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हम, अह्ले सुन्नत वल-जमाअत, कहते हैं : ईमान ज़बान से पुष्टि करने, हृदय में आस्था रखने और शारीरिक अंगों से कार्य करने का नाम है। क़ुरआन और सुन्नत से इस दृष्टिकोण का क्या प्रमाण हैॽ
हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.
अह्ले सुन्नत ने सर्वसम्मति से इस बात पर सहमति व्यक्त की है ईमान कथन और कर्म, या ज़बान से पुष्टि करने, दिल में आस्था रखने और शारीरिक अंगों से कार्य करने का नाम है।
शाफ़ेई रहिमहुल्लाह ने कहा : “सहाबा, ताबेईन और उनके बाद के लोगों तथा जिन (विद्वानों) का हमने समयकाल पाया, उनकी सर्वसम्मति है; वे कहते हैं :
ईमान कथन, कर्म और नीयत (दिल के इरादा) का नाम है, और तीनों में से एक भी दूसरे के बिना पर्याप्त नहीं है।” लालकाई के “उसूल एतिक़ादि अहलिस्सुन्नह” (5/956) संख्या :1593 और इब्ने तैमिय्यह के “मजमूउल-फतावा” (7/209) से उद्धरण समाप्त हुआ।
बुखारी रहिमहुल्लाह ने कहा : “मैंने एक हज़ार से अधिक विद्वानों से लिखा है, और मैंने केवल उन्हीं लोगों से लिखा है जिनका कहना था : ईमान कथन और कर्म का नाम है। मैंने उन लोगों से नहीं लिखा जिन्होंने कहा : ईमान (केवल) कथन का नाम है।” लालकाई की पुस्तक “उसूल एतिक़ादि अहलिस्सुन्नह” (5/956) संख्या : (1597) से उद्धरण समाप्त हुआ।
अबू उबैद अल-क़ासिम बिन सल्लाम रहिमहुल्लाह ने कहा : "ये उन लोगों के नाम हैं जो कहा करते थे : ईमाम कथन और कर्म का नाम है, जो बढ़ता और घटता है - और उन्होंने एक सौ तैंतीस (133) विद्वानों का नाम लिया - फिर उन्होंने कहा : ये सभी कहते हैं : ईंमान कथन और कर्म का नाम है, यह बढ़ता और घटता है। यह अहले-सुन्नत का दृष्टिकोण है और हमारे यहाँ इसी पर अमल है। और अल्लाह ही तौफीक़ देने वाला है।” इसे इब्ने बत्तह ने "अल-इबानह" (2/814-826) नंबर (1117) में और शैखुल-इस्लाम ने "मजमूउल-फतावा" (7/309) में उद्धृत किया है।
शैखुल इस्लाम इब्ने तैमिय्या रहिमहुल्लाह ने कहा : “कई एक ने अह्ले-सुन्नत और अह्ले-हदीस की इस बात पर सर्वसम्मति का उल्लेख किया है कि ईमान कथन और कर्म का नाम है।” “मजमूउल-फतावा” (7/330) से उद्धरण समाप्त हुआ।
सर्वसहमति का आधार किताब व सुन्नत के बहुत-से पाठ हैं, जो इस बात को दर्शाते हैं कि ये अनुभाग (कथन एवं कर्म) ईमान के घटक हैं, और वे विस्तार के साथ चार हैं :
इस बात के प्रमाण कि ज़ुबान का कथन ईमान में शामिल है, अल्लाह तआला का यह फरमान है : قُولُوا آمَنَّا بِاللَّهِ وَمَا أُنْزِلَ إِلَيْنَا وَمَا أُنْزِلَ إِلَى إِبْرَاهِيمَ وَإِسْمَاعِيلَ وَإِسْحَاقَ وَيَعْقُوبَ وَالْأَسْبَاطِ وَمَا أُوتِيَ مُوسَى وَعِيسَى وَمَا أُوتِيَ النَّبِيُّونَ مِنْ رَبِّهِمْ لَا نُفَرِّقُ بَيْنَ أَحَدٍ مِنْهُمْ وَنَحْنُ لَهُ مُسْلِمُونَ “(ऐ मुसलमानो!) तुम कह दो : हम अल्लाह पर ईमान लाए और उसपर जो हमारी ओर उतारा गया, और जो इबराहीम और इसमाईल और इसह़ाक़ और याक़ूब तथा उसकी संतान की ओर उतारा गया, और जो मूसा एवं ईसा को दिया गया तथा जो समस्त नबियों को उनके पालनहार की ओर से दिया गया। हम उनमें से किसी एक के बीच अंतर नहीं करते और हम उसी (अल्लाह) के आज्ञाकारी हैं।” (सूरतुल बक़रा : 136). तथा अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का यह कथन है : ''मुझे आदेश दिया गया है कि लोगों से लड़ाई करूँ यहाँ तक वे यह कह दें कि अल्लाह के अलावा कोई सत्य पूज्य नहीं है। अतः जिसने यह तह दिया कि अल्लाह के अलावा कोई सत्य पूज्य नहीं है, तो उसने अपनी जान और अपने धन को मुझसे सुरक्षित कर लिया सिवाय उसके अधिकार के, और उसका हिसाब अल्लाह के पास है।” इसे बुख़ारी (हदीस संख्या : 2946) और मुस्लिम (हदीस संख्या : 21) ने अबू हुरैरा की हदीस से रिवायत किया है।
तथा अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि उन्होंने कहा : अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : “ईमान की सत्तर (या साठ) से अधिक शाखाएँ (घटक) हैं। जिनमें से सबसे अच्छा 'ला इलाहा इल्ला अल्लाह' (अल्लाह के अलावा कोई सत्य पूज्य नहीं) कहना है और सबसे कमतर तकलीफ़ देने वाली चीज़ को रास्ते से हटाना है, और हया (लज्जा) ईमान की शाखाओं में से एक है।” इसे बुखारी (हदीस संख्या : 9) और मुस्लिम (हदीस संख्या : 35) ने रिवायत किया है और हदीस के शब्द मुस्लिम के हैं।
तथा आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का शफाअत की हदीस में यह कहना : ... फिर मैं कहूँगा : ऐ मेरे रब! मेरी उम्मत, मेरी उम्मत। तो वह (अल्लाह) कहेगा : "जाओ और जिसके दिल में ईमान (विश्वास) की तनिक भी मात्रा हो, उसे नरक से बाहर लाओ।" तो मैं जाऊँगा।" इसे बुखारी (हदीस संख्या : 7510) और मुस्लिम (हदीस संख्या : 193) ने अनस रज़ियल्लाहु अन्हु की हदीस से रिवायत किया है।
तथा आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है : “ईमान की सत्तर (या साठ) से अधिक शाखाएँ (घटक) हैं। जिनमें से सबसे अच्छा 'ला इलाहा इल्ला अल्लाह' (अल्लाह के अलावा कोई सत्य पूज्य नहीं) कहना है और सबसे कमतर तकलीफ़ देने वाली चीज़ को रास्ते से हटाना है, और हया (लज्जा) ईमान की शाखाओं में से एक है।” इसे बुखारी (हदीस संख्या : 9) और मुस्लिम (हदीस संख्या : 35) ने अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु की हदीस से रिवायत किया है और हदीस के शब्द मुस्लिम के हैं।
अतः हया (लज्जा) दिल का कार्य है। इस हदीस से यह भी पता चला कि ज़बान का कथन और अंगों के कार्य ईमान का हिस्सा हैं । और यह बात पहले गुज़र चुकी है।
अनस बिन मालिक रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है, वह नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम रिवायत करते हैं कि आपने फरमाया : “तीन चीज़ें ऐसी हैं जो जिस किसी के अंदर भी पाई गईं उसने ईमान की मिठास को पा लिया : (पहली) यह कि अल्लाह और उसके रसूल उसके निकट उनके अलावा अन्य सभी चीज़ों से अधिक प्यारे हों, और (दूसरी) यह कि वह किसी व्यक्ति से प्यार करे तो उससे केवल अल्लाह के लिए प्यार करे, और (तीसरी) यह कि वह कुफ़्र (अविश्वास) की ओर पलटना ऐसे ही नापसंद करे जिस तरह कि वह आग में फेंका जाना नापसंद करता है।” इसे बुखारी (हदीस संख्या : 16) और मुस्लिम (हदीस संख्या : 43) ने रिवायत किया है।
यह बात सर्वज्ञात है कि प्यार और नफरत दिल के कार्य हैं, और हदीस ने उन्हें ईमान का हिस्सा माना है, बव्कि वह उन चीज़ों में से है जिनके माध्यम से बंदा ईमान की मिठास का स्वाद चखता है।
इस बात का प्रमाण कि अंगों के कार्य ईमान का हिस्सा हैं, अल्लाह तआला का यह फरमान है : وَمَا أُمِرُوا إِلَّا لِيَعْبُدُوا اللَّهَ مُخْلِصِينَ لَهُ الدِّينَ حُنَفَاءَ وَيُقِيمُوا الصَّلَاةَ وَيُؤْتُوا الزَّكَاةَ وَذَلِكَ دِينُ الْقَيِّمَةِ ” हालाँकि उन्हें केवल यही आदेश दिया गया था कि वे अल्लाह के लिए धर्म को विशुद्ध करते हुए, एकाग्र होकर, उसकी उपासना करें, तथा नमाज़ अदा करें और ज़कात दें और यही सीधा धर्म है।” (सूरतुल बय्यिना : 5), तथा अल्लाह का यह फरमान : إِنَّمَا الْمُؤْمِنُونَ الَّذِينَ آمَنُوا بِاللَّهِ وَرَسُولِهِ ثُمَّ لَمْ يَرْتَابُوا وَجَاهَدُوا بِأَمْوَالِهِمْ وَأَنْفُسِهِمْ فِي سَبِيلِ اللَّهِ أُولَئِكَ هُمُ الصَّادِقُونَ “निःसंदेह मोमिन तो वही लोग हैं, जो अल्लाह तथा उसके रसूल पर ईमान लाए, फिर उन्होंने संदेह नहीं किया तथा उन्होंने अपने धनों और अपने प्राणों से अल्लाह की राह में जिहाद किया। यही लोग सच्चे हैं।” सूरतुल-हुजुरात : 15). और जिहाद अंगों का काम है।
इसी के समान अल्लाह तआला का यह कथन है : إِنَّمَا الْمُؤْمِنُونَ الَّذِينَ إِذَا ذُكِرَ اللَّهُ وَجِلَتْ قُلُوبُهُمْ وَإِذَا تُلِيَتْ عَلَيْهِمْ آيَاتُهُ زَادَتْهُمْ إِيمَانًا وَعَلَى رَبِّهِمْ يَتَوَكَّلُونَ (2) الَّذِينَ يُقِيمُونَ الصَّلَاةَ وَمِمَّا رَزَقْنَاهُمْ يُنْفِقُونَ (3) أُولَئِكَ هُمُ الْمُؤْمِنُونَ حَقًّا لَهُمْ دَرَجَاتٌ عِنْدَ رَبِّهِمْ وَمَغْفِرَةٌ وَرِزْقٌ كَرِيمٌ “(वास्तव में) ईमान वाले तो वही हैं कि जब अल्लाह का ज़िक्र किया जाए, तो उनके दिल काँप उठते हैं, और जब उनके सामने उसकी आयतें पढ़ी जाएँ, तो उनका ईमान बढ़ा देती हैं, और वे अपने पालनहार ही पर भरोसा रखते हैं। वे लोग जो नमाज़ स्थापित करते हैं तथा हमने उन्हें जो कुछ प्रदान किया है, उसमें से ख़र्च करते हैं। वही सच्चे ईमान वाले हैं, उन्हीं के लिए उनके पालनहार के पास बहुत से दर्जे तथा बड़ी क्षमा और सम्मानित (उत्तम) जीविका है।” (सूरतुल अनफाल : 2-4).
नमाज़ स्थापित करना और ज़कात देना अंगों के कार्यों में से हैं, और उन्हें यहाँ ईमान शुमार किया गया है।
उसी में से सर्वशक्तिमान अल्लाह का यह कथन है : وَمَا كَانَ اللَّهُ لِيُضِيعَ إِيمَانَكُمْ “और अल्लाह कभी ऐसा नहीं कि तुम्हारा ईमान (अर्थात् क़िबला बदलने से पहले पढ़ी गई नमाज़ों को) व्यर्थ कर दे।” (सूरतुल-बक़रह : 143)।
इमाम बुख़ारी रहिमहुल्लाह ने सहीह बुखारी (1/61) में इस आयत पर यह शीर्षक लगाया है : “अध्याय : नमाज़ ईमान में से है।”
इसी में से नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का अब्दुल क़ैस के प्रतिनिधिमंडल से यह कहना है : “मैं तुम्हें अल्लाह पर ईमान लाने का आदेश देता हूँ, और कया तुम जानते हो कि अल्लाह पर ईमान क्या हैॽ इस बात की गवाही देना कि अल्लाह के अलावा कोई सत्य पूज्य नहीं, नमाज़ स्थापित करना, ज़कात देना और यह कि तुम ग़नीमत के माल में से ख़ुम्स (पाँचवाँ भाग) दो।” इसे बुखारी (हदीस संख्या : 7556) और मुस्लिम (हदीस संख्या : 17) ने इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा की हदीस से रिवायत किया है।
इसके प्रमाण बहुत हैं और इस पर सर्वसम्मतियाँ सुप्रसिद्ध हैं।