हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.
एक मुसलमान बंदे के लिए अपने रब को ऐसे ज़िक्र के साथ याद करने में कोई हर्ज की बात नहीं है, जिसके शब्द एक दूसरे से मिले हुए हों। इसके कई कारण हैं :
दुआ के वाक्यों को मिलाने के साथ ज़िक्र करना – जबकि उसमें केवल शरई शब्द शामिल हों – शरई ज़िक्र होने से ख़ारिज नहीं होता है, इसलिए वह मुस्तहब और वांछनीय होने की दायरे में बना रहता है।
तथा शायद अल्लाह तआला के फरमान : يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا اذْكُرُوا اللَّهَ ذِكْرًا كَثِيرًا “ऐ ईमान वालो! अल्लाह को बहुलता से याद करो।” [सूरतुल-अहज़ाब 33 : 41] में इसके जायज़ होने की ओर संकेत है। क्योंकि अत्याधिक ज़िक्र करना कभी-कभी ज़िक्र करने वाले से उसके शब्दों और वाक्यों को एक-दूसरे के साथ मिलाने की अपेक्षा कर सकता है।
और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।