हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.
हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान अल्लाह के लिए योग्य है।नीयत का स्थान दिल है, और उसको ज़ुबान से करना बिद्अत है, और यह बात प्रमाणित नहीं है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और आपके साथियों (सहाबा रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने किसी इबादत से पहले ज़ुबान से नीयत की है। तथा हज्ज और उम्रा में तल्बिया पढ़ना नीयत नहीं है।
शैख इब्ने बाज़ रहिमहुल्लाह फरमाते हैं:
ज़ुबान से नीयत करना (या नीयत को बोलना) एक बिद्अत है, और उसको ज़ोर से बोलना अधिक सख्त गुनाह है।सुन्नत का तरीक़ा दिल में नीयत करना है,क्योंकि अल्लाह सुब्हानहु व तआला गुप्त (रहस्य) और छिपी हुई चीज़ों को भी जानता है,अल्लाह सर्वशक्तिमान का फरमान है:
قُلْ أَتُعَلِّمُونَ اللهَ بِدِينِكُمْ وَاللهُ يَعْلَمُ مَا فِي السَّمَاوَاتِ وَمَا فِي الأَرْضِ [ الحجرات : 16]
"कहदीजिये, क्या तुम अल्लाह तआला को अपनी दीनदारी (धर्मनिष्ठा) से अवगत करा रहे हो,अल्लाह तआला हर उस चीज़ को जो आकाशों में और ज़मीन में है अच्छी तरह जानता है।" (सूरतुल हुजुरात: 16)
तथा नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से,या आपके किसी सहाबी से,या इत्तिबा किये जाने वाले इमामों से ज़ुबान से नीयत करना प्रमाणित नहीं है। इससे ज्ञात हुआ कि वह धर्म संगत नहीं है,बल्कि गढ़ ली गई बिद्अतों में से है।और अल्लाह तआला ही तौफीक़ प्रदान करने वाला है।
"फतावा इस्लामिया" (2/315)
शैख इब्ने उसैमीन रहिमहुल्लाह ने फरमाया:
"ज़ुबान से नीयत करना नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से वर्णित नहीं है, न तो नमाज़ में न तहारत में न रोज़े में और न ही नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की किसी अन्य इबादत में,यहाँ तक कि हज्ज और उम्रा में भी। जब नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम हज्ज और उम्रा का इरादा करते थे तो यह नहीं कहते थे कि "अल्लाहुम्मा इन्नी उरीदो कज़ा व कज़ा" (ऐ अल्लाह! मैं ऐसा और ऐसा करने का इरादा रखता हूँ)। आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से ऐसा प्रमाणित नहीं है और न तो आपने अपने सहाबा में से किसी को ऐसा करने का आदेश दिया है। इस मामले में अधिक से अधिक यह वर्णित है कि ज़बाआ़ बिंते ज़ुबैर रज़ियल्लाहु अन्हा ने आपसे शिकायत कीकि वह हज्जा करना चाहती हैं और वह बीमार हैं। तो नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उनसे फरमाया: "तुम हज्ज करो और यह शर्त लगा दो कि मैं वहीं हलाह हो जाऊँगी जहाँ तो मुझे रोक दे, क्योंकि तुम्हारे लिए अपने रब पर वह चीज़ प्राप्त है जिसे तुम अलग (मुस्तस्ना) कर दो।" यहाँ पर यह बात ज़ुबान के द्वारा थी ; क्योंकि हज्ज को मुनअक़िद करना नज़्र (मन्नत) मानने के समान है, और नज़्र ज़ुबान के द्वारा मानी जाती है, क्योंकि यदि इंसान अपने दिल में नज़्र मानने की नीयत करे तो यह नज़्र नहीं होगी, और यह नज़्र स्थापित नहीं होगी, और चूँकि हज्ज उसे शुरू करने के बाद उसे पूरा करने के अनिवार्य होने में नज़्र के समान है, अतः नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उन्हें आदेश दियाकि वह अपनी ज़ुबान के द्वारा शर्त लगा लें और कहें कि:
"इन हबा-सनी हाबिसुन-फ-महिल्ली हैसो हबस्-तनी"(यदि मुझे कोई रूकावट पेश आ गई तो मैं वहीं हलाल हो जाऊँगी जहाँ तू मुझे रोकदे।)
जहाँ तक नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से प्रमाणित हदीस में आपके इस कथन का संबंध है कि: "जिब्रील अलैहिस्सलाम मेरे पास आये और कहा: इस मुबारक वादी (घाटी) में नमाज़ पढ़िये और कहिए: हज्ज में उम्रा, या हज्ज और उम्रा।" तो इसका अर्थ यह नहीं है कि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ज़ुबान से नीयत करेंगे, बल्कि उसका अर्थ यह है कि आप अपने तल्बिया में अपने नुसुक (यानी हज्ज की क़िस्मों में से जिस प्रकार को आप करना चाहते हैं) का चर्चा करेंगे। अन्यथा नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने ज़ुबान से नीयत नहीं की।
"फतावा इस्लामिया" (2/216)