रविवार 21 जुमादा-2 1446 - 22 दिसंबर 2024
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उसे संदेह है कि उसने यौवन तक पहुँचने के बाद रमज़ान का रोज़ा रखा या नहीं, तो उसे क्या करना चाहिएॽ

प्रश्न

मैं 10 या 9 साल की आयू में यौवन को पहुँच गई थी। लेकिन मुझे बिल्कुल भी याद नहीं है कि मैंने यौवन के पहले सालों में रोज़ा रखा था या नहीं। मैं संशय में हूँ कि मुझे क्या करना चाहिए, क्या मैं उन दिनों की क़ज़ा करूँॽ

उत्तर का पाठ

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.

पहला :

यदि आपकी छोटी उम्र से ही रोज़ा रखने की आदत थी, तो मूल सिद्धांत यह है कि आपने रोज़ा रखा है। इसलिए संदेह पर ध्यान न दें।

और यदि रोज़ा रखना आपकी आदत नहीं थी, तो प्रत्यक्ष यही होता है कि आपके लिए दूसरों की गवाही पर अमल करना जायज़ है। अतः आप अपने घरवालों से पूछें। यदि वे कहते हैं : तुमने रोज़ा रखा है, तो आपको कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं है। और उनकी गवाही प्रबल गुमान का लाभ देती है, और शरीयत के अहकाम प्रबल गुमान पर आधारित होते हैं जिस तरह कि वे निश्चितता (यक़ीन) पर आधारित होते हैं।

धर्मशास्त्र के नियमों में से एक नियम यह है कि : “सबसे बड़ी राय पर अमल करना जायज़ है।”

डॉ मुहम्मद सिद्क़ी अल-बिरनो ने “मौसूअतुल-क़वाइद (7/456) में कहा : “सबसे बड़ी राय से अभिप्राय : गुमान की प्रबलता तथा राजेह (अधिक संभावित) पक्ष का बोध है।

इस नियम का आशय : यह है कि अनिश्चितता की स्थिति में प्रबल गुमान (अनुमान) के आधार पर निर्णय करना पर्याप्त है। क्योंकि अधिकांश हुक्मों में निश्चितता (यक़ीन) को आधार बनाना संभव नहीं है।” उद्धरण समाप्त हुआ।

दूसरा :

यदि इस बात का प्रबल गुमान नहीं है कि आपने रोज़ा रखा था, तो आपके लिए रोज़ों की क़ज़ा करना आवश्यक है; क्योंकि मूल सिद्धांत न करना है (यानी असल यही है कि आपने रोज़ा नहीं रखा है)।

“क़राफ़ी” ने अल-फ़ुरुक़ (1/227) में कहा है : “यदि उसे संदेह हो कि उसने रोज़ा रखा है या नहींॽ तो उसके लिए रोज़ा रखना अनिवार्य है।” उद्धरण समाप्त हुआ।

यह सब इस स्थिति में है अगर प्रश्नकर्ता वसवसा से ग्रस्त नहीं है, और यदि वह वसवसा से ग्रस्त है, तो उसे कुछ भी करने की ज़रूरत नहीं है, और उसे वसवसा पर ध्यान नहीं देना चाहिए।

और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।

स्रोत: साइट इस्लाम प्रश्न और उत्तर