हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.
शैख़ अल्बानी रहिमहुल्लाह हदीस के अनुसंधान, जांच और आलोचना में भरपूर प्रयास करते हैं। अतः अन्य विद्वानों और शोधकों की तरह उनसे भी चूक और त्रुटि हो सकती है और यह उन्हें कुछ भी नुक़सान नहीं पहुंचाता, बल्कि वह इसपर अल्लाह की आज्ञा से एक अज्र (सवाब) दिए जाएंगे, और यह विद्वानों एवं फुक़हा (धर्मशास्त्रियों) के प्रति अल्लाह तआला की उदारता और दयालुता है कि वह उन्हें उनकी ग़लती पर एक अज्र (सवाब) प्रदान करता है, जिस प्रकार कि उनके सही हुक्म तक पहुँचने पर उन्हें दोहरा अज्र प्रदान करता है। महत्वपूर्ण बात यह है कि शोधकर्ताओं एवं विद्यार्थियों को चाहिए कि शोध एवं लेख कार्य में सही पद्धति का पालन करें। किसी का आँख मूंदकर अनुकरण करना तथा किसी विद्वान की स्थिति उन्हें प्रमाणों की समीक्षा करने और विषयों का संपादन करने से न रोके। क्योंकि ज्ञान निष्पक्षता व तटस्थता का नाम है जो वास्तविक शोध द्वारा ही प्राप्त होता है, और जो प्रतिष्ठित विद्वानों के कुछ विशेष नामों तक सीमित नहीं रहता है, भले ही ज्ञान में उनका पद कितना ऊँचा और महान हो।
इसीलिए हमारा कहना है कि : शैख अल्बानी रहिमहुल्लाह शबे-क़द्र की दुआ में (करीम) शब्द की वृद्धि की त्रुटि पर चेतावनी देने से चूक गए। क्योंकि यह हदीस कई सनदों (तरीक़ों) से वर्णित है, और (जवामे) (सुनन) तथा (मसानीद) के लिखने वालों ने इस हदीस को अपनी पुस्तकों में उल्लेख किया है और उनमें से किसी ने भी (करीम) शब्द की वृद्धि का उल्लेख नहीं किया है, बल्कि सभी ने केवल प्रसिद्ध दुआः “अल्लाहुम्मा इन्नका अफुव्वुन तुहिब्बुल-अ़फ्वा फा’फु अ़न्नी” का उल्लेख किया है।
लेकिन यह चूक केवल “सहीह तिर्मिज़ी” (हदीस संख्या : 3513) में हुई है।
जहाँ तक शैख की पुस्तक “सिलसिलतुल अहादीस अस-सहीहा” का संबंध है - जिसके बारे में शोधकर्ता इस बात पर सहमत हैं कि इस पुस्तक में किया गया शोध प्रयास उनकी अन्य पुस्तकों जैसेः “सहीहुस-सुनन” और “ज़ईफुस-सुनन” की तुलना में अधिक सटीक और गहरा है – तो शैख रहिमहुल्लाह ने उस में इस वृद्धि की त्रुटि के बारे में चेतावनी दी है। चुनांचे वे कहते हैं :
“सुनन तिर्मिज़ी में “अफुव्वुन” के पश्चात “करीम” शब्द की वृद्धि आई है, जबकि पूर्व स्रोतों में इसका कोई आधार नहीं मिलता है, और न ही उन स्रोतों में इसका उल्लेख मिलता है जिन्होंने पूर्व स्रोतों से उद्धृत किया है। इसलिए प्रतीत यही होता है कि यह किसी प्रतिलिपिकार या छापने वाले (टाइपिस्ट) की ओर से बढ़ाया गया है। क्योंकि यह “सुनन तिर्मिज़ी” के उस भारतीय संस्करण में भी नहीं है, जिस पर मुबारकपूरी रहिमहुल्लाह की शर्ह (व्याख्या) “तोह्फतुल अह़्वज़ी” (4/264) है, और न ही किसी अन्य संस्करण में यह वृद्धि पाई जाती है।
और इसकी पुष्टि इस बात से भी होती है कि : इमाम नसाई ने अपनी कुछ रिवायतों में इसे उसी इस्नाद से उल्लेख किया है जिससे इमाम तिर्मिज़ी ने उल्लेख किया है, दोनों ने अपने शैख (गुरू) क़ुतैबा बिन सईद से अपनी इस्नाद के साथ रिवायत किया है, और उसमें इस शब्द की वृद्धि नहीं है।
इसी तरह यह वृद्धि हमारे सम्मानित भाई अली अल-हलबी की पुस्तिकाः ''मुहज़्ज़ब अमलुल यौमि वल-लैलति लिब्निस-सुन्नी'' (हदीस संख्या : 202) में भी आई है। जबकि यह वृद्धि इब्ने सुन्नी के यहाँ मौजूद नहीं है, क्योंकि उन्होंने इसे अपने शैख (गुरू) नसाई के माध्यम से क़ुतैबा से रिवायत किया है और फिर इसकी निस्बत तिर्मिज़ी आदि की ओर की है। तख्रीज की विद्या के लिए उपयुक्त यह था कि इस वृद्धि को दो कोष्ठकों “[ ]” के बीच में रखा जाता जैसा कि आजकल इसका प्रचलन है। और फिर इसपर चेतावनी दी जाती कि इसका उल्लेख केवल तिर्मिज़ी द्वारा किया गया है। जबकि शोध की अपेक्षा यह है कि उसका बिल्कुल वर्णन ही न किया जाता; हाँ यदि किया जाता तो केवल यह बताने के लिए कि इसका कोई आधारा नहीं है, इसलिए इस पर चेतावनी की आवश्यकता पड़ी।'' ''सिलसिलतुल अहादीसिस सहीहा'' (13/140) से समाप्त हुआ।
यही कारण है कि कुछ शोधकर्ताओं ने ''सिलसिलतुल अहादीसिस सहीहा'' में शैख अल्बानी रहिमहुल्लाह के इस हुक्म को, सहीह तिर्मिज़ी में इस वृद्धि को सही क़रार देने से स्पष्ट रूप से पलटना शुमार किया है।
प्रत्येक स्थिति में; चाहे इसे पलटना नाम दें या पहले के शोध से अलग एक स्थायी शोध क़रार दें, इसमें महत्वपूर्ण बात यह है कि वह सही बात तक पहुँच गए और त्रुटि से बच गए।
तथा अधिक संभावित बात यह है कि हदीस की पुस्तकों के कुछ संस्करणों से यह वृद्धि कुछ लोगों की जबानों पर जारी हो गई है, जबकि यह वृद्धि स्वयं हदीस की रिवायतों में से नहीं है। इसका अर्थ यह हुआ कि जिन विद्वानों ने (करीम) शब्द की वृद्धि का उल्लेख किया है उसका कारण यह रहा है कि उन्हें कुछ हस्त-लिखित प्रतियों में (करीम) शब्द की वृद्धि मिली, जैसा कि ''मुअस्ससा अर-रिसालह'' से प्रकाशित ''मुस्नद इमाम अहमद'' (42/236) के अनुसंधान कर्ताओं का कहना है कि : ''(क़ाफ़) में : (अफुव्वुन करीम) है।'' अंत हुआ। तथा (क़ाफ) एक कोड (संकेतावली) है जो उस हस्त-लिखित प्रति को संदर्भित करता है जिसकी ओर उन्हों ने रूजूअ किया है। उनका मुक़द्दमा (प्राक्कथन) 1/104) देखिये। इसी प्रकार ''अल-मकनज़'' के संस्करण (11/6118, हदीस संख्या : 26021) में भी अनुसंधान कर्ताओं ने कहा है : ''(क़ाफ़) में : (अफुव्वुन करीम) है। और किताब में जो अंकित किया गया है वह बाक़ी संस्करणों से है।''
यहीं से बहुत से विद्वानों ने इस वृद्धि को अपनी पुस्तकों में उल्लेख किया है। जैसे :
इब्ने असीर ने अपनी किताब ''जामिउल-उसूल'' (4/324) में, और अल-उमरानी ने ''अल-बयान फी मज़्हबिश शाफेई'' (3/568) में, और ख़ाज़िन ने ''लुबाबुत-तावील फी मआ़नित तन्ज़ील'' (4/452) में, और इब्नुल क़ैयिम ने ''बदाएउल फवाइद'' (2/143) में, और ख़तीब अश-शर्बीनी ने ''अल-इक़नाअ़ फी ह़ल्लि अलफाज़ि अबी शुजाअ़'' (1/247) में, और अमीर सन्आ़नी ने ''अत-तह़बीर लि-ईज़ाह़ि मआ़नित-तैसीर'' (4/268) में, और त़ह़त़ावी ने ''ह़ाशिया अ़ला मराक़ी अल-फलाह़ शर्ह नूरिल-ईज़ाह़'' (पृष्ठ संख्या :401) में उल्लेख किया है।
इन सभी लोगों ने (करीम) शब्द की वृद्धि को ऐसे ही बिना किसी इस्नाद के उल्लेख किया है, तथा उनमें से कुछ लोगों ने इसकी निस्बत ''सुनन तिर्मिज़ी'' की तरफ की है। और ऐसा उस समय होगा जब इन किताबों की हस्त-लिखित प्रतियों की सटीकता को मान लिया जाए।
परन्तु आज हमें इस बात में कोई संदेह नहीं है कि यह वृद्धि हदीस के मूल पाठ का हिस्सा नहीं है क्योंकि हदीस की दसियों मुस्नद पुस्तकों में यह हदीस इस वृद्धि के बग़ैर आई है।
तथा हमने उन शोधित संस्करणों को देखा जो सुनन तिर्मिज़ी की कई हस्त-लिखित प्रतियों पर आधारित हैं, परन्तु हमने उनमें इस वृद्धि की ओर कोई संकेत नहीं पाया। जैसे कि वह संस्करण जो बश्शार अ़व्वाद (5/490) की तह़क़ीक़ के साथ छपा है, तथा दूसरा संस्करण जो शुऐब अल-अरनऊ़त़ (6/119) की तह़क़ीक़ के साथ छपा है।
और अल्लाह ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।