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क्या अरबी में दुआ करना और (कई) दुआओं को आपस में मिलाना तथा उनका इस्तेमाल अल्लाह की पवित्रता बयान करने और उसकी स्तुति करने के लिए करना जायज़ हैॽ उदाहरण के तौर पर यह दुआ करना :
" सुबहानल्लाह व बिहम्दिह, अददा खल्क़िह, व रिज़ा नफ़्सिह, व ज़िनता अर्शिह, व मिदादा कलिमातिह” (मैं अल्लाह की पाकी बयान करता हूँ और उसकी प्रशंसा करता हूँ, उसकी सृष्टि की संख्या के बराबर, उसकी आत्मा की प्रसन्नता के बराबर, उसके अर्श (सिंहासन) के वज़न के बराबर और उसके शब्दों की स्याही के बराबर) और उसके बाद ही : “सुब्हानल्लाह व बि-हम्दिह, सुबहानल्लाहिल अज़ीम” (अल्लाह पवित्र है और उसी की सब प्रशंसा है, महान अल्लाह पवित्र है) कहना और उसके बाद कोई दूसरी दुआ पढ़ना। और इसी तरह।
हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.
एक मुसलमान बंदे के लिए अपने रब को ऐसे ज़िक्र के साथ याद करने में कोई हर्ज की बात नहीं है, जिसके शब्द एक दूसरे से मिले हुए हों। इसके कई कारण हैं :
दुआ के वाक्यों को मिलाने के साथ ज़िक्र करना – जबकि उसमें केवल शरई शब्द शामिल हों – शरई ज़िक्र होने से ख़ारिज नहीं होता है, इसलिए वह मुस्तहब और वांछनीय होने की दायरे में बना रहता है।
तथा शायद अल्लाह तआला के फरमान : يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا اذْكُرُوا اللَّهَ ذِكْرًا كَثِيرًا “ऐ ईमान वालो! अल्लाह को बहुलता से याद करो।” [सूरतुल-अहज़ाब 33 : 41] में इसके जायज़ होने की ओर संकेत है। क्योंकि अत्याधिक ज़िक्र करना कभी-कभी ज़िक्र करने वाले से उसके शब्दों और वाक्यों को एक-दूसरे के साथ मिलाने की अपेक्षा कर सकता है।
और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।