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मूर्तियों को तोड़ने की अनिवार्यता

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प्रकाशन की तिथि : 27-02-2015

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प्रश्न

क्या इसलाम में मूर्तियों और प्रतिमाओं को तोड़ना और नष्ट करना अनिवार्य है, अगरचे वह मानवीय और सांस्कृतिक विरासत में से हों? तथा जब सहाबा रज़ियल्लाहु अन्हुम ने देशों पर विजय प्राप्त किया और वहाँ उन्होंने प्रतिमाओं को देखा, तो उन्हें नष्ट क्यों नहीं किया?

उत्तर का पाठ

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.

शरई दलीलें मूर्तियों को नष्ट करने के अनिवार्य होने को इंगित करती हैं, उनमें से कुछ दलीलें निम्नलिखित हैं :

1- इमाम मुस्लिम (हदीस संख्या : 969) ने अबुल हैयाज अल असदी से रिवायत किया है कि उन्हों ने कहा : अली बिन अबी तालिब ने मुझ़ से कहा : क्या मैं तुम को उस काम के लिए न भेजूँ जिस के लिए अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने मुझ़े भेज़ा था?: ‘‘कि किसी भी मूर्ति को मत छोड़ना मगर उसको मिटा देना, और किसी भी ऊँची क़ब्र को मत छोड़ना मगर उसको बराबर कर देना।’’

2- तथा इमाम मुस्लिम (हदीस संख्या : 832) ने अम्र बिन अबसा से रिवायत किया है कि उन्होंने अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से प्रश्न किया किः (अल्लाह ने) आप को किस चीज़ के साथ भेजा है? तो आप ने फ़रमाया : “मुझे संबंधों को जोड़ने, और मूर्तियों को तोड़ने के साथ भेजा है, और यह कि अल्लाह तआला के एकेश्वरवाद को माना जाए और उस के साथ किसी को साझी न बनाया जाए।''

और उन मूर्तियों को तोड़ने और नष्ट करने की अनिवार्यता निश्चित हो जाती है यदि अल्लाह को छोड़कर उनकी पूजा की जाती है:

3- बुख़ारी (हदीस संख्या : 3020) और मुस्लिम (हदीस संख्या : 2476) ने ज़रीर बिन अब्दुल्लाह अल-बज़ली से रिवायत किया है, वह कहते हैं कि मुझ से अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने कहा : ऐ जरीर, क्या तुम मुझे ज़ुल-खल़सा से राहत नहीं दोगे, यह ख़सअम नामी व्यक्ति का घर था, जिस को यमन का क़अबा कहा जाता था। वह कहते हैं कि : चुनाँचे हम 150 घुड़सवारों के दल में निकले, और मैं घोड़े की पीठ पर स्थिर नहीं हो सकता था, तो मैं ने इस को अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहो अलैहि व सल्लम से वर्णन किया, तो आप ने अपना हाथ मेरे सीने पर मारा और अललाह से यह प्रार्थना किया कि : ऐ अल्लाह, इसको साबित कदम रख़, और इसको मार्गदर्शक और मार्गदर्शित (हिेदायत-याफ़्ता) बना। रावी (कथावाचक) कहते हैं कि वह गए और उस मूर्ति को आग से जला डाला। फिर जरीर ने हम में से एक आदमी को जिसे अबू अर्तात कहकर बुलाया जाता था, अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास शुभसूचना सुनाने के लिए भेजा, तो वह अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास आए, और आप से बताया किः मैं आप के पास उस समय आया हूँ, जब हम ने उसे एक ख़ारिश ज़दह या ख़ुजली वाले ऊँट कि तरह कर के छोड़ा है। तो अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने अहमस क़बीला के घोड़ों और उसके सवारों के लिए पाँच बार बर्कत की दुआ की।”

हाफ़िज़ इब्ने हजर रहिमहुल्लाह कहते हैं कि :

इस हदीस में उस निर्माण आदि को नष्ट करने की वैधता का पता चलता है जिस से लोग पथभ्रष्ट हो सकते हों, चाहे वह कोई मानव हो या जानवर या कोई निर्जीव वस्तु हो। अंत हुआ

4- तथा अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने ख़ालिद बिन वलीद रज़िअल्लाहु अन्हु को एक दल के साथ उज़्ज़ा नामी बुत को विध्वंस करने के लिए भेजा।

5- इसी तरह अल्लाह के नबी सल्लल्लाहो अलैहि व सल्लम ने सअद बिन जैद अल-अशहली रज़ि अल्लाहु अन्हु को एक दल के साथ मनात नामी बुत को विध्वंस करने के लिए भेजा।

6- तथा अम्र बिन आस रज़ि अल्लाहु अन्हु को एक दल के साथ सुवाअ नामी बुत को गिराने के लिए भेजा।

और इन सारे लोगों को मक्का पर विजय के बाद भेजा गया।

(अल बिदाया वन्निहाया 4/712, 776, 5/83, अस्सीरतुन नबविय्या, लेखक/ डॉक्टर अली अल-सल्लाबी 2/1186)

इमाम नववी अपनी किताब “शरह मुस्लिम” में चित्र के विषय में वार्तालाप करते हुए कहते हैं कि:

“छाया वाले चित्रों के निषेद्ध पर, और उसे परिवर्तित करने और मिटाने के अनिवार्य होने पर विद्वानों की सर्वसम्मति है।’’ अंत हुआ

और चित्रों में से जिसकी छाया होती है वह शरीरधारी चित्र हैं जैसे ये मूर्तियाँ (प्रतिमाएं) हैं।

और जहाँ तक इस बात का संबंध है कि सहाबा रज़ि अल्लाहु अनहुम ने जिन देशों पर विजय प्राप्त किया था उनमें मूर्तियों को छोड़ दिया था, तो ये मात्र भ्रांतियाँ और आशंकायें हैं, क्योंकि अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के साथियों से ऐसा हो ही नहीं सकता कि वे मूर्तियों और प्रतिमाओं को छोड़ दें, विशेषकर जबकि उस युग में उनकी पूजा की जाती थी।

अगर यह कहा जाए कि : फ़िरऔनों और फीनीकियों इत्यादि की इन प्राचीन मूर्तियों को विजेता सहाबियों ने कैसे छोड़ दिया?

तो इसका उत्तर यह है कि : ये मूर्तियाँ तीन रूप से ख़ाली नहीं हैं :

प्रथम : यह कि ये मूर्तियाँ दूरदराज़ के स्थानों में थीं, जहाँ तक सहाबा नहीं पहुँचे थे। क्योंकि सहाबा का उदाहरण के तौर पर मिस्र को विजय करने का अर्थ यह नहीं है कि वे उस के सभी क्षेत्रों में पहुँचे हुए थे।

दूसरा : यह कि वे मूर्तियाँ प्रत्यक्ष नहीं थीं, बल्कि फ़िरऔनों आदि के घरों के अन्दर थीं। और अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का निर्देश (शिक्षा) यह था कि अत्याचारियों और प्रकोपित लोगों के घरों (क्षेत्रों) से गुज़रते समय तेज़ी और जल्दी से गुज़रा जाए। बल्कि उन स्थानों में प्रवेश करने से आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने मना किया है।

चुनाँचे सहीहैन (सहीह बुखारी व सहीह मुस्लिम) में है कि : “तुम इन यातना दिए गए लोगों के क्षेत्रों में न प्रवेश करो, सिवाय इसके कि तुम रोते हुए हो, आशंका है कि तुम भी उसी चीज़ से पीड़ित हो जाओ जिससे वे पीड़ित हुए थे।’’ अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने यह बात अल्लाह के नबी सालेह अलैहिस्सलाम की क़ौम समूद के क्षेत्र में असहाबुल हिज्र (पत्थर वालों) के पास से गुज़रते हुए फ़रमाई थी।

तथा सहीहैन की एक रिवायत में यह भी है कि : ‘‘यदि तुम रोनेवाले नहीं हो सकते, तो उन क्षेत्रों में प्रवेश न करो, कहीं ऐसा न हो कि तुम भी उसी चीज़ से पीड़ित हो जाओ जिससे वे पीड़ित हुए थे।’’

अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के साथियों के बारे में यही गुमान है कि यदि उन्हों ने इन लोगों के किसी पूजा स्थल या घर को देखा होगा तो उसमें प्रवेश नहीं किए होंगे, और उसके अंदर की चीज़ों पर अवगत नहीं हुए होंगे।

इस से, वह भ्रम भी दूर हो जाता है कि सहाबा किराम ने अहराम (पिरामिड) और उन में मौजूद चीजों को छोड़ दिया, जबकि इस बात की भी संभावना है कि उस समय में उनके दरवाज़े और प्रवेश द्वार रेत से ढके हुए थे।

तीसरा : आज इन प्रत्यक्ष मूर्तियों में से अधिकतर गुमनाम और छिपी हुई थीं, या उनकी खोज हाल ही में हुई है, या उन्हें दूरदराज़ स्थानों से लाया गया है जहाँ तक नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के सहाबा नहीं पहुँचे थे।

चुनाँचे ज़रकली से अहराम (पिरामिड) और अबुल-हौल आदि के बारे में पूछा गया कि : क्या मिस्र में प्रवेश करने वाले सहाबा ने उनको देख़ा था?

तो उन्हों ने उत्तर दिया : उन में से अधिकतर रेतों में दबे हुए थे, विशेष रूप से अबुलहौल (स्फिंक्स)।

(श्बिहो जज़ीरतिल अरब 4/1188)

फ़िर यह कहा जाएगा कि यदि किसी प्रत्यक्ष मूर्ति की उपस्थिति को मान लिया जाए जो भू निहित नहीं थी, तो इस बात का सबूत (प्रमाण) होना ज़रूरी है कि सहाबा ने उसे देख़ा था, और वे उसको नष्ट करने में सक्षम थे।

वस्तुस्थिति इस बात की साक्षी है कि सहाबा रजियल्लाहु अन्हुम इनमें से कुछ मूर्तियों को गिराने में सक्षम नहीं थे। क्योंकि मशीनरी, उपकरण, विस्फोटकों और संभावनाओं की उपस्थिति के बावजूद इन में से कुछ मूर्तियों को विध्वंस करने में बीस दिन लग गए, हालाँकि ये सारी चीज़ें सहाबा के लिए निश्चित रूप् से उपलब्ध नहीं थीं।

इसका पता इब्ने ख़ल्लदून (मुक़द्दमा, पृष्ठ: 383) के इस उल्लेख से चलता है जिसमें उन्हों ने वर्णन किया है कि : ख़लीफ़ा अल-रशीद ने किस्रा के भवन को गिराने का संकपल्प किया, चुनाँचे इसका आरंभ किया और कार्यकर्ताओं को एकत्र किया, कुल्हाड़ियाँ ले लिए, उसे आग से गरम किया और उसपर सिर्का डाला यहाँ तक कि असक्षम हो गया। इसी प्रकार “ख़लीफ़ा मामून” ने भी मिस्र के अहराम (पिरामिड) को विध्वंस करने का इरादा किया, चुनाँचे उसने कार्यकर्ताओं को इकट्ठा किया लेकिन असमर्थ रहा।

जहाँ तक यह तर्क देने की बात है कि यह मूर्तियाँ मानवीय विरासत हैं, तो यह ऐसी बात है जिसकी ओर ध्यान नहीं दिया जाएगा, क्योंकि लात, उज़्ज़ा, हुबल, मनात और इनके अतिरिक्त अन्य मूर्तियाँ उन लोगों की विरासत हैं जो कुरैश और द्वीप में उनकी पूजा करते थे।

वह विरासत तो है, लेकिन एक हराम (निषिद्ध और वर्जित) विरासत है जिसको नष्ट करना अनिवार्य है। और जब अल्लाह और उसके रसूल का आदेश आ जाए, तो मोमिन व्यक्ति उस आदेश का पालन करने के लिए जल्दी करता है। और इस तरह के कमजोर तर्कों के कारण वह अल्लाह और उसके रसूल के आदेश को रद्द नहीं करता है। अल्लाह तआला का कथन है:

إِنَّمَا كَانَ قَوْلَ الْمُؤْمِنِينَ إِذَا دُعُوا إِلَى اللَّهِ وَرَسُولِهِ لِيَحْكُمَ بَيْنَهُمْ أَن يَقُولُوا سَمِعْنَا وَأَطَعْنَا وَأُوْلَئِكَ هُمُ الْمُفْلِحُونَ [النور :51]

“ईमान वालों का काम तो यह है कि जब वे अल्लाह और उसके रसूल की ओर बुलाए जाएँ ताकि रसूल उनके मुकद्दमे का फ़ैसला करे, तो वे कहें कि हमने सुना और आज्ञा का पालन किया, और ऐसे ही लोग सफ़लता प्राप्त करने वाले हैं।” (अन्नूर: 51)

हम अल्लाह से प्रश्न करते हैं कि वह सभी मुसलमानों को उस चीज़ की तौफीक़ प्रदान करे जिसे वह पसंद करता है और उससे प्रसन्न होता ह।

स्रोत: साइट इस्लाम प्रश्न और उत्तर