गुरुवार 20 जुमादा-1 1446 - 21 नवंबर 2024
हिन्दी

जमाअत के साथ मिस्जद में नमाज़ पढ़ने का हुक्म

120

प्रकाशन की तिथि : 01-12-2009

दृश्य : 22373

प्रश्न

जमाअत के साथ मिस्जद में नमाज़ पढ़ने का क्या हुक्म है तथा उस का प्रमाण क्या है ?

उत्तर का पाठ

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.

विद्वानों के दो कथनों में से शुद्ध कथन के अनुसार, सक्षम मर्दों पर जमाअत के साथ मस्जिद में नमाज़ पढ़ना अनिवार्य है, इस के बहुत से प्रमाण हैं :

प्रथम प्रमाण :

अल्लाह तआला का फरमान है :

"और जब आप उन में हों और उन के लिए नमाज़ को क़ायम करें तो चाहिए कि उन का एक गुट आप के साथ हथियार लिए खड़ा हो ..." (सूरतुन्निसा : 102)

इस आयत से तर्क इस प्रकार है :

पहला : यह कि सर्वशक्तिमान अल्लाह ने उन्हें जमाअत के साथ नमाज़ पढ़ने का आदेश दिया है, फिर सर्वशक्तिमान अल्लाह ने यही आदेश दुबारा दूसरे गुट को भी दिया है, फरमाया : "और दूसरा गुट जिस ने नमाज़ नहीं पढ़ी है वह आ जाये और आप के साथ नमाज़ अदा करे . . ." (सूरतुन्निसा : 102)

इस में इस बात पर तर्क मौजूद है कि जमाअत के साथ नमाज़ पढ़ना फर्ज़े ऐन (अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति पर फर्ज़) है, क्योंकि अल्लाह सुब्हानहु व तआला ने पहले गुट के जमाअत के साथ नमाज़ पढ़ लेने से दूसरे गुट से जमाअत के साथ नमाज़ का आदेश समाप्त नहीं किया है, यदि जमाअत के साथ नमाज़ सुन्न होती तो जमाअत के समाप्त होने का सब से अधिक योग्य खौफ (डर) का उज़्र होता, और यदि जमाअत फर्ज़े किफाया होती (अर्थात् कुछ लोगों के जमाअत के साथ पढ़ लेने से ज़िम्मेदारी समाप्त हो जाती) तो पहले गुट के जमाअत के साथ नमाज़ पढ़ लेने से उसकी अनिवार्यता समाप्त हो जाती। (और दूसरे गुट को भी जमाअत के साथ नमाज़ पढ़ने पर बाध्य नही किया जाता )

बहरहाल इस आयत में जमाअत के फर्ज़े ऐन होने पर तर्क मौजूद है।

इस में तर्क के तीन पहलू हैं :

- उस का प्रथम बार जमाअत के साथ नमाज़ का आदेश देना।

- फिर उस का दूसरी बार जमाअत के साथ नमाज़ का आदेश देना।

- उस ने भय की स्थिति में भी उन्हें जमाअत के छोड़ने की छूट नहीं दी।

चौथा प्रमाण :

1- सहीह बुखारी और सहीह मुस्लिम में -और इस हदीस के शब्द बुखारी के हैं- अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से प्रमाणित है कि अल्लाह के पैग़ंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "उस अस्तित्व की क़सम जिस के हाथ में मेरी जान है! मैं ने सोचा कि लकड़ी इकट्ठा करने का आदेश दूँ, फिर नमाज़ का आदेश दूँ तो उस के लिए अज़ान दी जाये, फिर मैं किसी आदमी को आदेश दूँ कि वह लोगों की इमामत करवाये (नमाज़ पढ़ाये), फिर मैं (नमाज़ में अनुपस्थित) लोगों की तरफ जाऊँ और उन पर उन के घरों को जला दूँ, अल्लाह की क़सम! यदि उसे पता चल जाये कि वह एक मोटी हड्डी या दो अच्छे खुर पाये गा तो वह इशा की नमाज़ में अवश्य उपस्थित हो।"

2- अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "मुनाफिक़ों पर सब से भारी नमाज़ इशा और फज्र की नमाज़ है, और अगर उन्हें पता चल जाता कि उन दोनों (नमाज़ों) के अंदर क्या (अतिरिक्त) फज़ीलत (और भलाई) है तो वे उस में अवश्य आते चाहे घुटनों के बल घिसटते हुये ही क्यों न आना पड़ता, और मैं ने सोचा कि नमाज़ क़ायम करने का आदेश दूँ, फिर किसी आदमी को आदेश दूँ कि वह लोगों को नमाज़ पढ़ाये, फिर मैं अपने साथ ऐसे लोगों को लेकर जिन के साथ लकड़ी का गट्ठर हो, उन लोगों के पास जाऊँ जो नमाज़ में उपस्थित नहीं होते हैं, और उन के ऊपर उनके घरों को जला दूँ।" (बुखारी एंव मुस्लिम)

3- तथा इमाम अहमद ने अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु ही से रिवायत किया है कि अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "अगर यह बात न होती कि घरों में महिलायें और बच्चे भी होते हैं, तो मैं इशा की नमाज़ क़ायम करता और अपने जवानों को आदशे देता कि वे जो कुछ घरों में है उसे आग से जला देते।"

4- तथा नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने जिस चीज़ का इरादा किया था उस को इसलिए नहीं किया क्योंकि आप के सामने वह रूकावट थी जिस के बारे में आप ने सूचना दी कि उस ने आप को ऐसा करने से रोक दिया, और वह घरों में महिलाओं और बच्चों का मौजूद होना है जिन पर जमाअत अनिवार्य नहीं है, अत: अगर आप उन को जला देते तो ऐसे लोग भी दण्ड से पीड़ित हो जाते जिन पर जमाअत अनिवार्य नहीं है।

पाँचवा प्रमाण :

इमाम मुस्लिम ने अपनी सहीह में रिवायत किया है कि एक अंधा आदमी आया और कहा : ऐ अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ! मुझे मस्जिद तक ले जाने वाला कोई नहीं, चुनाँचि उस ने रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से अनुरोध किया कि आप उसे रूख्सत (घर में नमाज़ पढ़ने की छूट) प्रदान कर दें, तो आप ने उसे रूख्सत प्रदान कर दी, जब वह वापस जाने लगे तो आप ने उन्हें बुलाया और फरमाया : "क्या तुम अज़ान सुनते हो ?" उन्हों ने उत्तर दिया कि हाँ। तो आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "तो तुम उसका जवाब दो।" (अर्थात जमाअत में हाज़िर हो). और यह आदमी इब्ने उम्मे मकतूम हैं।

तथा मुसनद इमाम अहमद और सुनन अबू दाऊद में अम्र इब्ने उम्मे मकतूम से वर्णित है कि उन्हों ने कहा: मैं ने कहा : ऐ अल्लाह के पैगंबर ! मैं अंधा हूँ, मेरा घर दूर है और मेरे पास ऐसा मार्गदर्शक है जो मेरे लिए उपयुक्त नहीं है, तो क्या आप मेरे लिए इस बात की रूख्सत पाते हैं कि मैं अपने घर में नमाज़ पढ़ूँ ? आप ने फरमाया:  "तुम अज़ान सुनते हो ?" उस ने कहा : हाँ। आप ने फरमाय : "मैं तुम्हारे लिए रूख्सत नहीं पाता।"

किसी चीज़ का परम आदेश उसकी अनिवार्यता को दर्शाता है, तो फिर जब साहिबे शरीअत (नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने स्पष्ट रूप से बयान कर दिया कि एक ऐसे बन्दे के लिए, जो अंधा, दूर घर वाला, जिस का मार्गदर्शक उस के उपयुक्त नहीं, जमाअत की नमाज़ से पीछे रहने की कोई रूख्सत नहीं है, तो फिर अनिवार्य क्यों नहीं होगा। अत: यदि बन्दे के लिए यह विकल्प होता कि वह अकेले नमाज़ पढ़े या जमाअत के साथ तो इस तरह का अंधा आदमी इस विकल्प का सब से अधिक हक़दार होता।

छठा प्रमाण :

अबू दाऊद और अबू हातिम इब्ने हिब्बान ने अपनी सहीह में इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा से रिवायत किया है कि उन्हों ने कहा कि अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "जिस ने अज़ान सुनी और उसे उस का अनुसरण  करने से किसी उज़्र ने नहीं रोका" लोगों ने कहा : उज़्र क्या है ? आप ने फरमाया : "डर या बीमारी, तो उस की वह नमाज़ क़बूल नहीं होगी जो उस ने पढ़ी है।"

सातवाँ प्रमाण :

इमाम मुस्लिम ने अपनी सहीह में अब्दुल्लाह बिन मसऊद रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत किया है कि उन्हों ने कहा : जिस आदमी को यह पसन्द है कि वह कल (क़ियामत के दिन) अल्लाह तआला से मुसलमान होने की हालत में मुलाकात करे, तो उसे इन नमाज़ों की उसी जगह पाबंदी करनी चाहिए जहाँ उनके लिए अज़ान दी जाती है, क्योंकि अल्लाह तआला ने तुम्हारे पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के लिए हिदायत के तरीक़े निर्धारित किये हैं, और ये (नमाज़ें) हिदायत के तरीक़ों में से हैं, और अगर तुम अपने घरों में नमाज़ पढ़ने लगे जिस तरह कि यह पीछे रह जाने वाला आदमी अपने घर में नमाज़ पढ़ता है तो तुम अपने नबी की सुन्नत को छोड़ बैठो गे, और यदि तुम ने अपने नबी की सुन्नत को छोड़ दिया तो तुम गुमराह हो जाओगे। और जो भी आदमी वुज़ू करता है और अच्छी तरह वुज़ू करता है, फिर इन मस्जिदों में से किसी मस्जिद में जाता है तो अल्लाह तआला उस के लिए उस के चलने वाले हर क़दम पर एक नेकी लिखता है, और उस की वजह से उस का एक दर्जा ऊँचा कर देता है और उस के एक गुनाह को मिटा देता है। और मैं ने देखा है कि इस से केवल एक पक्का मुनाफिक़ ही पीछे रहता था, तथा आदमी को दो आदमियों के सहारे लाया जाता था यहाँ तक कि सफ में खड़ा कर दिया जाता था।"तथा एक रिवायत के शब्द यह हैं : "और फरमाया कि : अल्लाह के रसूल ने हमें हिदायत के रास्ते सिखाये हैं, और हिदायत के रस्तों में से यह भी है कि नमाज़ उस मस्जिद में पढ़ी जाये जिस में अज़ान होती है।"

इस में तर्क इस प्रकार है कि :

उन्हों ने जमाअत की नमाज़ से पीछे रहना ऐसे मुनाफिक़ों (पाखण्डियों) की निशानियों में से करार दिया है जिस का निफाक़ स्पष्ट हो।

अल्लाह तआला से हम प्रार्थना करते हैं कि वह अपने ज़िक्र, अपने शुक्र, और अपनी अच्छी तरह इबादत करने पर हमारा सहयोग करे। और अल्लाह तआला ही सर्वश्रेष्ठ ज्ञान रखता है।

इस्लाम प्रश्न और उत्तर.

स्रोत: शैख मुहम्मद सालेह अल-मुनज्जिद