हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.
सर्व प्रथम :
ईसाई महिला से शादी करना जायज़ है, अगर वह पाकदामन अर्थात व्यभिचार से पवित्र है। इसका प्रमाण अल्लाह तआला का यह फरमान है :
الْيَوْمَ أُحِلَّ لَكُمُ الطَّيِّبَاتُ وَطَعَامُ الَّذِينَ أُوتُوا الْكِتَابَ حِلٌّ لَكُمْ وَطَعَامُكُمْ حِلٌّ لَهُمْ وَالْمُحْصَنَاتُ مِنَ الْمُؤْمِنَاتِ وَالْمُحْصَنَاتُ مِنَ الَّذِينَ أُوتُوا الْكِتَابَ مِنْ قَبْلِكُمْ إِذَا آتَيْتُمُوهُنَّ أُجُورَهُنَّ مُحْصِنِينَ غَيْرَ مُسَافِحِينَ وَلَا مُتَّخِذِي أَخْدَانٍ وَمَنْ يَكْفُرْ بِالْإِيمَانِ فَقَدْ حَبِطَ عَمَلُهُ وَهُوَ فِي الْآخِرَةِ مِنَ الْخَاسِرِينَ
المائدة :5
“आज तुम्हारे लिए सब पवित्र (अच्छी) चीज़ें हलाल कर दी गईं और जिन्हें किताब दी गई उनका भोजन (ज़बह किया हुआ जानवर) तुम्हारे लिए हलाल है और तुम्हारा भोजन उनके लिए हलाल है। तथा पाकदामन ईमान वाली स्त्रियाँ और जो लोग किताब दिए गए हैं, उनकी पाकदामन औरतें भी तुम्हारे लिए हलाल हैं, जबकि तुम उन्हें उनके महर अदा कर दो, इस तरह कि तुम उन्हें निकाह में लाने वाले हो, उनसे व्यभिचार करने वाले या चोरी-छिपे दोस्ती करने वाले न हो। और जिसने ईमान से इनकार किया, तो उसका सारा कर्म नष्ट हो गया और वह आख़िरत में घाटा उठाने वाले में से होगा।” (सूरतुल मायदा : 5).
लेकिन उसके मुस्लिम पति का उसपर और उसके बच्चों पर अभिभावकता का अधिकार होना चाहिए, क्योंकि अल्लाह तआला का फरमान :
وَلَنْ يَجْعَلَ اللَّهُ لِلْكَافِرِينَ عَلَى الْمُؤْمِنِينَ سَبِيلاً النساء : 141
“और अल्लाह कभी भी काफ़िरों को मोमिनों पर हावी होने का रास्ता नहीं देगा।” (सूरतुन्निसा : 141)
इब्ने जरीर रहिमहुल्लाह ने इससे संबंधित एक महत्वपूर्ण शर्त के बारे में चेतावनी दी है, जो यह है कि : “वह एक ऐसी जगह पर हो जहाँ शादी करने वाले व्यक्ति को अपने बच्चे पर इस बात का डर न हो कि उसे कुफ़्र (अधर्म) पर मजबूर किया जा सकता है।”
“तफ़्सीर अत्-तबरी” (9/589) से उद्धरण समाप्त हुआ।
अगर उसे डर है कि जिस देश में वह रहता है, उसका कानून उसकी पत्नी और उसके घर वालों पर उसकी अभिभावकता का अधिकार खत्म कर देगा, या अपने बच्चों की संरक्षकता पर उसका अधिकार समाप्त कर देगा, या उसकी ईसाई पत्नी के लिए उसके बच्चों को ईसाई बनाने का अधिकार साबित कर देगा; तो यदि उसके लिए अपने अधिकार की शर्त लगाना (अपने अधिकारों को निर्धारित करना) तथा अपने लिए और अपने वंशज के लिए सावधानी बरतना संभव है (तो ऐसी स्थिति में वह उससे शादी कर सकता है), अन्यथा उसे ऐसा करने की (यानी शादी करने की) अनुमति नहीं है।
बेहतर यह है कि एक मुस्लिम महिला से शादी की जाए, क्योंकि वह (शादी करके) पवित्र रखने और उस पर खर्च करने के लिए अधिक योग्य है, और आमतौर पर वह बच्चे और उसकी परवरिश के लिए अधिक फायदेमंद है। तथा इसलिए भी कि यदि वह पुस्तक वाले लोगों की महिला (यानी यहूदी या ईसाई औरत) से शादी करता है, तो इसमें इस बात का डर है कि वह अपने बच्चों को खराब कर सकती है, या उन्हें अपने धर्म का पालन करने के लिए लुभा सकती है।
उन्होंने “कश्शाफुल-क़िनाअ” (5/84) में कहा : “(बेहतर यह है कि उनकी महिलाओं से विवाह न किया जाए। तथा शैख ने कहा : यह मक्रूह (नापसंदीदा) है।)
अर्थात आज़ाद मुसलमान महिलाओं की मौजूदगी में। “अल-इख्तियारात” में कहा गया है : यह बात अल-क़ाज़ी और अधिकांश विद्वानों ने कही है; क्योंकि उमर रज़ियल्लाहु अन्हु ने उन लोगों से, जिन्होंने पुस्तक वाले लोगों की महिलाओं से शादी की थी, कहा था : उन्हें तलाक़ दे दो।” उद्धरण समाप्त हुआ।
दूसरी बात :
ईसाई महिला का अभिभावक : उसके पुरुष रिश्तेदारों में से वह व्यक्ति होगा, जो उसके धर्म का पालन करने वाला हो। जहाँ तक नास्तिक का संबंध है, तो वह धर्म के अंतर के कारण, उसका अभिभावक बनने के योग्य नहीं है।
“कश्शाफुल-क़िनाअ” (5/35) में अभिभावक की शर्तों का उल्लेख करते हुए कहा गया है : “(और) तीसरी शर्त : अभिभावक और जिस पर वह अभिभावक है अर्थात महिला के (धर्म का एक होना)। इसलिए कोई काफ़िर पुरुष एक मुस्लिम महिला की शादी नहीं करेगा (यानी उसका अभिभावक नहीं बन सकता) और न तो इसके विपरीत ही सही है (अर्थात एक मुसलमान पुरुष किसी काफ़िर महिला का अभिभावक नहीं हो सकता)। “अल-इख्तियारत” में कहा गया है : यदि महिला एक यहूदी है और उसका अभिभावक ईसाई है, या इसके विपरीत; तो इस मुद्दे की व्याख्या उन दोनों (यानी यहूदी एवं ईसाई) के एक-दूसरे का वारिस होने के बारे में दो रिवायतों (रायों) के आधार पर की जानी चाहिए।
तथा निश्चितता के साथ ऐसा ही कुछ “शर्ह मुन्तहल-इरादात” में कहा गया है, उसमें कहा गया है : एक ईसाई व्यक्ति को एक मजूसी (जोरोस्ट्रियन) महिला, और इसी तरह अन्य पर अभिभावकता का अधिकार नहीं है, क्योंकि उनके बीच वंश के आधार पर विरासत का कोई अधिकार नहीं है... और जिस काफ़िर महिला का कोई अभिभावक नहीं है, उसकी शादी शासक करेगा।” उद्धरण समाप्त हुआ।
इसके आधार पर; यदि उसके रिश्तेदारों में कोई ईसाई पुरुष नहीं है, तो उसकी शादी मुस्लिम न्यायाधीश (क़ाज़ी) कराएगा, यदि वह मौजूद है। यदि वह (मुस्लिम न्यायाधीश) मौजूद नहीं है, तो उसके क्षेत्र में इस्लामी केंद्र का निदेशक उसकी शादी कराने में उसका अभिभावक होगा।
तथा “फतावा अल-लज्नह अद्दाईमह” (18/322) में है : “किसी मुसलमान पुरुष के लिए ईसाई महिला से शादी करना जायज़ नहीं है, सिवाय इसके कि वह पाकदामन अर्थात व्यभिचार से पवित्र हो। और यह ज़रूरी है कि उसकी शादी के अनुबंध का आयोजन उसका अभिभावक अर्थात् उसका पिता करे। यदि वह मौजूद नहीं है, तो उसके पुरुष रिश्तेदारों में निकटतम व्यक्ति उसका अभिभावक होगा। क्योंकि पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है : “अभिभावक के बिना कोई शादी नहीं हो सकती।”
यदि उसके पास कोई अभिभावक नहीं है, तो मुसलमानों का मुफ्ती, या आपके शहर में इस्लामिक सेंटर का निदेशक उसकी शादी में उसके अभिभावक की भूमिका निभाएगा। लेकिन उसकी माँ के लिए उसके अभिभावक के रूप में उसका विवाह करना जायज़ नहीं है; क्योंकि शादी के मुद्दे में उसकी माँ को उसके ऊपर अभिभावकता का अधिकार नहीं है।” उद्धरण समाप्त हुआ।
और अल्लाह ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।