हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.
सर्व प्रथम :
जिस किसी व्यक्ति को चिंताएँ घेर लें, और दुनिया विशाल होते हुए भी उस पर तंग हो जाए, तथा उसका संबंध उसके रिश्तेदारों, मित्रों और आसपास के लोगों के साथ ख़राब हो जाए तो उस पर अनिवार्य है कि वह अल्लाह का सहारा ले, अपने आप पर पुनर्विचार करे, अपनी ज्यादतियों और ग़लतियों का अपने आपको जिम्मेदार ठहराए और अपने आप को दोषी एवं क़ुसूरवार ठहराते हुए अल्लाह से तौबा करे और सत्कर्म करे।
दूसरा :
जहाँ तक पिता का संबंध है तो उनके प्रति यह कर्तव्य होना चाहिए कि उनके साथ भलाई किया जाए और उनके साथ अच्छा व्यवहार किया जाए। अतः वह कितना भी पाप करें उनसे संबंध विच्छेद करना जायज़ नहीं है। क्योंकि माता-पिता का अधिकार महान है, जिसे उनका पाप में लिप्त होना या उस पर जमे रहना ख़त्म नहीं कर सकता।
इसलिए कि अल्लाह तआला ने माता-पिता के साथ अच्छे संगत का आदेश दिया है, भले हि वे दोनों अपने लड़के को अल्लाह तआला के साथ शिर्क करने (साझी बनाने) का हुक्म दें और वे दोनों इस बात पर दबाव डालें।
अल्लाह तआला ने फरमाया :
وَإِنْ جَاهَدَاكَ عَلى أَنْ تُشْرِكَ بِي مَا لَيْسَ لَكَ بِهِ عِلْمٌ فَلا تُطِعْهُمَا وَصَاحِبْهُمَا فِي الدُّنْيَا مَعْرُوفاً
لقمان: 15 .
''और यदि वे दोनों तुमपर दबाव डालें कि तुम किसी को मेरे साथ साझी बनाओ, जिसका तुम्हें ज्ञान नहीं है, तो उन दोनों की बात न मानना और दुनिया में उनके साथ सुचारू रूप से रहना।'' (सूरत लुक़मान :15)
तीसरा :
पारिवारिक समस्याओं का पाया जाना, संबंध को विच्छेद करने तथा दुश्मनी करने की अपेक्षा नहीं करता है। मुसलमान के लिए अपने रिश्तेदारों और पहचान वालों के प्रति मेल-मिलाप, सलाम फैलाना और प्यार व महब्बत सबसे उचित, तक़्वा (धर्मनिष्ठा) के सबसे अधिक निकट तथा उस निषिद्ध संबंध-त्याग को अधकि रोकनेवाला है जिसे अल्लाह और उसके रसूल ने हराम क़रार दिया है, भले ही उसके रिश्तेदार ने उस पर अत्याचार किया हो। क्योंकि माफ़ कर देना अल्लाह और उसके रसूल के निकट सबसे अधिक प्रिय है। इसलिए अल्लाह और उसके रसूल जिस चीज़ को पसंद करते हैं उसे छोड़कर उस चीज़ को न अपनाओ जिसे अल्लाह और उसके रसूल नापसंद करते हैं और उससे रोकते हैं।
अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है किः ''एक आदमी ने कहा : हे अल्लाह के रसूल! मेरे कुछ रिश्तेदार हैं, मैं उनसे रिश्ता मिलाता हूँ (रिश्तेदारी निभाता हूँ) और वे मुझसे रिश्ता तोड़ते हैं, मैं उनके साथ अच्छा व्यवहार करता हूँ और वे मेरे साथ दुर्व्यवहार करते हैं, मैं उनके साथ सहनशीलता से काम लेता लेता हूँ और वे मेरे साथ अज्ञानता से काम लेते हैं। तो आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फऱमाया : (यदि तुम ऐसा ही करते हो जैसा तुमने कहा है तो तुम उनके मुंह पर जलती राख डालते हो, और निरंतर तुम्हारे साथ एक सहायक रक्षक रहेगा जो तुम्हें उनपर विजयी बनायेगा जबतक कि तुम इस हालत पर रहोगे।) इस हदीस को इमाम मुस्लिम (हदीस संख्या : 2558) ने उल्लेख किया है।
चौथा :
इसी प्रकार साथ काम करने वाले सहकर्मियों का भी मामला है: कोई भी काम समस्याओं और मतभेदों से खाली नहीं होता है। यदि मनुष्य बहुत सारे मामलों से उपेक्षा न करे, धैर्य से काम न ले, लोगों को माफ़ न करे और उनकी तक्लीफों पर धैर्य न करेः तो उसका काम करने के लिए जाना उसके लिए तंगी, परेशानी और तनाव का स्रोत बन जाएगा।
यदि वह धीरज रखता है, बहुत सारी चीज़ों से अनदेखी करता है और क्षमा व माफ़ी से काम लेता हैः तो उसका बदला अल्लाह पर सिद्ध हो जाता है, और उसके सहयोगी उससे प्यार करते हैं, और उसे उदारचरित्र तथा सभ्याचार के रूप में जानने लगते हैं। इस प्रकार वह लोगों के बीच उत्तम आदर्श तथा बेहतरीन उदाहरण बन जाता है।
रही बात लोगों के साथ अधिक मतभेद के कारण लगातार समस्याओं का उत्पन्न होना, सकारण और अकारण उनके अत्याचार (उत्पीड़न) का एहसास करना, उनसे दूर रहने की इच्छा, तथा उन्होंने उसके साथ जो दुर्व्यवहार किया है उसमें उन्हें क्षमा न करनाः तो यह एक मुसलमान के हित में नहीं है, न उसके धर्म के मामले में है और न ही उसके सांसारिक मामले में; और ऐसी स्थिति में उसके जीवन यापन का मामला ठीक होना सम्भव नहीं है, और न तो इससे उसके धर्म का मामला सही हो सकता है और न ही उसके लिए उसकी दुनिया आनंदमय बन सकती है।
पांचवाँ :
फिर सबसे बड़ी आपदा आती है, और वह नमाज़ का छोड़ना तथा अल्लाह के साथ बदगुमानी (दुर्भावना) रखना है। ये दोनों महा पाप समुचित धर्म का विनाश कर देते हैं, बरकत को मिटा देते हैं और हर प्रकार के दोष का कारण बनते हैं। क्योंकि पूरी तरह से नमाज़ को छोड़ देना कुफ्र और धर्म से बाहर निकल जाना है, और यह हर प्रकार की तंगी, संकट और कष्ट का कारण है।
प्रश्न संख्या : (5208) का उत्तर भी देखें।
अल्लाह के साथ बदगुमानी रखना महा पापों में से एक बड़ा पाप है, जैसा कि फत्वा संख्या : (174619) में इसका वर्णन किया जा चुका है।
अतः इस व्यक्ति पर अनिवार्य है कि वह अपने सभी कार्यों में अपने आप पर पुनर्विचार करे और जिन चीज़ों में उसने ग़लतियाँ की हैं उनसे अल्लाह तआला से पश्चाताप (तौबा) करे और उसने जो बिगाड़ पैदा किया है उसका सुधार करे। अतः उसे चाहिए कि अपने पिता, अपनी फूफियों और अपने साथियों के साथ अच्छा व्यवहार करे। और इन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वह नमाज़ की पाबंदी करे, और अल्लाह तआला से अधिक से अधिक दुआ करे कि अल्लाह उसकी तौबा को स्वीकार कर ले, उसकी स्थितियों को सुधार दे तथा उसे उस चीज़ की तौफीक़ प्रदान करे जिसमें दुनिया और आख़िरत में उसकी भलाई हो।
और अल्लाह ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।