हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.
सर्व प्रथम :
जिस आदमी का अपने महल्ले की मस्जिद में किसी बिदअत वाले इमाम से सामना होता है, तो उसकी बिदअत दो हालतों से खाली नहीं होगी : या तो उसकी बिदअत कुफ्र वाली होगी, और या तो उससे कमतर होगी। यदि वह कुफ्र वाली बिदअत है : तो उसके पीछे नमाज़ पढ़नी जायज़ नहीं है, न तो जुमा की नमाज़ और न ही जमाअत की नमाज़। और यदि वह ऐसी बिदअत है जो उसे धर्म से बाहर नहीं निकालती है : तो राजेह (वज़नदार) बात उसके पीछे जुमा और जमाअत की नमाज़ का जायज़ होना है। और यह हुक्म - आम तौर पर - साबित और स्थिर हो चुका है यहाँ तक कि अह्ले सुन्नत का प्रतीक बन गया है। और - इसी तरह - सहीह बात यह है कि : वह उस नमाज़ को नहीं दोहरायेगा यदि उसने उसे उस बिदअती के पीछे पढ़ी है। इस बारे में नियम यह है कि : ‘‘जिस व्यक्ति की स्वयं अपनी नमाज़ सही है, तो उसकी इमामत भी सही होगी।’’
यदि उस बिदअती इमाम के अलावा के पास जाना संभव है : तो ऐसा करना निर्धारित (अनिवार्य) है, विशेषकर वरिष्ठ विद्वानों और छात्रों के लिए। और यह भलाई का आदेश देने और बुराई से रोकने के अध्याय से है। जहाँ तक उसके पीछ नमाज़ त्यागकर घर में नमाज़ पढ़ने की बात है तो यह जमाअत की नमाज़ में जायज़ नहीं है, औ जुमा की नमाज़ में तो और भी जायज़ नहीं है।
शैखुल इस्लाम इब्ने तैमियया रहिमहुल्लाह फरमाते है:
यदि मुक़तदी को पता चल जाए कि इमाम बिदअती है, जो अपनी बिदअत की ओर बुलावा देता है, या वह फासिक़ (अवज्ञाकारी) है जिसका फिस्क़ (अवज्ञा) प्रत्यक्ष है, और वह नियमित इमाम है जिसके अलावा के पीछे नमाज़ संभव नहीं है, जैसे जुमा, और ईदैन (दोनों ईद) का इमाम, और अरफा में हज्ज की नमाज़ का इमाम, इत्यादि : तो ऐसी स्थिति में सलफ और ख़लफ के आम लोगों के निकट, मुक़तदी उसके पीछे नमाज़ पढ़ेगा। यही अहमद, शाफेई, अबू हनीफा, और इनके अलावा लोगों का मत है।
इसीलिए विद्वानों ने अक़ाइद (आस्था) के अध्याय में कहा है: ‘‘वह हर इमाम के पीछे, चाहे वह नेक हो, या बुरा, जुमा और ईद की नमाज़ पढ़ेगा।’’ इसी तरह अगर गाँव में केवल एक ही इमाम है: तो उसके पीछे जमाअत की नमाज़ पढ़ी जायेगी ; क्योंकि जमाअत की नमाज़ आदमी के अकेले नमाज़ पढ़ने से बेहतर है, अगरचे इमाम फासिक़ (पाप करनेवाला) ही क्यों न हो।
ह जमहूर विद्वानों : अहमद बिन हंबल, शाफेई और इन दोनों के अलावा का मत है, बल्कि इमाम अहमद के प्रत्यक्ष मतानुसार जमाअत की नमाज़ हर एक पर निर्धारित रूप से अनिवार्य (वाजिबे ऐन) है। जिस व्यक्ति ने फाजिर (पाप करने वाले) इमाम के पीछे जुमा और जमाअत की नमाज त्याग कर दिया : तो वह इमाम अहमद औ़र उनके अलावा अन्य सुन्नत के इमामों के निकट बिदअती है, जैसाकि उन्हों ‘‘अब्दूस’’ नामी पत्रिका में उल्लेख किया है, तथा इब्ने मालिक और अत्तार का भी यही मत है।
और सहीह बात यह है कि : वह इन नमाज़ों को उसके पीछे पढ़ेगा और उन्हें नहीं दोहरायेगा ; क्योंकि सहाबा रज़ियल्लाहु अन्हुम फासिक़ व फाजिर (पापी) इमामों के पीछे जुमा और जमाअत की नमाज़ें पढ़ते थे, और उन्हें नहीं दोहराते थे, जैसाकि इब्ने उमर हज्जाज के पीछे नमाज़ पढ़ते थे, और इब्ने मसऊद वगैरह वलीद बिन उक़बा के पीछे नमाज़ पढ़ते थे, जबकि वह शराब पीता था यहाँ तक कि उसने एक बार उन्हें फज्र की नमाज़ चार रकअतें पढ़ाई, फिर कहने लगा: क्या मैं और अधिक पढ़ाऊँ? तो इब्ने मसऊद ने कहा: आज से तो हम तुम्हारे साथ अधिक ही पढ़ रहे हैं! इसीलिए उन्हों ने उसमान रज़ियल्लाहु अन्हु से उसकी शिकायत की।
तथा सहीह बुखारी में है कि जब उसमान रज़ियल्लाहु अन्हु का घेराव कर लिया गया: तो लोगों को एक व्यक्ति ने नमाज़ पढ़ाई। तो एक पूछनेवाले ने उसमान रज़ियल्लाहु अन्हु से प्रश्न करते हुए कहा: आप सामान्य जन के इमाम (शासक) है, और यह आदमी जो लोगों को नमाज़ पढ़ा रहा फित्ना (उद्रव) का इमाम है। तो उन्हों ने कहा : ऐ मेरे भतीजे! नमाज़ सबसे अच्छी चीज़ है जिसे लोग करते हैं, यदि वे अच्छा करें तो उनके साथ अच्छा करो, और अगर वे बुरा करें तो उनकी बुराई से बचे रहो। इस तरह के उदाहरण बहुत हैं।
फासिक़ (पापी) और बिदअती की नमाज़ स्वयं सही है, फिर अगर मुक़तदी उसके पीछे नमाज़ पढ़ेगा : तो उसकी नमाज़ बातिल (व्यर्थ) नहीं होगी, लेकिन जिन लोगों ने उसके पीछे नमाज़ पढ़ना नापसंद किया है, इस वजह से नापसंद किया है क्योंकि भलाई का आदेश देना और बुराई से रोकना अनिवार्य है, और उसी में से यह है कि जिसने खुले आम कोई बिदअत, या पाप किया तो उसे मुसलमानों का (स्थायी) इमाम नियुक्त नहीं किया जायेगा, क्योंकि वह दंड का पात्र है यहाँ तक कि वह तौबा (पश्चाताप) कर ले। यदि उससे संबंध विच्छेद करना संभव है यहाँ तक कि वह तौबा कर ले : तो यह बेहतर है। और अगर ऐसा हो कि यदि कुछ लोग उसके पीछे नमाज़ पढ़ना छोड़ दें और उसके अलावा किसी दूसरे के पीछे नमाज़ पढ़ें : तो इसका प्रभाव पड़ेगा यहाँ तक कि वह तौबा कर ले, या उसे निलंबित कर दिया जाए, या लोग उसकी तरह के गुनाह से बाज़ आ जाएं : तो अगर इस तरह के आदमी के पीछे नमाज़ पढ़ना त्याग कर दिया जाता है : तो इसके अंदर लाभ और हित है, लेकिन इस शर्त के साथ कि मुक़तदी की जुमा और जमाअत की नमाज़ छूटने न पाए।
लेकिन अगर उसके पीछे नमाज़ छोड़ देने से मुक़तदी की जुमा और जमाअत की नमाज़ छूट जाती है : तो ऐसी स्थिति में ऐसे लोगों के पीछे नमाज़ नहीं छोड़ी जायेगी सिवाय इसके कि वह ऐसा बिदअती हो जो सहाबा रज़ियल्लाहु अन्हुम का विरोधी हो।
‘‘अल-फतावा अल-कुबरा’’ (2/307, 308).
दूसरा :
जो बातें बीत चुकी हैं उनसे यह ज्ञात हो जाता है कि जो आदमी खतीब (वक्ता) को किसी बिदअत की ओर बुलावा देते सुने जैसे कि वे बिदअतें जिनकी ओर आप ने अपने प्रश्न में संकेत किया है, या वह उसके करने पर उभारता और उकसाता है, या वह ज़ईफ (कमज़ोर) या मौज़ूअ (मनगढ़न्त) हदीसें उल्लेख करता है : तो उसके लिए मस्जिद से अलग होना और खुतबा छोड़ देना जायज़ नहीं है, सिवाय इसके कि वह व्यक्ति एक प्रतिष्ठित विद्वान हो, और वह इस शर्त पर उससे अलग हो कि किसी दूसरे के पास जाकर नमाज़ पढ़े, और यह कि वह उस खतीब को इससे पहले नसीहत कर चुका हो और उसके लिए सत्य को स्पष्ट कर दिया हो। लेकिन यदि उसने उसे पहले नसीहत नहीं की है, या वह किसी दूसरी मस्जिद में नहीं जाता है : तो प्रत्यक्ष बात यह है कि खुत्बा के दौरान मस्जिद से निकलना जायज़ नहीं है, सिवाय इसके कि खतीब ऐसे लोगों में से हो जिसके पीछे, उसके कुफ्र में पड़ने की वजह से, बिल्कुल नमाज़ जायज़ ही न हो।
हम ने प्रश्न संख्या (6366) के उत्तर में जुमा के खतीब (उपदेशक) की बात को, यदि वह पथ भ्रष्टता की बात करे, या किसी बिदअत (नवाचार) को मान्यता दे, या शिर्क (अनेकेश्वरवाद) की ओर आमंत्रित करे तो खुत्बा (भाषण्) के दौरान ही काटने के हुक्म का उल्लेख किया है, और वहाँ उसके जायज़ होने की बात कही है, लेकिन यह इस बात के साथ प्रतिबंधित और मशरूत है कि उस पर लोगों के बीच कोई फित्ना (उपद्रव व अशांति), और उनके ऊपर जुमा का छूठ जाना न निष्कर्षित होता हो, और जो व्यक्ति उस पर इनकार (खण्डन) करना चाहता है वह खुत्बा समाप्त होने तक उसे विलंब कर देगा, फिर उठकर लोगों से खतीब ने जो कुछ कहा है उसकी गलती स्पष्ट करेगा।
तथा जो व्यक्ति इन्कार (आलोचना) करना चाहता है वह हक़ (सत्य) को स्पष्ट करने, और उस खतीब ने जो कुछ कहा है उसकी आलोचना करने में विनम्रता से काम ले, ताकि बुराई का खण्डन करने का अपेक्षित परिणाम प्राप्त हो सके।
तथा स्थायी समिति के विद्वानों से प्रश्न किया गया :
उस खतीब (वक्ता) के बारे में इस्लाम का क्या हुक्म है जो खुत्बा के दौरान या पूरे खुत्बे में इस्राईलियात (यहूदी स्रोतों से वर्णित बातें) के बारे में बात करता है, या ज़ईफ हदीसें वर्णन करता है, ताकि लोगों की पसंद का पात्र बन सके?
तो उन्हों ने उत्तर दिया :
यदि आपको निश्चित रूप से पता हो कि वह जो कुछ भाषण में वर्णन करता है इस्राइलियात हैं जिनका कोई आधार नहीं है, या ज़ईफ हदीसें हैं : तो आप उसे नसीहत करें कि वह उनके बदले सहीह हदीसें और क़ुरआन की आयतें पेश करे, और निश्चित रूप से वह किसी ऐसी चीज़ को नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से संबंधित न करे जिसकी प्रामाणिकता को वह नहीं जानता है, क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का कथन है : ‘‘दीन (धर्म) नसीहत (और शुभचिंता) का नाम है।’’ इस हदीस को मुस्लिम ने अपने सहीह में रिवायत किया है। परंतु यह नसीहत अच्छी शैली में हो, कठोरता और हिंसा के साथ न हो। अल्लाह आपको तौफीक़ (सक्षमता) प्रदान करे और आपके माध्यम से लोगों को लाभ पहुँचाए।
शैख अब्दुल अज़ीज़ बिन बाज़, शैख अब्दुर्रज़्ज़ाक़ अफीफी, शैख अब्दुल्लाह बिन ग़ुदैयान
''फतावा स्थायी समिति'' (8/229, 230)।
निष्कर्ष :
यह कि अगर आप लोगों के लिए एक ऐसी मस्जिद में जाना संभव है जिसमें बिदअत नहीं की जाती है, और उसका खतीब किसी गुमराही की ओर नहीं बुलाता है : तो अच्छा है, आप ऐसा करेंगे। और अगर आपके लिए ऐसा करना संभव नहीं है, या आप लोगों के यहाँ दूसरी मस्जिद नहीं है : तो जो कुछ आप ने उल्लेख किया है उसकी वजह से आप लोगों के लिए जुमा और जमाअत की नमाज़ें छोड़ना जायज़ नहीं है। आपको नसीहत व सदुपदेश करने और अल्लाह की ओर आमंत्रित करने में भरपूर प्रयास करना चाहिए, और लोगों को आमंत्रित करने में अच्छी शैली और कोमलता व विनम्रता का लालायित होना चाहिए।