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“धर्म पर लानत” जैसे अधूरे शब्द का बोलना तथा कार्य के नष्ट होने और कार्य के सवाब के नष्ट होने के बीच अंतर

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प्रकाशन की तिथि : 23-09-2021

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प्रश्न

उस व्यक्ति का क्या हुक्म है, जिसने क्रोध की अवस्था में “दीन पर लानत” का शब्द बोला और उसे पूरा नहीं कियाॽ तथा कार्य के अकारथ होने और कार्य के सवाब के अकारथ होने के बीच क्या अंतर हैॽ! क्योंकि मैंने पढ़ा है कि मुरतद्द (धर्मत्यागी) व्यक्ति यदि तौबा कर ले, तो उसका अमल बाक़ी रहता है, जबकि अमल का सवाब चला जाता है।

उत्तर का पाठ

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.

सर्व प्रथम :

दीन को बुरा-भला कहना (गाली देना) इस्लाम से निष्कासन और महान अल्लाह के साथ कुफ़्र है।

जिस व्यक्ति ने क्रोध की अवस्था में “यल्अन दीन” (दीन पर लानत करे) कहा, उसने वाक्य पूरा नहीं किया, तो वह दीन को गाली देने वाले और उसपर लानत करने वाले के हुक्म में नहीं है। इसलिए वह अल्लाह से क्षमा याचना करे और उसपर कोई चीज़ अनिवार्य नहीं है। इसके बाद उसे अपने क्रोध को नियंत्रण में रखना चाहिए, ताकि वह विनाश में न पड़े।

दूसरा :

अमल के बर्बाद होने और अमल के सवाब के बर्बाद होने के बीच अंतर : यह है कि अमल के बर्बाद होने का अर्थ : उसका बेकार और अमान्य होना है, और इससे सवाब का बर्बाद होना आवश्यक हो जाता है। रही बात सवाब के बर्बाद होने की, तो उसका मतलब यह है कि इनसान को उसके अमल का कोई सवाब ही न मिले, और इससे यह आवश्यक नहीं होता है कि वह अमल बातिल (बेकार व अमान्य) हो, क्योंकि ऐसा भी हो सकता है कि उसका अमल सही (मान्य) हो, लेकिन इनसान के द्वारा किए गए किसी पाप पर दंड के तौर पर उस अमल का सवाब न मिले। ख़तीब अश-शरबीनी रहिमहुल्लाह ने कहा :

“अमल के सवाब के समाप्त हो जाने से उस अमल का समाप्त (अमान्य) होना आवश्यक नहीं है, इसका प्रमाण यह है कि ग़सब (हड़प) किए गए घर में नमाज़ पढ़ना सही है और क़ज़ा को समाप्त करने वाला है, जबकि अधिकांश विद्वानों के निकट उसमें कोई सवाब नहीं है।”

“मुग़नी अल-मुहताज” (5/427) से उद्धरण समाप्त हुआ।

चुनाँचे बंदा कभी कोई ऐसा काम करता है, जो अपने आप में सही होता है, लेकिन उसके लिए उसमें कोई सवाब नहीं होता है। इसीलिए उस काम से उसकी ज़िम्मेदारी समाप्त हो जाती है, और उसे उस काम को दोबारा करने का आदेश नहीं दिया जाता है।

इफ्ता की स्थायी समिति के विद्वानों ने कहा :

“इमाम मुस्लिम ने अपनी सहीह में नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से रिवायत किया है कि आपने फरमाया : “जो व्यक्ति किसी ग़ैब की बातों के ज्ञान का दावा करने वाले के पास जाता है और उससे किसी चीज़ के बारे में पूछता है, तो उसकी चालीस दिनों के लिए नमाज़ स्वीकार नहीं की जाएगी।” सभी विद्वानों के निकट इससे अभिप्राय : सवाब का इनकार करना है, उसके सही होने की इनकार नहीं है। इसीलिए शराब पीने वाले, भगौड़े गुलाम और ग़ैब के जानने का दावा करने वाले के पास जाकर कुछ पूछने वाले व्यक्ति को नमाज़ दोहराने का आदेश नहीं दिया जाता है।” फतावा अल-लजनह अद-दाईमह (5/144) से उद्धरण समाप्त हुआ।

अतः जो व्यक्ति किसी ग़ैब के जानने का दावा करने वाले के पास जाता है, और वह नमाज़ पढ़ता है, तो उसकी ज़िम्मेदारी पूरी हो जाएगी। चुनाँचे उसका अमल बर्बाद नहीं होगा, लेकिन उसे चालीस रातों के लिए उसका सवाब नहीं मिलेगा। इस तरह उसके अमल का सवाब बर्बाद हो जाएगा।

इब्ने माजह (हदीस संख्या : 4002) ने अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत किया है कि उन्होंने कहा : मैंने अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को फरमाते हुए सुना : “जो भी महिला सुगंध लगाकर मस्जिद जाए, तो उसकी नमाज़ स्वीकार नहीं होती यहाँ तक कि वह स्नान कर ले।”

अलबानी ने इसे “सहीह इब्ने माजह” में सहीह के रूप में वर्गीकृत किया है।

अल-मुनावी रहिमहुल्लाह ने कहा :

“क्योंकि जब तक वह सुगंध लगाई हुई है, उसे नमाज़ का सवाब नहीं मिलेगा। लेकिन उसकी नमाज़ सही है, उसके दायित्व को पूरा करने वाली है और उसे उसकी क़ज़ा करने की ज़रूरत नहीं है। चुनाँचे सवाब के अस्वीकरण को, भय दिलाने और फटकार के तौर पर, स्वीकृति के इनकार के द्वारा अभिव्यक्त किया गया है।” "फैज़ुल-क़दीर" (3/155) से उद्धरण समाप्त हुआ।

तथा उन्होंने “मिरआतुल मफ़ातीह़” (4/56) मे कहा :

“क़बूल होना (स्वीकृति), पर्याप्त होने से अधिक विशेष है, अर्थात् क़बूल न होने से उसका पर्याप्त न होना आवश्यक नहीं है, जो कि बाध्यता (ज़िम्मेदारी) के समाप्त होने का कारण है, और क़बूल होना सवाब का कारण है।” उद्धरण समाप्त हुआ।

अस-सफीरी रहिमहुल्लाह ने “शरह अल-बुखारी” (2/254) में कहा :

“शरीयत के अनुसार क़बूल का शब्द बोला जाता है और उससे अभिप्राय सवाब का प्राप्त होना होता है, और उसके (क़बूल होने के) इनकार से उसके सही होने का इनकार आवश्यक नहीं हो जाता है। बल्कि उस कार्य के सही होने के उपरांत उसके सवाब का इनकार होता है। इसका प्रमाण भगौड़े गुलाम की नमाज़ का सही होना, शराब पीने वाले की नमाज़ का सही होना अगर वह नशे में नहीं है, जब तक कि उसके शरीर में उसमें से कुछ बचा है। तथा शाफेइय्यह के निकट ग़सब (हड़प) किए हुए घर में नमाज़ पढ़ना, तो इनमें से किसी के लिए कोई सवाब नहीं है।

तथा कभी क़बूल के शब्द को बोलकर उस कार्य का शुद्ध रूप से होना मुराद लिया जाता है। और इस स्थिति में उसके अस्वीकार करने से उसके सही (शुद्ध) होने का इनकार करना आवश्यक हो जाता है।” उद्धरण समाप्त हुआ।

तीसरा :

यदि धर्मत्यागी तौबा कर लेता है, तो उसका इस्लाम की अवस्था में पिछला अच्छा काम नष्ट नहीं होगा। इफ्ता की स्थायी समिति के विद्वानों ने कहा :

“जो व्यक्ति इस्लाम से मुरतद्द (विमुख) हो गया, फिर उसमें वापस लौट आया, तो उसने अपने इस्लाम के दिनों में जो अच्छे कार्य किए थे, वे बर्बाद नहीं होंगे। क्योंकि अल्लाह तआला का फरमान है :

 وَمَنْ يَرْتَدِدْ مِنْكُمْ عَنْ دِينِهِ فَيَمُتْ وَهُوَ كَافِرٌ فَأُولَئِكَ حَبِطَتْ أَعْمَالُهُمْ فِي الدُّنْيَا وَالْآخِرَةِ وَأُولَئِكَ أَصْحَابُ النَّارِ هُمْ فِيهَا خَالِدُونَ 

[سورة البقرة : 217]

“और तुम में से जो कोई अपने दीन से फिर जाए और काफ़िर होकर मरे, तो ऐसे ही लोग हैं जिनके कर्म दुनिया और आख़िरत में नष्ट हो गए, और वही लोगो आग (जहन्नम) में जाने वाले हैं, वे उसी में सदैव रहेंगे।” (सूरतुल बक़रा : 217)

तो अल्लाह ने कार्य के बर्बाद होने में उस आदमी के कुफ़्र की अवस्था में मरने की शर्त लगाई है।” “फतावा अल-लज्नह अद-दाईमह” (2/201) से उद्धरण समाप्त हुआ।

जहाँ तक उसके इस कथन का संबंध है कि उसका अमल बाक़ी रहता है और उसका सवाब चला जाता है : तो यह एक गलत कथन है।

और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।

स्रोत: साइट इस्लाम प्रश्न और उत्तर