शनिवार 20 जुमादा-2 1446 - 21 दिसंबर 2024
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रग़ाइब की नमाज़ की बिदअत

प्रश्न

क्या रगाइब की नामज़ सुन्नत है जिसको पढ़ना मुसतहब है?

उत्तर का पाठ

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.

रग़ाइब की नमाज़ रजब के महीने में अविष्कार कर ली गई बिदअतों में से है। यह रजब के महीने के पहले जुमा की रात को मग़रिब और इशा की नमाज़ के बीच होती है। उससे पहले जुमेरात का रोज़ा रखा जाता है, जो रजब के महीने की पहली जुमेरात होती है।

सर्व प्रथम रग़ाइब की नमाज़ की ईजाद बैतुल मक़्दिस में वर्ष 480 हिज्री के बाद हुई। तथा यह बात उल्लिखित नहीं है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने, या आपके सहाबा में से किसी ने, या सर्वश्रेष्ठ सदियों में किसी ने, या इमामों में से किसी ने इसे किया है। और अकेले यही बात यह प्रमाणित करने के लिए काफ़ी है कि यह एक निंदित बिदअत (नवाचार) है, कोई सराहनीय सुन्नत नहीं है।

विद्वानों ने इससे सावधान किया है और उल्लेख किया है कि यह एक बिद्अत और पथ भ्रष्टता है।

इमाम नववी रहिमहुल्लाह ने ‘‘अल-मजमूअ’’ (3/548) में उल्लेख किया है कि :

‘‘रग़ाइब के नाम से परिचित नमाज़ और वह बारह रकअत है जो रजब के महीने के पहले जुमा की रात को मगरिब और इशा की नमाज़ के बीच पढ़ी जाती है, तथा अर्ध शाबान की रात की नमाज़ जो सौ रकअत है, यह दोनों नमाज़ें घृणित और निंदित बिदअतें हैं। इन दोनों के ‘‘क़ूतुल क़ुलूब’’ और ‘‘एहयाओ उलूमिद्दीन’’ नामी किताबों में वर्णन से धोखा नहीं खाना चाहिए, न तो इन दोनों के बारे में वर्णित हदीस से धोखा खाना चाहिए। क्योंकि वह सब असत्य और झूठी हैं। इसी तरह कुछ ऐसे इमामों से भी धोखा नहीं खाना चाहिए जिनके ऊपर इन दोनों का हुक्म संदिग्ध रह गया है और उन्हों ने उनके मुस्तहब होने के बारे में कुछ पन्ने लिखे हैं, क्योंकि उनसे इस बारे में त्रुटि हो गई है। शैख इमाम अबू मुहम्मद अब्दुर्रहमान बिन इसमाईल अल-मक़्दसी ने इन दोनों नवाचारों के खण्डन में एक अच्छी किताब लिखी है। चुनाँचे आप रहिमहुल्लाह ने बहुत अच्छी और बढ़िया बात की है।‘‘

तथा नववी ने ‘‘शरह सहीह मुस्लिम’’ में यह - भी - कहा है की :

‘‘अल्लाह तआला उसके गढ़नेवाले और उसका अविष्कार करनेवाले का सर्वनाश करे, क्योंकि यह उन बिद्अतों - नवाचारों - में से एक निंदित बिद्अत है जो कि पथ भ्रष्टता और अज्ञानता है और उसमें स्पष्ट बुराइयाँ और असत्य बातें पाई जाती हैं। महा विद्वानों (इमामों) के एक समूह ने उसके दोष और खराबी का वर्णन करने और उस नमाज़ के पढ़नेवाले और उसका अविष्कार करने वाले को पथ भ्रष्ट और गुमराह ठहराने के बारे में मूल्यवान पुस्तकें लिखी हैं। उसके घृणित और असत्य होने तथा उसके करनेवाले को पथ भ्रष्ट करार देने के प्रमाण इससे अधिक हैं कि उन्हें शुमार किया जा सके।’’ समाप्त हुआा।

तथा इब्ने आबेदीन ने अपने ‘‘हाशिया’’ (2/26) में फरमाया :

‘‘किताब ‘‘अल-बह्र’’ में कहा गया है कि : यहाँ से इस बात का पता चलता है कि रग़ाइब की नमाज़ के लिए, जो रजब के महीने में उसके पहले शुक्रवार को पढ़ी जाती है, एकत्र होना मकरूह (अनेच्छिक) है, और यह कि वह एक बिदअत (नवाचार) है . . .

तथा अल्लामा नूरूद्दीन अल-मक़्दसी की इसके बारे में एक अच्छी पुस्तक है जिसका नाम उन्हों ने ‘‘रद्उर राग़िब अन सलातिर-रग़ाइब’’ रखा है, जिसमें उन्होंने चारों मतों के पहले और बाद के विद्वानों की अधिकांश बातों को समेट दिया है।’’ संक्षेप के साथ समाप्त हुआ।

तथा इब्ने हजर अल-हैतमी रहिमहुल्लाह से प्रश्न किया गया : क्या जामअत के साथ रग़ाइब की नमाज़ पढ़ना जायज़ है या नहीं?

तो उन्हों ने उत्तर दिया : ‘‘जहाँ तक रग़ाइब की नमाज़ का संबंध है तो वह अर्ध शाबान की रात को परिचित नमाज़ के समान घृणित और निंदित बिदअत है और उनके बारे में वर्णित हदीस मनगढ़ंत है, अतः उन्हें अकेले अथवा जमाअत के साथ पढ़ना मकरूह (अनेच्छिक) है।’’ समाप्त हुआ।

‘‘अल-फतावा अल-फिक़्हिय्या अल-कुबरा’’ (1/216) .

तथा इब्नुल हाज्ज अल-मालिकी ने ‘‘अल-मदखल’’ (1/294) में फरमाया:

‘‘तथा उन बिद्अतों में से जो उन्हों ने इस महीने (यानी रजब के महीने) में ईजाद किया है यह है कि : वे उसके पहले जुमा की रात को मस्जिदों, जाम मस्जिदों में रग़ाइब की नमाज़ पढ़ते हैं, और शहर की कुछ जामा मस्जिदों और मस्जिदों में एकट्ठा होते हैं और यह बिद्अत करते हैं, और जमाअतों की मस्जिदों में इमाम और जमाअत के साथ उसका इस तरह प्रदर्शन करते हैं कि गोया वह एक धर्मसंगत नमाज़ है . . . जहाँ तक इमाम मालिक रहिमहुल्लाह के मत का संबंध है : तो रग़ाइब की नमाज़ को पढ़ना मकरूह है, क्योंकि वह बीते हुए लोगों के कृत्यों में से नहीं है, और सारी भलाई उन लोगों का अनुसरण करने में है।’’ संक्षेप के साथ समाप्त हुआ।

तथा शैखुल इस्लाम इब्ने तैमिय्या रहिमहुल्लाह ने फरमाया:

‘‘रही बात एक नियमित संख्या और निश्चित क़िराअत (पाठ) के साथ एक निर्धारित समय पर किसी नमाज़ को अविष्कार करके नियमित रूप से जमाअत के साथ पढ़ने की, जैसे कि ये नमाज़ें जिनके बारे में प्रश्न किया गया है: जैसे - रजब के महीने के पहले शुक्रवार को रग़ाइब की नमाज़, प्रथम रजब को हज़ारी नमाज़, अर्ध शाबान की नमाज़ तथा रजब की सत्ताइसवीं रात की नमाज़ और इस तरह की अन्य नमाज़ें, तो यह सब इस्लाम के इमामों की सर्व सहमित के साथ अवैध व नाजायज़ हैं, जैसा कि विश्वसनीय विद्वानों ने स्पष्ट रूप से इसका उल्लेख किया है। इस तरह की चीज़ एक अज्ञानी बिदअती ही कर सकता है, और इस तरह का दरवाज़ा खोलना इस्लाम के प्रावधानों को परिवर्तित करने और उन लोगों की हालत को अपनाने का कारण बनता है, जिन्हों ने दीन में ऐसी चीज़ों को धर्मसंगत क़रार दिया जिनकी अल्लाह ने अनुमति नहीं दी है।’’ समाप्त हुआ।

‘‘अल-फतावा अल-कुबरा’’ (2/239)

तथा शैखुल इस्लाम से उसके बारे में पूछा गया तो उन्हों ने कहा :

‘‘इस नमाज़ को न अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने पढ़ी है, न आपके सहाबा में से किसी ने, न ताबेईन ने और न ही मुसलमानों के इमामों ने पढ़ी है। तथा न तो अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने इसकी रूचि दिलाई है, न किसी सलफ (पूर्वज) ने और न इमामों ने, और न तो उन्हों ने इस रात की किसी विशिष्ट फज़ीलत का उल्लेख किया है। इसके बारे में नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से वर्णित हदीस उसके विशेषज्ञों की सर्व सहमति के साथ झूठी और मनगढ़ंत है ; इसीलिए अनुसंधानकर्ता विद्वानों का कहना है कि : यह मकरूह (अनेच्छिक) है, मुस्तहबनहीं है।’’ समाप्त हुआ।

‘‘अल-फतावा अल-कुब्रा’’ (2/262) .

तथा ‘‘अल-मौसूअतुल फिक़्हिय्या’’ (22/262) में आया है कि:

‘‘हनफिय्या और शाफेईय्या ने इस बात को स्पष्ट रूप से उल्लेख किया है कि रजब के पहले शुक्रवार को, या अर्ध शाबान की रात में, एक विशिष्ट विधि के साथ, या रकअतों की एक विशिष्ट संख्या के साथ रग़ाइब की नमाज़, एक निंदित बिद्अत (नवाचार) है ...

तथा अबुल फरज इब्न अल-जौज़ी कहते हैं : ‘‘रग़ाइब की नमाज़ अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर गढ़ ली गई और झूठ बांधी गई है। वह कहते हैं : विद्वानों ने उसके बिद्अत होने और मकरूह होने के कई कारणों का उल्लेख किया है, उनमें से एक यह है कि : सहाबा, ताबेईन और उनके बाद मुजतहिद इमामों से यह दोनों नमाज़ें उद्धृत नहीं हैं, यदि वे दोनों धर्मसंगत होतीं तो सलफ से नहीं छूटतीं, बल्कि वे दोनों नमाज़ें चार सौ वर्ष बाद अविष्कार हुई हैं।’’ समाप्त हुआ।

स्रोत: साइट इस्लाम प्रश्न और उत्तर