शुक्रवार 21 जुमादा-1 1446 - 22 नवंबर 2024
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क़ुर्बानी के जानवर से क्या खाया जाएगा और क्या वितरित किया जाएगा

प्रश्न

हमें क़ुर्बानी के जानवर के साथ क्या करना चाहिए? क्या हम उसे तीन हिस्से में विभाजित करें या चार हिस्से में?

उत्तर का पाठ

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.

क़ुर्बानी करनेवाले के लिए धर्मसंगत है कि वह अपने क़ुर्बानी के गोश्त से कुछ खाए, कुछ उपहार के तौर पर दे और कुछ दान करे। क्योंकि अल्लाह तआला का कथन हैः

( فَكُلُواْ مِنْهَا وَأَطْعِمُواْ الْبَآئِسَ الْفَقِيرَ ) [الحج: 36]

‘‘तो उनमें से स्वयं भी खाओ औऱ संतोष से बैठनेवालों को भी खिलाओ और माँगनेवालों को भी।’’ [सूरतुल हज्ज :36] 

तथा अल्लाह तआला का फरमान हैः

( فَكُلُواْ مِنْهَا وَأَطْعِمُواْ الْقَانِعَ وَالْمُعْتَرَّ كَذلِكَ سَخَّرْنَاهَا لَكُمْ لَعَلَّكُمْ تَشْكُرُونَ ) [الحج: 36]

‘‘तो उनमें से स्वयं भी खाओ औऱ संतोष से बैठनेवालों को भी खिलाओ और माँगनेवालों को भी। इसी तरह हमने उनको तुम्हारे लिए वशीभूत कर दिया है, ताकि तुम कृतज्ञता दिखाओ।’’ [सूरतुल हज्ज :36] 

सलमह बिन अकवा रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः ‘‘खाओ, खिलाओ और ज़ख़ीरा (स्टोर) करो।’’ इसे बुखारी ने रिवायत किया है। खिलाने का अर्थ धनवानों को उपहार देने और निर्धनों को दान देने को शामिल है। तथा आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा से वर्णित है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः ‘‘खाओ, ज़ख़ीरा (स्टोर) करो और दान करो।’’ इसे मुस्लिम ने रिवायत किया है।

विद्वानों (अल्लाह तआला उनपर दया करे) ने उस मात्रा के विषय में मतभेद किया है जो खाया जाएगा तथा उपहार और दान के रूप में दिया जाएगा। इस बारे में मामले में विस्तार है, लेकिन सबसे अच्छा तरीक़ा यह है कि एक तिहाई खाया जाए, एक तिहाई उपहार के रूप में दिया जाए और एक तिहाई दान के तौर पर दिया जाए। क़ुर्बानी के गोश्त में से जिसका खाना जायज़ है उसका स्टोर करना भी जायज़ है, भले ही वह एक लंबे समय तक बाक़ी रहे, बशर्ते कि वह इस सीमा तक न पहुँचे कि उसे खाने से किसी भी तरह की हानि हो, सिवाय इसके कि वह अकाल का समय हो तो ऐसी स्थिति में उसे तीन दिन से अधिक स्टोर कर रखने की अनुमति नहीं है। क्योंकि सलमह बिन अल-अकवा रज़ियल्लाहु अन्हु की हदीस है कि उन्होंने कहा : अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "तुम में से जो भी क़ुर्बानी करे तो तीन दिन के बाद उसके घर में उसमें से कुछ भी बाक़ी न बचे।" फिर जब अगला साल आया तो लोगों ने कहा, "हे अल्लाह के पैगंबर, क्या हम वैसे ही करें जैसा हमने पिछले वर्ष किया था? तो आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः (कुछ) खाओ, (कुछ) दूसरों को खिलाओ और (कुछ) स्टोर करो। दरअसल पिछले साल लोगों को एक कठिन समय का सामना था। अतः मैं चाहता था कि तुम उसमें (जरूरतमंद लोगों की) मदद करो।" इसे रिवायत करने में बुखारी व मुस्लिम की सर्वसहमति है।

क़ुर्बानी के जानवर का मांस खाने और उपहार के तौर पर देने के जायज़ होने के संबंध में इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह क़ुर्बानी (बलिदान) स्वैच्छिक है या अनिवार्य है, या वह किसी जीवित व्यक्ति की ओर से है या किसी मृतक की ओर से, अथवा वह किसी वसीयत के तौर पर है। क्योंकि जिसको वसीयत की गई है वह उस व्यक्ति की जगह ले लेता है जो वसीयत करनेवाला है, और जो व्यक्ति वसीयत करनेवाला है, वह खाता तथा उपहार में देता और दान करता है। और क्योंकि लोगों में यही रीति-रिवाज़ और परंपरा है, और जो भी परंपरागत और सामान्य रूप से किया जाता है वह शाब्दिक रूप से बोले जाने वाले हुक्म की तरह है।

जहाँ तक वकील का संबंध है तो यदि मुवक्किल ने उसे खाने और उपहार में देने की अनुमति प्रदान की है अथवा क़रीना या परंपरा इसको इंगित करता है तो उसके लिए ऐसा करना जायज़ है, अन्यथा वह उसे मुवक्किल के हवाले कर देगा और वही उसके वितरण का प्रभारी होगा।

क़ुर्बानी के जानवर के किसी भी भाग को बेचना हराम है, चाहे वह मांस हो या कोई अन्य भाग हो यहाँ तक कि उसके चमड़े (खाल) तक को बेचना हराम है। और कसाई को उसकी मज़दूरी के बदले या उसके कुछ भाग के बदले में इसका कोई हिस्सा नहीं दिया जाएगा, क्योंकि यह बिक्री की तरह है।

लेकिन अगर किसी व्यक्ति को उसमें से कुछ उपहार के रूप में दिया गया है या उसपर दान किया गया है, तो वह उसके साथ जो चाहे कर सकता है, चाहे वह उसे बेच दे या कुछ और करे, परंतु वह उसे उस व्यक्ति से नहीं बेचेगा जिसने उसे उपहार में दिया है या उस पर दान किया है।

स्रोत: साइट इस्लाम प्रश्न और उत्तर