सोमवार 22 जुमादा-2 1446 - 23 दिसंबर 2024
हिन्दी

क़ुर्बानी के पूरे गोश्त को खाने या पूरा दान कर देने का हुक्म

प्रश्न

अगर आदमी दो अक़ीक़ा करे, या दो जानवर क़ुर्बानी करे, तो क्या उसके लिए उन दोनों में से एक को पूरा खाना और दूसरे को पूरा सद्क़ा (दान) कर देना जायज़ा है? पहले जानवर से उसने कुछ सदक़ा नहीं किया, और दूसरा पूरे का पूरा पहले और दूसरे की ओर से सदक़ा कर दिया, तो क्या ऐसा करना सही है? या उन दोनों में से कुछ न कुछ दान करना ज़रूरी है?

उत्तर का पाठ

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.

सर्व प्रथम :

शरीअत के नुसूस (क़ुरआन व हदीस के प्रमाण) क़ुर्बानी और हदी (हज्ज की क़ुर्बानी) के गोश्त से कुछ न कुछ दान करने के अनिवार्य होने को दर्शाते हैं, अगरचे यह थोड़ा ही क्यों न हो, अल्लाह तआला का फरमाना है :

فَكُلُوا مِنْهَا ، وَأَطْعِمُوا الْقَانِعَ وَالْمُعْتَرَّ ، كَذَلِكَ سَخَّرْنَاهَا لَكُمْ ، لَعَلَّكُمْ تَشْكُرُونَ [سورة الحج : 36].

''तो उनमें से स्वयं भी खाओ औऱ संतोष कर न मांगनेवालों को भी खिलाओ औरमाँगनेवालों को भी। इसी तरह हमने उन (उन चौपायों) को तुम्हारे लिए वशीभूत कर दिया हैताकि तुम कृतज्ञता दिखाओ।'' (सूरतुल हज्जः 36).

अल-क़ानि (الْقَانِعَ) : वह गरीब जो संतोष करते हुए संयम के तौर पर लोगों से मांगता नहीं है।

अल-मोतर्र (الْمُعْتَرَّ) : वह गरीब जो लोगों से मांगता है।

तो इन गरीबों का हदी (हज्ज की क़ुर्बानी) के अंदर हक़ और अधिकार है। ‘‘यह अगरचे हदी के बारे में आया है, परंतु हदी और क़ुर्बानी एक ही अध्याय से हैं।''

‘‘अल-मौसूअतुल फिक़्हिय्या’’ (6/115).

तथा नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने क़ुर्बानी के जानवरों के बारे में फरमाया: ‘‘तो तुम खाओ, जमा करके रखो और दान करो।’’ इसे मुस्लिम (हदीस संख्याः 1971) ने रिवायत किया है।

उसमें से कुछ दान करने का कथन शाफेइय्या और हनाबिला का मत है, और शरीअत के प्रत्यक्ष नुसूस (प्रमाणों) की रोशनी में, यही सही है।

नववी रहिमहुल्लाह ने फरमाया:

‘‘इतनी मात्रा में दान करना अनिवार्य है जिसे दान का नाम दिया जा सकता है ; क्योंकि उसका उद्देश्य मिसकीनों (गरीबों) को लाभ पहुँचाना और उनपर दया करना है। इस आधार पर : यदि उसने पूरा खा लिया तो उसके ऊपर उतनी मात्रा की ज़मानत (ज़िम्मेवारी) लेना अनिवार्य है जिसपर उसका नाम बोला जाता है।’’

रौज़तुत तालेबीन व उम्दतुल मुफतीन’’ (3/223) से समाप्त हुआ।

तथा अल-मर्दावी रहिमहुल्लाह कहते हैं :

‘‘यदि उसने उसे पूरा खा लिया, तो वह उतने की ज़िम्मेदारी लेगा जितना कम से कम दान में काफी होता है।’’

‘‘अल-इंसाफ’’ (6/491).

तथा बहूती रहिमहुल्लाह ने फरमाया :

‘‘यदि उसने उसमें से कुछ कच्चे गोश्त को दान नहीं किया,तो वह उतने का ज़िम्मेदार होगा जिस पर कम से दान का नाम बोला जाता है, जैसे एक औंस लगभग 28.35 ग्राम।’’

‘‘कश्शाफुल क़िनाअ’’ (7/444) से समाप्त हुआ।

तथा शैख इब्ने उसैमीन रहिमहुल्लाह से पूछा गया : उस आदमी के बारे में क्या विचार है जो अपने रिश्तेदारों के साथ समुचित क़ुर्बानी के जानवर का गोश्त पकाता है, उसमें से कुछ भी दान नहीं करता है, तो क्या उनका यह काम सही है?

तो आप रहिमहुल्लाह ने फरमाया :

''यह गलत है, क्योंकि अल्लाह तआला का कथन है :

لِيَشْهَدُوا مَنَافِعَ لَهُمْ وَيَذْكُرُوا اسْمَ الله فِي أَيَّامٍ مَعْلُومَاتٍ عَلَى مَا رَزَقَهُمْ مِنْ بَهِيمَةِ الْأَنْعَامِ فَكُلُوا مِنْهَا وَأَطْعِمُوا الْبَائِسَ الْفَقِيرَ [سورةالحج : 28]

''ताकि वे अपने लाभ की चीज़ों के लिए उपस्थित हों और कुछ ज्ञात औरनिश्चित दिनों में उन चौपायों पर अल्लाह का नाम लें, जो उसनेउन्हें दिए हैं। सो तुम उसमें से स्वयं भी खाओ और निःसहाय दरिद्र को भी खिलाओ।" (सूरतुल हज्जः 28).

इस आधार पर : अब उनके ऊपर अनिवार्य है कि उन्हों जो खाया है हर बकरी की ओर से कुछ गोश्त की ज़मानत लें, उसे खरीद कर दान कर दें।’’

''मजमूअ फतावा इब्ने उसैमीन’’ (25/132) से समाप्त हुआ।

दूसरा :

क़ुर्बानी के गोश्त से खाने की अनिवार्यता के बारे में विद्वानों के बीच मतभेद है, जमहूर उलमा (विद्वानों की बहुमत) का यह मत है कि उससे खाना मुसतहब (वांछनीय) है, अनिवार्य नहीं है, और यही चारों इमामों का मत है।

तथा कुछ विद्वान उससे खाने के अनिवार्य होने की ओर गए है, चाहे थोड़ा ही सही ; क्योंकि उससे खाने का आदेश करने वाले शरई नुसूस (ग्रंथों) का प्रत्यक्ष अर्थ यही कहता है।

नववी रहिमहुल्लाह ने फरमाया :

‘‘रही बात उससे खाने की तो यह मुसतहब (इच्छित) है,अनिवार्य नहीं है, यही हमारा मत और सभी विद्वानों का मत है। सिवाय इसके कि कुछ सलफ (पूर्वज) से वर्णन किया गया है कि उन्हों ने उससे खाना अनिवार्य क़रार दिया है . . . खाने का आदेश करने वाली इस हदीस के प्रत्यक्ष अर्थ के कारण, अल्लाह के इस कथन के साथ कि : ‘‘सो, तुम उससे खाओ।’’. जमहूर विद्वानों ने इस आदेश को मुस्तहब या मुबाह (अनुमेय) होने पर महमूल किया है, विशेषकर यह आदेश निषेध के बाद आया है।’’

''शरह सहीह मुस्लिम’’ (13/13) से समाप्त हुआ।

इब्ने क़ुदामा रहिमहुल्लाह ने फरमाया:

‘‘यदि उसने उसे पूरा,या उसका अधिकतर हिस्सा दान कर दिया, तो यह जायज़ है।’’

''अल-मुगनी'' (13/380) से समाप्त हुआ।

तीसरा :

रही बात अक़ीक़ा की, तो शरीअत के नुसूस (ग्रंथों) में कोई ऐसा प्रमाण वर्णित नहीं है जिससे उसे वितरित करने के तरीक़े, तथा उससे खाने, या उसे दान करने के अनिवार्य होने का पता चलता हो।

इसलिए इन्सान को इस बात का अधिकार है कि वह जो चाहे करे, यदि चाहे तो उसे पूरा दान कर दे, और यदि चाहे तो उसे पूरा खा ले, और बेहतर यह हैकि वह उसमें उसी तरह करे जिस तरह कि क़ुर्बानी के जानवर के साथ किया जाता है।

इमाम अहमद से अक़ीक़ा के बारे में पूछा गया कि उसके साथ किस तरह किया जाए?

उन्हों ने कहा : जिस तरह भी तुम चाहो, इब्ने सीरीन कहा करते थे : तुम जो चाहो करो।’’

‘‘तोहफतुल मौदूद बि-अहकामिल मौदूद'' (पृष्ठ : 55).

तथा प्रश्न संख्या : (90029 ) देखना चाहिए।

चौथा:

क़ुर्बानी के एक हिस्से का दान करने के अनिवार्य होने, या उससे खाने के मुसतहब या अनिवार्य होने के एतिबार से पिछला हुक्म हर बकरी पर अलग-अलग लागू होता है।

चुनाँचे यदि वह दस बकरियाँ ज़बह करे : तो उसके लिए हर एक से कुछ हिस्सा दान करना ज़रूरी है, तथा उसके लिए मुसतहब है कि हर बकरी में से कुछ हिस्सा खाए।

उसके लिए ऐसा करना जायज़ नहीं है कि वह सभी बकरियों की ओर से एक संपूर्ण बकरी दान कर दे ; क्योंकि प्रत्येक बकरी दूसरी से अलग स्थायी रूप से एक क़ुर्बानी है।

इसीलिए जब नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने अपने हज्ज की क़ुर्बानी के जानवर (हदी को) ज़बह किए, तो आप ने आदेश दिया कि हर ऊँट से एक हिस्सा लेकर हांडी में एकत्रित कर दिया जाए।

जाबिर बिन अब्दुल्लाह रज़ियल्लाहु अन्हुमा कहते हैं : ‘‘फिर आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम क़ुर्बानीगाह की ओर गए, तो आप ने तिरसठ ऊँट अपने हाथ से क़ुर्बान किए, फिर अली रज़ियल्लाहु अन्हु को दे दिया तो उन्हों ने बाक़ी बचे ऊँटों को क़ुर्बान किया। फिर आप ने हर ऊँट से एक टुकड़ा लेने का आदेश दिया और उसे हाँडी में डाल दिया गया, और उसे पकाया गया, फिर उन दोनों ने उसके गोश्त से खाया, और उसके शोरबे से पिया ...’’ इसे मुस्लिम (हदीस संख्या : 1218) ने रिवायत किया है।

इससे पता चलता है कि हर ज़बीहा का एक स्थायी हुक्म है, इसीलिए आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने हर ऊँट से गोश्त को जमा करने का आदेश किया।

नववी रहिमहुल्लाह ने फरमाया :

‘‘अल-बज़अह : यह गोश्त का टुकड़ा है। इससे पता चलता है कि स्वैच्छिक क़ुर्बानी और हदी के गोश्त को खाना मुस्तहब है।

विद्वानों का कहना है : जब हर एक से खाना सुन्नत था, और सौ ऊँटों में से हर एक से अलग-अलग खाने में कष्ट है, अतः उसे एक हाँडी में कर दिया गया ; ताकि आप सभी के शोरबे से खाने वाले हों जिसमें हर एक (ऊँट) का एक हिस्सा है।’’

‘‘शरह सहीह मुस्लिम’’ (8/192) से समाप्त हुआ।

तथा नववी रहिमहुल्लाह ने - यह भी – फरमाया :

‘‘आप ने हर ऊँट से एक टुकड़ा लेकर उसके शोरबे से पिया ; ताकि आप हर एक से कुछ न कुछ खाने वाले हो जाएं।’’

''अल-मजमूअ श्रहुल मुहज़्ज़ब’’ (8/414) से समाप्त हुआ।

सारांश यह कि वह क़ुर्बानी का जानवर जिसके संपूर्ण गोश्त को आप ने खा लिया, और उससे कुछ भी दान नहीं किया, आपके ऊपर अनिवार्य है कि कुछ गोश्त खरीदें चाहे एक औंस ही सही, और उसे उसके बदले गरीबों पर दान कर दें।

जहाँ तक उस क़ुर्बानी के जानवर का मामला है जिसे आप ने पूरा दान कर दिया है, तो वह आपकी ओर से सभी विद्वानों के निकट काफी है।

जहाँ तक अक़ीक़ा की बात है तो उसके बारे में आप ने जो कुछ भी किया है, उसमें कोई आपत्ति की बात नहीं है।

स्रोत: साइट इस्लाम प्रश्न और उत्तर