गुरुवार 6 जुमादा-1 1446 - 7 नवंबर 2024
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क्या रमज़ान के आगमन के निकट होने की खुशी में बच्चों को मिठाइयाँ बांटकर अर्ध-शाबान की रात का जश्न मनाना जायज़ हैॽ

प्रश्न

क्या अर्ध-शाबान (पंद्रहवी शाबान) की रात का जश्न मनाना जायज़ है .. क्योंकि यह कुछ देशों में लोक विरासत (लोक धरोहर) का एक हिस्सा है .. स्पष्टीकरण के लिए .. हमारे देश में कुछ समूहों में बच्चों को मिठाई बांटने का रिवाज है .. अतः हमारे यहाँ इसे रमज़ान के महीने के आगमन पर मात्र खुशी का एक रूप माना गया है .. क्या इस रात को उत्सव मनाने में कुछ गलत है .. अगर यह उत्सव केवल बच्चों को मिठाई बांटने तक सीमित हैॽ

उत्तर का पाठ

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.

अर्ध-शाबान (शाबान की पंद्रहवीं) रात का जश्न मनाना घर्मसंगत नहीं है, चाहे यह जश्न इस रात में नमाज़ अदा करने के रूप में हो, या अल्लाह का ज़िक्र करने या क़ुरआन की तिलावत करने के रूप में हो, या फिर मिठाई बांटकर या खाना वगैरह खिलाकर हो।

तथा सही सुन्नते मुत़ह्हरा (प्रामाणिक हदीसों) में इस रात को किसी इबादत या किसी प्रथा (रीति) के साथ विशिष्ट करने की वैधता ज्ञात नहीं है।

अतः अर्ध-शाबान की रात किसी भी अन्य रात की तरह ही है।

फत्वा जारी करने की स्थायी समिति के विद्वानों का कहना है :

‘‘क़द्र की रात (शबे-क़द्र) या किसी अन्य रात के अवसर पर जश्न मनाना जायज़ नहीं है, और न ही मध्य-शाबान की रात, मेराज की रात और नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के जन्मदिन जैसे अवसरों को पुनर्जीवित करने के लिए जश्न मनाना जायज़ है; क्योंकि यह उन नव अविष्कारित नवाचारों में से है जो न नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से साबित है और न आपके सहाबा से साबित है। तथा नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : “जिस किसी ने कोई ऐसा कार्य किया जिसके बारे में हमारा आदेश नहीं है, तो वह अस्वीकृत है।” (यानी उसे अस्वीकार कर दिया जाएगा।) इस प्रकार के उत्सवों को आयोजित करने में पैसे या उपहार देकर या चाय के कप वितरित करके सहयोग करना जायज़ नहीं है, तथा इन अवसरों पर भाषण और व्याख्यान देना भी जायज़ नहीं है; क्योंकि यह उसे स्वीकारने और उस पर प्रोत्साहित करने के अंतर्गत आता है। बल्कि उसका खण्डन करना और उसमें भाग न लेना अनिवार्य है।’’ समाप्त हुआ।

“फतावा स्थायी समिति” (2/257-258)

शैख इब्ने उसैमीन रहिमहुल्लाह से सवाल किया गया :

हमारे यहाँ कुछ अवसरों से संबंधित कुछ रीति-रिवाज पाए जाते हैं जिनपर हम चलते आए हैं और वे हमें विरासत में मिले हैं, जैसे ईदुल-फित्र में केक और बिस्कुट बनाना, तथा रजब की सत्ताइसवीं रात को और अर्ध-शाबान (पंद्रहवीं शाबान) की रात को फलों और मांस की डिश तैयार करना, तथा विशेष प्रकार की मिठाइयाँ जिन्हें आशूरा के दिन तैयार करना ज़रूरी होता है। इसके बारे में इस्लामी शरीयत का क्या हुक्म हैॽ

तो शैख ने यह उत्तर दिया : “जहाँ तक ईदुल-फित्र और ईदुल-अज़्हा के दिनों में खुशी एवं प्रसन्नता व्यक्त करने की बात है, तो इसमें कोई आपत्ति की बात नहीं है यदि वह इस्लामी शरीयत की निर्धारित सीमाओं के भीतर है। जैसे कि लोग भोजन और पेय और इसके समान चीज़ें तैयार करें। नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से प्रमाणित है कि आप ने फरमाया : “तश्रीक़ के दिन खाने और पीने और अल्लाह को याद करने के दिन हैं।” तशरीक़ के दिनों से अभिप्राय ईदुल-अज़्हा के बाद के तीन दिन हैं, जिनमें लोग क़ुर्बानी करते हैं, तथा अपनी क़ुर्बानी का मांस खाते हैं और अल्लाह की नेमतों का आनंद लेते हैं। इसी प्रकार ईदुल-फित्र में खुशी और प्रसन्नता व्यक्त करने में कोई आपत्ति नहीं है जब तक कि उसमें शरीयत की सीमा का उल्लंघन न पाया जाता हो।

जहाँ तक रजब की सत्ताईसवीं रात को या शाबान की पंद्रहवीं रात को या आशूरा के दिन खुशी व्यक्त करने का संबंध है, तो इसका कोई आधार नहीं है, बल्कि यह निषिद्ध है और यदि मुसलमान को इस तरह के समारोहों में आमंत्रित किया जाता है तो वह उसमें उपस्थित नहीं होगा; क्योंकि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया है : “धर्म में नए आविष्कार कर लिए गए कामों से बचो; क्योंकि धर्म में हर नया आविष्कार कर लिय गया काम बिद्अत (नवाचार) है और हर बिद्अत पथभ्रष्टता है।”

तथा रजब की सत्ताईसवीं रात के बारे में कुछ लोग यह दावा करते हैं कि यह मेराज की रात है जिसमें अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को अल्लाह सर्वशक्तिमान के पास ले जाया गया था। लेकिन ऐतिहासिक दृष्टि से यह बात प्रमाणित नहीं है। और हर वह चीज़ जो प्रमाणित न हो वह झूठ (अमान्य) है, और जिस चीज़ का आधार झूठ पर है, वह भी झूठ और अमान्य है। यहाँ तक ​​कि अगर हम मान लें कि मेराज की घटना उसी रात को घटित हुई थी, तथापि हमारे लिए इस रात में अपनी तरफ से त्योहारों या उपासनाओं के प्रतीकों में से किसी चीज़ का अविष्कार करना जायज़ नहीं है। क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से ऐसा कुछ भी साबित नहीं है और न आपके उन सहाबा (साथियों) से कुछ साबित है जो लोगों में इसके सबसे अधिक योग्य (हक़दार) थे और जो लोगों में सबसे ज़्यादा आपकी सुन्नत के और आपकी शरीयत का पालन करने के लालायित व इच्छुक थे। तो फिर हमारे लिए यह कैसे जायज़ हो सकता है कि हम धर्म में ऐसी चीज़ अविष्कार करें जो न नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के युग में पाई जाती थी और न आपके सहाबा के युग में मौजूद थीॽ!

यहाँ तक कि शाबान की पंद्रहवीं रात के संबंध में भी, अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उसे महत्व दिया हो या उसे इबादत में बिताया हो। बल्कि कुछ ताबेईन ने इस रात को नमाज़ और अल्लाह के ज़िक्र में बिताया है, न कि खाने, आनंद और त्योहारों के प्रतीकों (अनुष्ठानों) के प्रदर्शन में (बिताया है)।” समाप्त हुआ।

“फतावा इस्लामिया” (4/693).

और अल्लाह ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।

स्रोत: साइट इस्लाम प्रश्न और उत्तर