मंगलवार 14 शव्वाल 1445 - 23 अप्रैल 2024
हिन्दी

हकलाने वाले व्यक्ति की इमामत का हुक्म

50536

प्रकाशन की तिथि : 20-02-2015

दृश्य : 3350

प्रश्न

हमारा इमाम ''त़ा'' को ''ज़ाद'' पढ़ता है, अतः उसकी इमामत का क्या हुक्म है?

उत्तर का पाठ

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह के लिए योग्य है।

जो व्यक्ति किसी श्ब्द को किसी अन्य श्ब्द से बदल दे, उसे हकला कहा जाता है।

ऐसे व्यक्ति की कई हालतें हैं :

प्रथम हालत : उसकी हकलाहट साधारण हो, इस तौर से कि वह मूल अक्षर तो बोलता हो, परंतु पूर्ण रूप् से उसका उच्चारण करने में कुछ कमी रह जाती हो। तो यह हकलाहट हानिकारक नहीं है, और वह इमामत भी करा सकता है।

''तोहफ़तुल मिनहाज'' (2/285) में आया है कि : “थोड़ा सी हकलाहट इस तौर पर कि वह उसके मूल मख्रज (अक्षर के निकलने के स्थान) में रूकावट न बनता हो, हानिकारक नहीं है, अगरचे वह साफ़ और स्पष्ट न हो।'' अंत हुआ।

मरदावी रहिमहुल्लाह ने ''अल-इनसाफ़'' (2/271) में “आमिदी'' से उन का यह कथन उल्लेख किया है कि: ‘‘थोड़ी सी हकलाहट नमाज़ के सही होने में रूकावट नहीं है, लेकिन अधिक हकलाहट इसमें रूकावट है।'' अंत हुआ

दूसरी हालत :

उस की हकलाहट बहुत अधिक हो, इस तौर से कि वह एक अक्षर को दूसरे अक्षर से बदल दे, और वह उसके उच्चारण को सही करने में सक्षम हो लेकिन वह ऐसा न करे। तो उसकी न नमाज़ सही होगी और न ही उस की इमामत, यदि वह अक्षर सूरतुल-फ़ातिहा में है।

इमाम नववी रहिमहुल्लाह “अल मजमूअ“ (4/359) में फरमाते हैं कि : “नमाज में सूरतुल्-फातिहा को उसके सारे अक्षरों और उस के तश्दीद के साथ पढ़ना अनिवार्य है..... यदि किसी ने कोई अक्षर छोड़ दिया, या तश्दीद को हल्का कर दिया या अपनी ज़ुबान के सही होने के बावजूद़ किसी अक्षर को किसी अन्य अक्षर से बदल दिया, तो उस की किराअत सही नहीं है।’’ अंत हुआ।

तथा वह एक दूसरे स्थान (4/166) पर कहते हैं कि : “हकलाने वाला व्यक्ति यदि सीख़ने में सक्षम था तो उसकी स्वयं की नमाज बातिल (अमान्य) है, अतः बिना किसी मतभेद के उस के पीछे नमाज पढ़ना जायज़ नहीं है।'' अंत हुआ।

इब्ने क़ुदामा “अल-मुग्नी” (2/15) में फरमाते हैं कि : “जिस व्यक्ति ने असमर्थ होने के कारण सूरतुल-फ़ातिहा का कोई अक्षर छोड़ दिया, या उसे किसी अन्य अक्षर से बदल दिया जैसे कि हकला व्यक्ति जो ''रा'' को ''गैन'' बना देता है . . . यदि वह उस में किसी भी गलती को सुधारने में सक्षम था, फिर भी उसने नहीं सुधारा, तो उस की नमाज सही नहीं है, और न ही उस के पीछे नमाज़ पढ़ने वाले मुक़तदी की नमाज सही है।” संक्षेप के साथ समाप्त हुआ।

तीसरी हालत :

उसकी हकलाहट बहुत गंभीर हो, इस तौर पर कि वह एक अक्षर को दूसरे अक्षर से बदल देता हो, लेकिन उसके अंदर उसके उच्चारण को शुद्ध करने की शक्ति न हो, तो विद्वानों की सर्वसम्मति के साथ उसकी नमाज़ सही है।

इमाम नववी रहिमहुल्लाह “अल मजमूअ” (4/166) में फरमाते हैं कि : “और अगर हकला व्यक्ति शिक्षा प्राप्त करने में सक्षम न हो, क्योंकि उस की जुबान उसका साथ न देती हो, या समय तंग हो और इससे पहले वह समक्ष न रहा हो ; तो उसकी स्वयं की नमाज सही है।” कुछ परिवर्तन के साथ अंत हुआ।

विद्वानों ने उसकी इमामत के सही होने या न होने के बारे में इख्तिलाफ किया है ?

चुनाँचे बहुत से या अधिकतर विद्वानों का मानना यह है कि उसकी इमामत सही नहीं है, जबकि कुछ दूसरे विद्वान इस बात की ओर गए हैं कि उसकी इमामत सही है।

इमाम नववी रहिमहुल्लाह ने “अल मजमूअ” (4/166) में वर्णन किया है कि : इमाम मुज़नी, अबू सौर, और इब्नुल मुन्ज़िर ने उसकी इमामत सही होने का मत अपनाया है, और यही अता, और क़तादा का भी मत है।

तथा “हाशिया इब्ने आबिदीन” (1/582) में हनफी मत के कुछ विद्वानों से हकलाने वाले व्यक्ति की इमामत के सही होने के कथन को चयन करने का उल्लेख किया गया है।

इन लोगों ने कुछ दलीलों से तर्क स्थापित किया है, जिनमें से कुछ निम्नलिखित हैं :

1- अल्लाह तआला का यह फरमान है :

لا يُكَلِّفُ اللَّهُ نَفْساً إِلاَّ وُسْعَهَا[البقرة: 286].

‘‘अल्लाह तआला किसी प्राणी पर उसकी शक्ति से अधिक भार नहीं डालता।’’ (सूरतुल बक़रा : 286)

अगर वह व्यक्ति उस शब्द को सही से अदा करने में असक्षम है तो उसे केवल उतने ही का मुकल्लफ (ज़िम्मेदार) बनाया जायेगा जिसकी वह क्षमता रखता है।

2. उसे नमाज़ के अंदर खड़े होने में असमर्थता पर क़ियास (अनुमानित) करना, जिस प्रकार कि क़ियाम (खड़ा होना) नमाज़ का एक रूक्न (स्तंभ) है, जिसके बिना फर्ज़ नमाज़ सही नहीं होती है, लेकिन उसमें असमर्थता के कारण वह अनिवार्यता समाप्त हो जाती है, और उसमें असमर्थ व्यक्ति की इमामत भी सही होती है, तो इसी प्रकार हकलाने वाले की भी नमाज़ सही होगी, क्योंकि वह शुद्ध उच्चारण करने में असमर्थ है।

देखें : ‘‘अल-मजमूअ’’ (4/166)

इब्ने हज़्म अल-मुहल्ला (3/134) में फरमाते हैं कि : हकला और तोतला व्यक्ति (जिसकी किराअत स्पष्ट नहीं होती है) और गैर अरबी भाषा वाला (जो ज़ाद और ज़ा, सीन और साद आदि के बीच फर्क़ नहीं कर पाता है) और बहुत अधिक लह्न करने वाला (जो एराब में बहुत गलतियाँ करता है) तो इन लोगों की इक़्तिदा (अनुकरण) करनेवाले की नमाज़ सही है। क्योंकि अल्लाह सुबहानहु व तआला का फरमान है :

لا يُكَلِّفُ اللَّهُ نَفْساً إِلاَّ وُسْعَهَا [البقرة: 286].

''अल्लाह तआला किसी प्राणी पर उसकी शक्ति से अधिक भार नहीं डालता।'' (सूरतुल बक़रा : 286)

अतः उन को उतना ही मुकल्लफ (ज़िम्मेदार) किया जाएगा जिसकी वे क्षमता रखते हैं, न की उस चीज़ का मुकल्लफ किया जाएगा जिसकी वे क्षमता नहीं रखते हैं। उन्होंने नमाज़ उसी प्रकार से अदा की है जिस तरह उन्हें आदेश दिया गया है, और जो मनुष्य उसी प्रकार से नमाज़ अदा करे जिस प्रकार से उसे आदेश दिया गया है, तो वह अच्छा करने वाला है।

अल्लाह तआला का फरमान हैः

مَا عَلَى الْمُحْسِنِينَ مِنْ سَبِيلٍ

''उत्तमकारों पर इलज़ाम का कोई रास्ता नहीं है।'' (सूरतुत तौबाः 91)'' अंत हुआ।

शैख इब्ने उसैमीन रहिमहुल्लाह से प्रश्न किया गया कि :

मैं ने एक व्यक्ति को कहते हुए सुना है कि हकलाने वाले व्यक्ति की इमामत सही नहीं होती है अथार्त उसके पीछे नमाज़ पढ़ना सही नहीं है, क्योंकि उस में दोष पाया जाता है, तो क्या यह बात सही है? अल्लाह तआला आपको तौफीक़ प्रदान करे।

तो शैख रहिमहुल्लाह ने उत्तर दिया कि :

कुछ विद्ववानों के निकट यह बात सही है, उनका विचार यह है कि हकला व्यक्ति यदि उसकी हकलाहट अक्षरों को आपस में एक दूसरे अक्षर से बदलने के द्वारा है, जैसे: रा को गैन में बदल दे, या उसे लाम में बदल दे या इसी के समान अन्य परिवर्तन, तो कुछ विद्वानों का मानना है कि इसकी इमामत सही नहीं है, क्योंकि यह उस अनपढ़ व्यक्ति की तरह है जिसकी इमामत केवल अपने ही तरह के लोगों के लिए सही है।

जबकि कुछ दूसरे विद्वानों का विचार यह है कि उसकी इमामत सही है क्योंकि जिसकी नमाज़ सही है, उसका इमामत करवाना भी सही है और इस लिए भी क्योंकि उस ने अपने ऊपर अनिवार्य चीज़ को अदा किया है, और वह यथा शक्ति अल्लाह तआला का तक़्वा (ईश्वर भय) है। जबकि अल्लाह सुबहानहु व तआला का फरमान है :

لا يُكَلِّفُ اللَّهُ نَفْساً إِلاَّ وُسْعَهَا [البقرة: 286].

''अल्लाह तआला किसी प्राणी पर उसकी शक्ति से अधिक भार नहीं डालता।'' (सूरतुल बक़रा : 286)

और जब क़ियाम (खड़े होने) से असमर्थ व्यक्ति, क़ियाम की शक्ति रखने वालों की इमामत करवा सकता है, तो यह भी उसी के समान है, क्योंकि उन में से हर एक रूक्न (स्तंभ) को पूरा करने में असक्षम है, यह क़ियाम करने से और वह किराअत से। और यही कथन सही है कि हकलाने वाले की इमामत सही है, भले ही वह एक अक्षर को किसी अन्य अक्षर से बदल देता है, जब तक कि उस में मात्र इतनी ही शक्ति है।

परंतु इस के बावजूद उचित यह है कि लोगों के समूह से नमाज़ पढ़ाने के लिए किसी ऐसे मनुष्य को चुना जाए जिसमें कोई दोष न हो, यह सावधानी के तौर पर, और इख्तिलाफ से बचने के लिए है।'' ''फ़तावा नूरून अलद-दर्ब''

तथा देखें : ''अश-शरहुल मुमतिओ'' (4/248-249)

दूसरा : प्रश्नकर्ता ने जो यह वर्णन किया है कि : उनका इमाम ''ता'' को ''ज़ाद'' से बदल देता है, तो यदि वह वास्तव में उसे ज़ाद में बदल देता है, तो इसका हुक्म वर्णन किया जा चुका है, और अगर यह तबदीली दूर प्रकट होती है, तो यह संभव है कि यह इमाम (ता) ही अदा करता है, लेकिन उसे कुछ ‘‘ज़ाद’’ के निकट कर देता है, तो इस प्रकार यह साधारण हकलाहट है, जो हानिकारक नहीं है।

और यह भी हो सकता है कि यह प्रश्नकर्ता की ओर से कुअवसर सख्ती हो।

स्रोत: साइट इस्लाम प्रश्न और उत्तर