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क़ब्रों के पुजारियों का अंतिम संस्कार करना

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प्रकाशन की तिथि : 06-07-2012

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प्रश्न

अल्लाह तआला फरमाता है :
ما كان للنبي والذين آمنوا أن يستغفروا للمشركين ولو كانوا أولي قربى من بعد ما تبين لهم أنهم أصحاب الجحيم [التوبة : 113]
पैगंबर और दूसरे मुसलमानों के लिए अनुमति नहीं है कि मूर्तिपूजकों (मुशरिकों) के लिए माफ़ी की दुआ करें, अगरचे वे रिश्तेदार ही हों, इस तथ्य के स्पष्ट हो जाने के बाद कि ये लोग नरक में जायेंगे।” (सूरतुत तौबा : 113).
पिछली आयत का प्रत्यक्ष अर्थ शिर्क करने वालों (अनेकेश्वरवादियों) के लिए इस्तिग़फार करने से रोकता है, चाहे वे रिश्तेदार ही क्यों न हों, हम दीहातियों में से बहुत से लोग ऐसे हैं जिनके माता पिता और रिश्तेदार हैं, और उनकी क़ब्रों के पास बलि करने और क़ब्र वालों का वसीला लेने, तथा आपदाओं को टालने और बीमारों का रोग निवारण करने में क़ब्र वालों को मध्यस्थ बनाकर चढ़ावे चढ़ाने और मदद मांगने की आदत थी, और वे इसी स्थिति में मर चुके हैं, जबकि उनके पास कोई ऐसा व्यक्ति नहीं पहुँचा जो उन्हें तौहीद (एकेश्वरवाद) के अर्थ और ला इलाहा इल्लल्लाह के मतलब से परिचित करा सके, तथा उनके पास ऐसे लोग नहीं पहुँचे जो उन्हें यह शिक्षा दे सकें कि नज़र या मन्नत मानना और दुआयें, इबादत हैं जिनको केवल अल्लाह के लिए ही करना जायज़ है। तो क्या उनके जनाज़े (अंतिम संस्कार) में जाना, उन पर नमाज़ (जनाज़ा) पढ़ना, उनके लिए दुआ व इस्तिग़फार करना, उनकी आवश्यकताओं को पूरा करना और उन पर सदक़ा व खैरात करना जायज़ है ॽ

उत्तर का पाठ

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.

जो आदमी उस स्थिति पर मर गया जो आप ने वर्णन की है तो उसके जनाज़े में चलना, उसके ऊपर नमाज़ पढ़ना, उसके लिए दुआ व इस्तिग़फार करना, उसके हज्ज की क़ज़ा करना, तथा उसकी ओर से सदक़ा करना जायज़ नहीं है ; क्योंकि उसके उल्लिखित कार्यशिर्क (अल्लाह के साथ दूसरों को साझी ठहराने) के कार्यों में से हैं, और अल्लाह सर्वशक्तिमान ने पिछली आयत में फरमाया :

ما كان للنبي والذين آمنوا أن يستغفروا للمشركين ولو كانوا أولي قربى من بعد ما تبين لهم أنهم أصحاب الجحيم [التوبة : 113]

“पैगंबर और दूसरे मुसलमानों के लिए अनुमति नहीं है कि मूर्तिपूजकों (मुशरिकों) के लिए माफ़ी की दुआ करें, अगरचे वे रिश्तेदार ही हों, इस तथ्य के स्पष्ट हो जाने के बाद कि ये लोग नरक में जायेंगे।” (सूरतुत तौबा : 113).

तथा नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से प्रमाणित है कि आप ने फरमाया : “मैं ने अपने पालनहार से अपनी माँ के लिए इस्तिग़फार करने की अनुमति मांगी तो मुझे उसने अनुमति नहीं प्रदान की, तथा मैं ने उस से उनकी क़ब्र की ज़ियारत करने की अनुमति मांगी तो मुझे अनुमति प्रदान कर दी।”इसे अहमद 2/441, 5/355, 359, मुस्लिम 2/671 (हदीस संख्या : 976), अबू दाऊद 3/557 (हदीस संख्या : 3234), नसाई 4/90 (हदीस संख्या : 2034), इब्ने माजा 1/501 (हदीस संख्या : 1572), इब्ने अबी शैबा 3/343, इब्ने हिब्बान 7/440 (हदीस संख्या : 3169), हाकिम 1/375-376, 376, और बैहक़ी 4/76 ने रिवायत किया है।

तथा वे इस कारण माज़ूर (क्षम्य) नहीं समझे जायेंगे कि उनके पास कोई व्यक्ति नहीं आया जो उनके लिए यह स्पष्ट करे कि ये चीज़ें जिसे वे करतें हैं शिर्क है ; क्योंकि क़ुरआन करीम में इसके प्रमाण स्पष्ट हैं, और ज्ञानी व विद्वान लोग उनके बीच मौजूद हैं, अतः उनके लिए शिर्क की उस स्थिति के बारे में प्रश्न करना संभव है जिस पर वे क़ायम हैं, लेकिन उन्हों ने उपेक्षा किया और जिस स्थिति पर क़ायम थे उसी पर बाक़ी रहे।

और अल्लाह तआला ही तौफीक़ प्रदान करने वाला है, तथा अल्लाह तआला हमारे नबी मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम, आपकी संतान और साथियों पर दया और शांति अवतरित करे।

स्रोत: इफ्ता और वैज्ञानिक अनुसंधान की स्थायी समिति 9/12