोगों को आसानी से उपलब्ध हो सकें। इस तरह उन्हें उन आविष्कृत दुआओं की कोई आवश्यकता नहीं होगी जो साबित नहीं हैं।
इमाम अत-तबरानी रहिमहुल्लाह अपनी पुस्तक “अद्दुआ” (22) के परिचय में कहते हैं :
“मैंने यह पुस्तक अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की दुआओं को एकत्रित करने के लिए संकलित किया है। मुझे ऐसा करने के लिए इस तथ्य ने प्रेरित किया कि मैंने बहुत-से लोगों को देखा कि वे तुकांत दुआओं और ऐसी दुआओं का पाठ करते हैं जो दिनों की संख्या के अनुसार रखी गई थीं जिन्हें प्रतिलिपिकों ने लिखा था। वे दुआएँ अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से, या आपके सहाबा में से किसी व्यक्ति से, या ताबेईन में से किसी व्यक्ति से वर्णित नहीं थीं। जबकि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से वर्णित है कि आपने दुआ में तुकांत शब्दों के उपयोग और दुआ में अति को नापसंद किया है। इसलिए मैंने इस किताब को इस्नाद के साथ लिखा जो अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम तक पहुँचती हैं।” उद्धरण समाप्त हुआ।
तथा प्रश्न संख्या : (11017) का उत्तर देखें।
दूसरा प्रकार : सामान्य दुआ : इससे अभिप्राय वह दुआ है जो एक व्यक्ति ऐसी परिस्थितियों या समय में करता है जिनके संबंध में इस्लामी शरीयत में कोई विशिष्ट दुआ वर्णित नहीं है, उदाहरण के तौर पर रात के अंतिम तीसरे भाग में दुआ करना इत्यादि।
इस मामले में शरीयत द्वारा प्रतिबंधित कोई विशिष्ट दुआ नहीं है, बल्कि इसे प्रत्येक दुआ करने वाले व्यक्ति की पसंद पर छोड़ दिया गया है कि वह अल्लाह तआला से अपनी ज़रूरत का प्रश्न करे। इस प्रकार की दुआ के संबंध में सदाचारियों की दुआओं, या कुछ ज़ईफ़ हदीसों में वर्णित दुआ के शब्दों (प्रारूप) से लाभ उठाने में कोई आपत्ति की बात नहीं है। क्योंकि उनमें ऐसे संक्षिप्त एवं व्यापक शब्द, अल्लाह की अच्छी प्रशंसा औ अच्छे ढंग से (अल्लाह से) प्रश्न हो सकते हैं जो उन्हें मुसलमान के दिल के करीब लाता है। लेकिन यह शर्त है कि इन शब्दों में कुछ भी आपत्तिजनक बात न हो, और न तो यह अक़ीदा रखा जाए की उनमें कोई विशेष गुण (फज़ीलत) है, तथा उन दुआओं की पाबंदी न की जाए। लेकिन अगर कोई व्यक्ति कभी-कभी उन्हें पढ़ता है, तो इसमें कोई हर्ज नहीं है; क्योंकि अगर वह उन्हें पाबंदी के साथ पढ़ेगा, तो ऐसा करके वह उन्हें सुन्नत का स्थान दे देगा।