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हम एक मुसलमान के दूसरे मुसलमान के ऊपर हक़ के बारे में नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की हदीस को जानते हैं, मेरा प्रश्न यह है कि : क्या हम अपने मुसलमान भाई के लिए इन अधिकारों में से कोई अधिकार न अदा करने पर दोषी और गुनहगार होंगे ॽ अर्थात् क्या इसमें हमारे ऊपर गुनाह होगा ॽ
हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.
एक मुसलमान के दूसरे मुसलमान के ऊपर बहुत से अधिकार व हुक़ूक़ हैं, उनमें से कुछ फर्ज़-ऐन हैं, जो प्रत्येक पर अनिवार्य हैं, अतः अगर उसने उसे छोड़ दिया तो वह गुनहगार होगा, तथा उनमें से कुछ फर्ज़-किफाया हैं, यदि कुछ लोग उसे कर लिए तो बाक़ी लोगों से गुनाह खत्म हो जायेगा, तथा उनमें से कुछ एच्छिक हैं अनिवार्य नहीं हैं, और मुसलमान उसके छोड़ने पर गुनहगार नहीं होगा।
बुख़ारी (हदीस संख्या : 1240) और मुस्लिम (हदीस संख्या : 2162) ने अबू हुरैरह रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत किया है कि उन्हों ने कहा मैं ने अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को फरमाते हुए सुना : “एक मुसलमान का दूसरे मुसलमान पर छः हक़ है : सलाम का जवाब देना, बीमार की तीमारदारी करना, जनाज़े के पीछे जाना, दावत (निंत्रण) स्वीकार करना और छींकने वाले का जवाब देना।”
तथा मुस्लिम (हदीस संख्या : 2162) ने ही अबू हुरैरह रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत किया है कि अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : “एक मुसलमान के दूसरे मुसलमान पर छः अधिकार हैं।” कहा गया : ऐ अल्लाह के पैगंबर! वे क्या हैं ॽ तो आप ने फरमाया : “जब तुम उससे मिलो तो उसे सलाम करो, जब वह तुम्हें दावत दे तो उसे स्वीकार करो, जब वह तुमसे सलाह मांगे (नसीहत तलब करे) तो उसे सलाह दो (नसीहत करो), जब उसे छींक आए और वह अल्लाह की तारीफ करे (यानी अल-हम्दुलिल्लाह कहे) तो तुम उसका जवाब दो (यानी यरहमुकल्लाह कहो), जब वह बीमार हो तो उसकी तीमारदारी करो, और जब उसका निधन हो जाए तो उसके (जनाज़े के) पीछे जाओ।”
शौकानी रहिमहुल्लाह ने फरमाया :
“आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के फरमान “मुसलमान का हक़” का मतलब यह है कि उसका छोड़ना उचित नहीं है, और उसका करना या तो अनिवार्य है या इतना वांछनीय है जो उस अनिवार्य के समान है जिसका छोड़ना उचित नहीं है। और उसका दो अर्थो में इस्तेमाल करना एक संयुक्त शब्द को उसके दोनों अर्थों में इस्तेमाल करने के अध्याय से है, क्योंकि “हक़” का शब्द अनिवार्य के अर्थ में इस्तेमाल किया जाता है, इब्नुल आराबी ने इसी तरह उल्लेख किया है, तथा उसे साबित और लाज़िम (आवश्यक) और सत्य इत्यादि के अर्थ में भी इस्तेमाल किया जाता है। तथा इब्ने बत्ताल ने कहा है कि : यहाँ पर हक़ से मुराद हुर्मत है (यानी जिसकी अदायगी ज़रूरी होती है उसमें कोतीही अस्वीकार्य होती है)।” “नैलुल औतार” (4/21) से अंत हुआ।
1- सलाम का जवाब देना अनिवार्य है यदि वह किसी एक व्यक्ति को सलाम किया गया है, और अगर किसी समूह पर सलाम किया गया है तो सलाम का जवाब देना फर्ज़ किफाया है, रही बात सलाम की शुरूआत करने की तो मूल सिद्धांत यह है कि वह सुन्नत है। “अल-मौसूअतुल फिक़्य्हियह” (11/314) में आया है कि :
“सलाम का आरंभ करना सुन्नत मुअक्कदह है, क्योंकि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है : “आपस में सलाम को फैलाओ।” और सलाम का जवाब देना वाजिब है यदि वह किसी एक पर किया गया है। और यदि किसी जमाअत पर सलाम किया गया है तो उनके हक़ में जवाब देना फर्ज़ किफाया है, यदि उनमें से किसी एक ने जवाब दे दिया तो बाक़ी लोगों से हर्ज (गुनाह) समाप्त हो जायेगा, और यदि सब ने जवाब दिया तो वे सभी फर्ज़ की अदायगी करने वाले होंगे, चाहे उन्हों ने एक साथ जवाब दिया हो या एक दूसरे के बाद जवाब दिया हो, और यदि सभी लोग ने जवाब देने से उपेक्षा किया तो वे गुनहगार होंगे ; इस हदीस के कारण किः “एक मुसलमान का दूसरे मुसलमान पर पाँच हक़ है : सलाम का जवाब देना . . .” अंत हुआ।
2- रही बात बीमार की तीमारदारी करने की तो वह फर्ज़ किफाया है, शैख इब्ने उसैमीन रहिमहुल्लाह ने फरमाया :
“बीमार की तीमारदारी करना फर्ज़ किफाया है।”
“मजमूओ फतावा व रसाइल इब्ने उसैमीन” (13/1085).
3- रही बात जनाज़े को रूख्सत करने (अंतिम संस्कार) की तो वह भी फर्ज़ किफाया है, प्रश्न संख्या : (67576) का उत्तर देखें।
4- जहाँ तक दावत को स्वीकार करने की बात है : तो यदि वह शादी के वलीमा की दावत है तो जमहूर विद्वान उसे क़बूल करने की अनिवार्यता की तरफ गए हैं सिवाय इसके कि कोई शरई उज़्र (कारण या बहाना) हो। जहाँ तक शादी के वलीमा के अलावा अन्य दावत का संबंध है तो जमहूर विद्वानों का मत उसके मुसतहब (एच्छिक) होने का है। किंतु दावत – निमंत्रण - को स्वीकार करने के लिए - आम तौर पर - कुछ शर्तें हैं, विस्तार के साथ उनकी जानकारी प्राप्त करने के लिए प्रश्न संख्या (22006) का उत्तर देखिए।
5- जहाँ तक छींकने वाले का जवाब देने का मुद्दा है तो उसके हुक्म के बारे में मतभेद है ।
“अल-मौसूअतुल फिक़्हिय्या” (4/22) में आया है कि :
“छींकने वाले का जवाब देना शाफईया के निकट सुन्नत है। तथा हनाबिला के एक कथन और हनफियह के निकट वह वाजिब है।
तथा मालिकिय्या का कहना है और वही हनाबिला के यहाँ मत है कि वह किफायत के तौर पर वाजिब अर्थात फर्ज़ किफाया है। तथा अल-बयान से उल्लेख किया गया है कि सबसे प्रसिद्ध बात यह है कि वह फर्ज़ ऐन है, इस हदीस के कारण किः “हर उस मुसलमान पर जिसने उसे सुना है यह हक़ है कि वह उसके लिए कहे : यर्हमुकल्लाह (अल्लाह तुझ पर दया करे)।” अंत हुआ।
और सबसे स्पष्ट कथन यह है कि वह उस व्यक्ति पर अनिवार्य है जिसने छींकने वाले को अल्लाह की प्रशंसा करते हुए (यानी अल-हम्दुल्लिाह कहते हुए) सुना है। क्योंकि बुखारी (हदीस संख्या : 6223) ने अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत किया है कि उन्हों ने नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से रिवायत किया कि आप ने फरमाया : “अल्लाह तआला छींक को पसंद करता है और जमाही को नापसंद करता है, जब वह छींके और अल्लाह की तारीफ करे तो उसे सुनने वाले प्रत्येक मुालमान पर हक़ है कि वह उसकी छींक का जवाब दे अर्थात “यर्हमुकल्लाह” कहे।”
इब्नुल क़ैयिम रहिमहुल्लाह ने फरमाया : अबू हुरैरा कि यह हदीस गुज़र चुकी है और उसमें है कि : “जब तुम में से कोई आदमी छींके और अल्लाह की हम्द (प्रशंसा) करे, तो उसे सुनने वाले हर मुस्लिम पर हक़ है कि वह कहे : यर्हमुकल्लाह।” तथा इमाम तिर्मिज़ी ने अनस रज़ियल्लाहु अन्हु की हदीस पर यह शीर्षक लगाया है : (जो कुछ छींकने वाले के हम्द का जवाब देने की अनिवार्यता के बारे में आया है उसका अध्याय), इससे पता चलता है कि यह उनके निकट वाजिब है, और अनिवार्यता के बारे में स्पष्ट और प्रत्यक्ष हदीसों के कारण यही शुद्ध है, जबकि उनके विरोध में कोई हदीस नहीं है, और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक जानता है।
चुनाँचे उन्हीं हदीसों में से : अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु की हदीस है, जो गुज़र चुकी है।
उन्हीं में से : उनकी दूसरी हदीस है “पाँच चीज़ें मुसलमान के लिए उसके भाई पर अनिवार्य हैं।” और यह भी गुज़र चुकी है।
उन्हीं में से : सालिम बिन उबैद की हदीस है, और उसमें है : “और उसके पास जो मौजूद है उसके लिए कहे : यर्हमुकल्लाह।”
उन्हीं में से : वह हदीस है जिसे तिर्मिज़ी ने अली रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत किया है कि उन्हों ने कहा : अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : “एक मुसलमान के लिए दुसरे मुसलमान पर परंपरा (दसतूर) के अनुसार छः चीज़ें अनिवार्य हैं : जब उससे मिले तो उससे सलाम करे, जब वह उसे दावत दे तो उसे स्वीकार करे, जब उसे छींक आए तो उसकी छींक का जवाब दे, जब वह बीमार हो तो उसकी ज़ियारत (तीमारदारी) करे, जब वह मर जाए तो उसका अंतिम संस्कार करे, और उसके लिए भी वही चीज़ पसंद करे जो अपने लिए पसंद करता है।” और उन्हों ने कहा है कि यह हदीस हसन है और कई एक तरीक़ से नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से वर्णित है, जबकि कुछ लोगों ने अल-हारिस अल-आवर के बारे में कलाम किया है, तथा इस अध्याय में अबू हुरैरा, अबू अय्यूब, अल-बरा, अबू मसऊद से हदीसें वर्णित हैं।
उन्हीं में से : वह हदीस है जिसे तिर्मिज़ी ने अबू अय्यूब से रिवायत की है, कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : “जब तुम में से कोई व्यक्ति छींके तो उसे अल-हम्दुलिल्लाह कहना चाहिए, और वह कहे : अला कुल्ले हाल (यानी हर हालत में) तथा जो व्यक्ति उसका जवाब दे रहा है वह यर्हमुकल्लाह कहे, तथा फिर उसे : यहदीकुमुल्लाह व युसलिहो बालकुम कहना चाहिए।”
तो यह तर्क के चार रूप हैं, उनमें से एक स्पष्टता के साथ छींकने वाले का जवाब देने की अनिवार्यता का सबूत है, जो उसके स्पष्ट शब्द में है जिसमें तावील (कोई दूसरा अर्थ लेने) की गुंजाइश नहीं है। दूसरा : “हक़” के शब्द के साथ उसे अनिवार्य किया गया है। तीसरा : “अला” के शब्द के साथ अनिवार्य किया गया है जो प्रत्यक्ष रूप से अनिवार्यता का अर्थ देता है। चौथा : उसका आदेश दिया गया है, और इन तरीक़ों के बिना भी बहुत से वाजिबात को साबित करने में कोई संदेह नहीं है, और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक जानता है।” सुनन अबू दाऊद पर इब्ने क़ैयिम के हाशिया (13/259) से समाप्त हुआ।
तथा उन्हों ने यह भी फरमाया कि : “जिस हदीस से शुरूआत हुई है उसका प्रत्यक्ष अर्थ यह है कि : छींकने वाले का जवाब देना हर उस व्यक्ति पर फर्ज़ ऐन है जो छींकने वाले को अल्लाह की तारीफ करते हुए सुनता है, और किसी एक का जवाब देना उन सब की तरफ से काफी नहीं होगा, और यही विद्वानों के दो कथनो में से एक कथन है, और इसे (मालिकिय्या में से) इब्ने अबू ज़ैद, अबू बक्र इब्नुल अरबी ने पसंद किया है, और इस कथन का कोई विरोधक नहीं है।” ज़ादुल मआद (2/437) से अंत हुआ।
6- रही बात उसको नसीहत करने की जब वह नसीहत तलब करे, तो नसीहत के बारे में सबसे स्पष्ट बात यह है कि वह फर्ज़ किफाया है।
इब्ने मुफलेह रहिमहुल्लाह ने फरमाया :
“इमाम अहमद और उनके असहाब का ज़ाहिरी कलाम यह है कि मुसलमान के लिए नसीहत व खैरख्वाही अनिवार्य है, यद्यपि उसने इसे न तलब किया हो, जैसाकि अहादीस के ज़ाहिरी अर्थ से पता चलता है . . . ”
इब्ने मुफलेह की किताब “अल-आदाब अश्शरईयह” (1/307) से समाप्त हुआ।
तथा मुल्ला अली अल-क़ारी रहिमहुल्लाह ने फरमाया :
“(व-इज़ा इस-तन-सहका) “जब वह आप से नसीहत तलब करे”, (फन-सह लहु) “तो उसे नसीहत करो” अर्थात अनिवार्य तौर पर, इसी तरह उसे नसीहत करना अनिवार्य है चाहे उसने उससे नसीहत करने के लिए मांग न की हो।” “मिरक़ातुल मफातीह” (5/213) से अंत हुआ।
तथा हाफिज़ इब्ने हजर रहिमहुल्लाह ने फरमाया :
“यह स्पष्ट हो गया कि यहाँ पर हक़ का अर्थ अनिवार्यता है, इब्ने बत्ताल के कथन के विपरीत कि इससे मुराद हुर्मत और सोहबत (संगत) का हक़ है, और प्रत्यक्ष बात यह है कि यहाँ पर (अनिवार्यता से) मुराद फर्ज़ किफाया है।”
“फत्हुल बारी” (3/113) से अंत हुआ।