हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.
सर्व प्रथम :
तौहीद अस्मा व सिफात (अल्लाह के नामों और गुणों के एकेश्वरवाद) के बारे में अह्ले सुन्नत व जमाअत का अक़ीदा : यह है कि वे अल्लाह तआला की किताब में जो कुछ आया है और जो कुछ अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से साबित (प्रमाणित) है, अह्ले सुन्नत उन सभी (नामों और गुणों) पर बिना तावील, तम्स़ील, तह्रीफ और तातील के ईमान रखते हैं। चुनाँचे वेअल्लाह को उन सभी गुणों से विशिष्ट करते हैं जिनसे अल्लाह ने अपने आपको विशिष्ट किया है और जिनसे उसके रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उसे विशिष्ट किया है।
(तावील : अल्लाह के नाम तथा सिफात के अर्थ में संशोधन तथा उसकी व्याख्या उल्टा करना। तम्स़ील : अल्लाह के नाम तथा सिफात की किसी वस्तु या मख़्लूक़ के रूप में उदाहरण देना। तह्रीफ :अल्लाह के नाम तथा सिफात में हेर फेर तथा परिवर्तन करना। तातील : अल्लाह के नाम तथा सिफात को अर्थहीन व निरर्थक घोषित करना।)
इब्ने अब्दुल बर रहिमहुल्लाह कहते हैं :
“क़ुरआन व सुन्नत में वर्णित सभी सिफात को स्वीकार करने और उन पर ईमान लाने पर अह्ले सुन्नत एकमत हैं। वे सिफात को हक़ीक़त (वास्तविक अर्थ) पर महमूल करते हैं उनको मजाज़ नहीं समझते हैं। लेकिन वे उनमें से किसी सिफत की कोई कैफियत (स्थिति) वर्णित नहीं करते और न ही किसी सिफत को सीमित करते हैं। रही बात अह्ले बिदअत जहमिय्या, मोतज़िला एवं ख़वारिज की तो वे सब के सब सिफात का इन्कार करते हैं और उन्हें वास्तविक अर्थ में नहीं लेते हैं।” “अत्तमहीद” (7/145) से समाप्त हुआ।
द्वितीय :
जिसने अल्लाह के नामों या सिफात का पूर्णतया इन्कार किया है और अल्लाह तआला से उसकी नफी की है, जैसा कि बातिनिय्या और अतिवादी जहमिय्या का मामला है, तो वह काफिर, इस्लाम धर्म से ख़ारिज, क़ुरआन व सुन्नत का झुठलाने वाला तथा उम्मत की सर्व सहमति का विरोधी है।
और ऐसे ही जिस ने अल्लाह तआला की किताब में प्रमाणित उसके नामों में से किसी नाम का या उस की सिफात में से किसी सिफत का इन्कार किया तो वह काफिर है, क्योंकि उसका यह इन्कार करना क़ुरआन को झुठलाना है।
परंतु जिसने अल्लाह की सिफात में से किसी सिफत की तावील (अपनी इच्छा के अनुसार व्याख्या) की और उसे उसके वास्तविक अर्थ से फेर दिया, जैसे वह व्यक्ति जो यद (हाथ) की सिफत की तावील शक्ति से करता है, और 'इस्तवा' को 'इस्तवला' के अर्थ में लेता है, इत्यादि, तो उसने प्रत्यक्ष अर्थ के विपरीत व्याख्या कर गलती की है, और उसके अंदर जितना सुन्नत का विरोध तथा अह्ले सुन्नत व जमाअत के मार्ग से अलगाव पाया जाता है उसके कारण वह बिद्अती है। और उसके अंदर जिस मात्रा में विरोध और अवहेलना है उसी मात्रा में उसके अंदर बिदअत है। परन्तु वह केवल इस तावील के कारण काफिर नहीं होगा। और हो सकता है वह अपने इजतिहाद और तावील के कारण अपने ज्ञान और ईमान के अनुसार माज़ूर (क्षम्य) समझा जाए, और इस विषय में आधार रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की लाई हुई शरीअत की खोज और उसके अनुपालन की इच्छा पर निर्भर है।
इब्ने बाज़ रहिमहुल्लाह कहते हैं :
“सिफात की तावील करना, या उसे उसके अल्लाह के महिमा योग्य प्रत्यक्ष अर्थ से फेर देना या उसका अर्थ अल्लाह के हवाले सौंपनाजायज़ नहीं है, बल्कि यह सब बिद्अतियों के अक़ीदे हैं। रही बात अह्ले सुन्नत व जमाअत तो वे सिफात की आयतों तथा हदीसों की तावील नहीं करते, न उन्हें उनके ज़ाहिरी अर्थ से फेरते और न ही उनके अर्थ को अल्लाह के हवाले करते हैं। बल्कि वे यह आस्था रखते हैं कि अल्लाह की सिफत का जो भी अर्थ है वह सब सत्य, अल्लाह के लिए प्रमाणित और उसकी महिमा के योग्य है और उसमें उसकी मख्लूक़ से कोई समानता नहीं हैं।” “मजमूओ फतावा इब्ने बाज़” (2/106-107) से समाप्त हुआ।
तथा शैख रहिमहुल्लाह से सवाल किया गया :
क्या अशाय़रा अह्ले सुन्नत व जमाअत में से हैं या नहीं हैं? क्या हम उन्हें धर्म से समझें या उन्हें काफिर कहें?
तो शैख ने इस सवाल का जवाब दिया : “अशाय़रा अधिकतर अह्ले सुन्नत में से हैं, परन्तु सिफात की तावील के विषय में वे अह्ले सुन्नत में से नहीं हैं, और वे काफिर भी नहीं हैं। क्योंकि उनमें बहुत से इमाम, विद्वान और नेक लोग भी हैं। लेकिन उन्हों ने कुछ सिफात की तावील में ग़लती की है। उन्हों ने कुछ मसायल में अह्ले सुन्नत का विरोध किया है, उन्हीं में से अधिकतर सिफात की तावील करना है। अह्ले सुन्नत व जमाअत जिस तरीक़े पर क़ायम हैं वह सिफात की आयात व अहादीस को बिना तावील, तातील, तह्रीफ और तम्सील के उसी तरह गुज़ार देना है जिस तरह वे वर्णति हुई हैं।'' “मजमूअ फतावा इब्ने बाज़” (28/256) से समाप्त हुआ।
शैख अब्दुल अज़ीज़ राजेही से सवाल किया गया :
आशाय़रा से किसी सिफत की तावील साबित हो जाए तो क्या उन की तक्फीर की जाएगी?
शैख ने जवाब देते हुए कहा : “नहीं, तावील करने वाला काफर नहीं होगा। जो अल्लाह के नामों में से किसी नाम का इन्कार करे वह काफिर है। अल्लाह तआला ने फरमाया : وَهُمْ يَكْفُرُونَ بِالرَّحْمَنِ “वे रहमान के साथ इन्कार की नीति अपनाए हुए हैं।” (सुरतु रअद :30) तावील के बग़ैर अल्लाह के नामों में से किसी नाम का या उसकी सिफात में से किसी सिफत का इन्कार कुफ्र है। अल्लाह तआला ने फरमाया : الرَّحْمَنُ عَلَى الْعَرْشِ اسْتَوَى “रहमान अर्श पर मुस्तवी हुआ।” (सुरतु ताहा :05) यदि वह आयत का इन्कार करे तो यह कुफ्र है, परन्तु अगर इसकी तावील “इस्तीला” से करे तो यह तश्बीह (समान क़रार दैना) है, जो तावील करने वाले से कुफ्र को ख़त्म कर देती है।” समाप्त हुआ।
(ar.islamway.net)
किसी नामांकित व्यक्ति की तक्फीर की शर्तों के लिए प्रश्न संख्या :(107105) का उत्तर देखें।
तृतीय :
खवारिज गुमराह तथा बिद्अती संप्रदायों में से एक हैं, इनके बारे में प्रश्न संख्या : (182237) में विस्तार के साथ उल्लेख किया जा चुका है।
अधिक लाभ के लिए प्रश्न संख्या :(145804) तथा : (151794) का उत्तर देखें।
और अल्लाह तआला ही सर्वज्ञ है।