हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.
विद्वानों ने क़ज़ा करने से पहले स्वैच्छिक रोज़ा रखने के हुक्म के बारे में मतभेद किया है।
कुछ विद्वान इस बात की तरफ गए हैं कि "कज़ा करने से पहले स्वैच्छिक रोज़ा रखना शुद्ध नहीं है, और ऐसा करने वाला गुनाहगार (पापी) है।
उन्हों ने इसका यह कारण (तर्क) बताया है कि : स्वैच्छिक कार्य अनिवार्य कार्य से पहले नहीं किया जाता है।
जबकि कुछ विद्वान इसके जाइज़ होने की ओर गए हैं जब तक कि इसका समय तंग न हो। उनका कहना है कि : जब तक समय में विस्तार है तो स्वैच्छिक कार्य करना जाइज़ है, जैसेकि वह फर्ज़ नमाज़ पढ़ने से पहले स्वैच्छिक नमाज़ पढ़े। उदाहरण के तौर पर ज़ुह्र की नमाज़ का समय सूरज के ढलने से शुरू होता है और जब हर चीज़ की छाया उसके बराबर हो जाती है तो उसका समय समाप्त हो जाता है, तो उसके लिए अंतिम समय तक नमाज़ को विलंब करना जाइज़ है, और इस मुद्दत (अवधि) में उसके लिए स्वैच्छिक (नफ्ल) नमाज़ पढ़ना जाइज़ है, क्योंकि समय में विस्तार है।"
यही कथन फुक़हा (धर्म शास्त्रियों) की बहुमत का है, और इसी कथन को शैख मुहम्मद बिन उसैमीन रहिमहुल्लाह ने भी पसंद किया है, वह कहते हैं : "यही कथन सब से अधिक स्पष्ट और शुद्धता के सब से निकट है, और उसका रोज़ा शुद्ध हैऔर वह पापी नहीं होगा, क्योंकि इस में क़यास (अनुमान) स्पष्ट है . . . और अल्लाह तआला का फरमान है:
"और जो बीमार हो या यात्रा पर हो, तो वह दूसरे दिनों में उसकी गिन्ती पूरी करे।"(सूरतुल बक़रा : 185)
अर्थात् उस पर दूसरे दिनों में उसकी गिन्ती को पूरा करना अनिवार्य है, और अल्लाह तआला ने उस में निरंतरता की कै़द नहीं लगायी है, यदि उसे निरंतरता के साथ विशिष्ट कर दिया जाये तो उसे तत्काल करना अनिवार्य हो जायेगा, इस से पता चला कि इस मामले में विस्तार है।"
देखिये : अश्शरहुल मुम्ते 6/448.