हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.
आदरणीय शैख अब्दुल अज़ीज़ बिन अब्दुल्लाह बिन बाज़ रहिमहुल्लाह ने उस व्यक्ति के हुक्म से संबंधित एक प्रश्न का उत्तर दिया जिसने तमत्तो हज्ज का इरादा किया और मीक़ात के बाद अपना मन बदल दिया और इफ़्राद हज्ज (अकेले हज्ज) का तल्बिया पुकारा, और क्या उसपर हदी (क़ुर्बानी) अनिवार्य हैॽ
आदरणीय शैख ने कहा : इसका हुक्म विभिन्न होता है। यदि उसने माक़ात पहुँचने से पहसे यह नीयत की है कि वह तमत्तो हज्ज करेगा और मीक़ात पर पहुंच कर उसने अपनी नीयत बदल दी और केवल हज्ज का एहराम बांधा तो इस पर कोई आपत्ति की बात नहीं है और न ही फिद्या अनिवार्य है। किंतु यदि उसने मीक़ात से या मीक़ात से पहले उम्रा और हज्ज का एकसाथ तल्बिया पुकारा (एहराम बांधा), फिर उसने इरादा किया कि उसे केवल हज्ज (का एहराम) बना दे, तो उसके लिए ऐसा करने की अनुमति नहीं है। लेकिन उसके लिए उसे केवल उम्रा (का अहराम) बनाने में कोई रुकावट नहीं है, रही बात उसे अकेले हज्ज का एहारम बनाने की तो वह ऐसा नहीं कर सकता। क्योंकि क़िरान को निरस्त कर केवल हज्ज में परिवर्तित नहीं किया जा सकता, लेकिन उसे निरस्त करके उम्रा में परिवर्तित किया जा सकता है। इसलिए कि यह मुसलमान के लिए अधिक आसान है, और इसलिए कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने अपने सहाबा रज़ियल्लाहु अन्हुम को इसी का आदेश दिया था। अतः यदि उसने मीक़ात से उन दोनों का एक साथ एहराम बांधा है, फिर उसने चाहा कि उसे इफ़्राद हज्ज बना दे तो उसके लिए ऐसा करना जायज़ नहीं है। लेकिन वह उसे उम्रा बना सकता है और यह उसके लिए बेहतर है। चुनांचे वह तवाफ और सई करे, बाले छोटे करवाए और एहराम से हलाल हो जाए (अर्थात एहराम खोल दे), फिर इसके बाद हज्ज का तल्बिया पुकारे। इस तरह वह तमत्तो करने वाला हो जाएगा।
अंत हुआ।