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शहर में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति पर जुमुआअनिवार्य है भले ही उसे अज़ान सुनाई न दे

21-12-2009

प्रश्न 39054

मै जिस शहर में रहता हूँ उस में मस्जिद दूर होने के कारण अगर मुझे अज़ान न सुनाई देती हो, तो क्या मेरे ऊपर जुमुआ की नमाज़ और जमाअत के साथ नमाज़ पढ़ना अनिवार्य है ?

उत्तर का पाठ

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.

जुमुआ (जुमा) की नमाज़ इस्लाम के प्रतीकों में से एक प्रतीक, और उस के महान कर्तव्यों में से एक कर्तव्य है। उस के छोड़ने पर नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के इस कथन में कड़ी चेतावनी आयी है : "जिस ने लापरवाही करते हुए तीन जुमुआ छोड़ दिया अल्लाह तआला उस के दिल पर मुहर लगा देगा।" इसे अबू दाऊद (हदीस संख्या : 1052), नसाई (हदीस संख्या : 1369) और इब्ने माजा (हदीस संख्या : 1126) ने रिवायत किया है और शैख अल्बानी ने सहीह अबू दाऊद में इसे सहीह कहा है।

जमाअत के साथ नमाज़ पढ़ना हर सक्षम व्यक्ति पर जो अज़ान को सुनता है, अनिवार्य है, इस की अनिवार्यता पर बहुत सारे प्रमाण तर्क हैं, जिन्हें आप प्रश्न संख्या (120) के उत्तर में देखें।

अज़ान सुनने का मतलब : यह है कि आदमी अज़ान को बिना लाउडस्पीकर के सामान्य आवाज़ में सुने, जबकि मुअज़्ज़िन अपनी आवाज़ को ऊँची रखे, तथा हवा और शोर वगैरा न हो जो सुनने को प्रभावित करते हैं। तथा प्रश्न संख्या (21969) और प्रश्न संख्या (20655) देखें।

ये बातें पाँच वक़्त की नमाज़ों को जमाअत के साथ पढ़ने से संबंधित थीं, जहाँ तक जुमुआ की नमाज़ का प्रश्न है तो उस का मामला कुछ दूसरा ही है, इस के बारे में फुक़हा (धर्म शास्त्रियों) का कहना है कि : हर उस आदमी पर अनिवार्य है जो शहर या ऐसे गाँव में रहता है जिस में जुमुआ की नमाज़ होती है, चाहे वे आवाज़ सुनें या न सुनें। इस बात पर सर्व सहमति है जैसा कि आगे आ रहा है।

जहाँ तक उस आदमी का प्रश्न है जो शहर से बाहर, या ऐसे गाँव में रहता है जहाँ जुमुआ की नमाज़ नहीं होती है, तो इस के बारे में मतभेद है :

चुनाँचि कुछ फुक़हा का कहना है कि : अगर वे -शहर या गाँव में जुमुआ की अज़ान की-आवाज़ सुनते हैं तो उन पर जुमा अनिवार्य है और अगर नहीं सुनते हैं तो उन पर जुमा अनिवार्य नहीं है। यह शाफेइया का मत और मुहम्मद बिन अल-हसन का कथन है, और हनफीया के यहाँ इसी पर फत्वा है।

और उन में से कुछ का कहना है कि : अगर उनके बीच और जुमुआ होने वाले स्थान के बीच एक फर्सख (अर्थात तीन मील) से अधिक दूरी है तो उन पर जुमुआ अनिवार्य नहीं है, और अगर एक फर्सख (यानी तीन मील) या उस से कम दूरी है तो उन पर जुमुआ की नमाज़ अनिवार्य है। यह मालिकीया और हनाबिला का मत है।

और उन में से कुछ का कहना है कि : उस आदमी पर अनिवार्य है जो वहाँ जाकर जुमा की नमाज़ पढ़ कर रात होने से पहले अपने परिवार में वापस लौट सकता है। इस कथन को इब्नुल मुंज़िर ने इब्ने उमर, अनस, अबू हुरैरा, मुआविया, हसन, इब्ने उमर के मौला नाफिअ़, इकरिमा, अता, हकम, औज़ाई और अबू सौर से वर्णन किया है।

शहर या गाँव से बाहर रहने वाले के हुक्म पर हम ने इस लिए ध्यान आकर्षित किया है ; क्योंकि कुछ लोगों का गुमान यह है कि यह मतभेद उस आदमी के बारे में है जो शहर के अंदर रहता है, लेकिन यह सोच गलत है।

नववी रहिमहुल्लाह कहते हैं : "शाफेई और असहाब का कहना है कि : जब शहर में चालीस या उस से अधिक परिपूर्ण (परिपक्व) लोग हों, तो उस में रहने वाले हर व्यक्ति पर जुमा अनिवार्य है भले ही शहर का छेत्र कई फर्सख हो, और चाहे वे अज़ान सुनें या न सुनें। और इस पर सर्वसहमति है।" (अल-मजमूअ़ 4/353 से समाप्त हुआ।)

तथा अल-मरदावी अपनी किताब "अल-इंसाफ" में कहते हैं : "फर्सख (तीन मील) के द्वारा अनुमान लगाने, या अज़ान सुनने की संभावना, या अज़ान सुनाई देने, या वहाँ जाने और उसी दिन वापस आने से संबंधित मतभेद उस आदमी के बारे में है जो किसी ऐसे गाँव में रहता है जिन की संख्या उस स्तर तक नहीं पहुँचती है जिसकी जुमा में शर्त है, या उस के बारे में है जो तंबुओं आदि में मुक़ीम है, या उस के बारे में है जो क़स्र की दूरी से कम की यात्रा करने वाला है, तो यह विवाद और मतभेद इन लोगों और इन्हीं की तरह के लोगों से संबंधित है। जहाँ तक उस आदमी की बात है जो ऐसे शहर में मुक़ीम है जहाँ जुमुआ की नमाज़ होती है, तो उस पर जुमुआ की नमाज़ अनिवार्य है, अगरचे उस के और जुमुआ के स्थान के बीच कई फर्सख की दूरी ही क्यों न हो, चाहे वह अज़ान सुने या न सुने, और चाहे उसके भवन उस से सटे हों या अलग हों, यदि वह एक ही नाम से जाना जाता है।" (अल-मरदावी की बात समाप्त हुई).

तथा देखिये : "मजमूउल अनहुर" (1/169), हाशियतुल अदवी अला शरह अर-रिसाला" (1/376), "कश्शाफुल क़िनाअ़" (2/22).

निष्कर्ष : यह कि शहर में रहने वाले आदमी पर जुमुआ अनिवार्य है, चाहे वह अज़ान सुने या न सुने, और इस में उलमा के बीच कोई मतभेद नहीं है।

किन्तु "शहर" के अर्थ को परिभाषित करने में मतभेद पैदा हुआ है कि यदि शहर दूर दूर और अलग अलग हो जाये इस प्रकार कि उस के कई मुहल्ले हो जायें जिन के बीच में खेतियाँ हों, तो कुछ विद्वानों ने कहा है कि : "यदि वह अलग अलग हो जाये और उसके बीच खेतियाँ हों तो हर एक मुहल्ला एक शहर की तरह है।"

शैख उसैमीन रहिमहुल्लाह इस कथन का उल्लेख करने के बाद कहते हैं : "लेकिन सही बात यह है कि जब वह एक ही नाम के तहत आता है तो वह एक ही शहर है, और अगर मान लिया जाये कि यह शहर विस्तृत हो गया और उस के किनारों के बीच कई-कई मील या फर्सख हो गये, तब भी वह एक ही शहर है, अतः जो उस के पूरबी छोर पर रहता है उस पर जुमुआ उसी तरह अनिवार्य है, जिस तरह कि उस के पश्चिमी छोर पर रहने वाले पर अनिवार्य है, और इसी तरह उसके उत्तरी और दक्षिणी छोर पर रहने वाल पर अनिवार्य है ; इसलिए कि वह एक ही शहर है।" (अश-शरह अल-मुम्ते 5/17 से समाप्त हुआ ).

जुमा की नमाज़
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