हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.
शैख मुहम्मद बिन उसैमीन रहिमहुल्लाह ने फरमाया :
कुछ हाजियों से एहराम के अंदर होने वाली गलतियों में से चंद यह हैं :
पहली गलती :
मीक़ात से एहराम न बाँधना, चुनाँचे कुछ हाजी लोग विशेषकर हवाई जहाज़ से आने वाले मीक़ात से एहराम बाँधना त्याग कर देते हैं यहाँ तक कि जद्दा में उतर जाते हैं, हालांकि वे मीक़ात के ऊपर से गुज़रते हैं, जबकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने मीक़ात को उसके निवासियों के लिए निर्धारित किया और फरमाया : “वे (मीक़ात) उन (मीक़ात वालों) के लिए हैं तथा उनके अलावा लोगों में से उन (मीक़ातों) से गुज़रने वाले लोगों के लिए हैं।” इसे बुखारी (हदीस संख्या : 1524) और मुस्लिम (हदीस संख्या : 1181) ने रिवायत किया है।
तथा सहीह बुखारी में उमर बिन खत्ताब रज़ियल्लाहु अन्हु से प्रमाणित है कि जब ईराक़ वालों ने यह शिकायत की कि “क़र्नुल मनाज़िल” जिसे अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने नज्द वालों के लिए मीक़ात निर्धारित किया था उनके रास्ते से हटकर और दूर है, तो उमर रज़ियल्लाहु अन्हु ने फरमाया : “तुम अपने रास्ते में उसके बराबर की जगह को देखो” इसे बुखारी (हदीस संख्या : 1531) ने रिवायतकिया है। इससे पता चलता है कि मीक़ात के बराबर होना उससे गुज़रने के समान है, और जो व्यक्ति हवाई जहाज़ के ऊपर से मीक़ात के बराबर आता है वह मीक़ात से गुज़रने वाले के समान है, अतः उसके ऊपर अनिवार्य है कि जब वह मीक़ात के बराबर हो तो एहराम बाँधे, उसके लिए जायज़ नहीं है मीक़ात से आगे निकल जाए और और जद्दा में उतर कर वहाँ से एहराम बाँधे।
इस गलती के सुधार का तरीक़ा यह है कि इंसान अपने घर पर या हवाई अड्डे पर स्नान कर ले, और जहाज़ में तैयारी करते हुए एहराम के कपड़े पहन ले और अपने आम कपड़े उतार दे, फिर जब वह मीक़ात के बराबर पहुँचे तो वहाँ से (हज्ज या उम्रा की) नीयत कर ले, चुनाँचे वह हज्ज या उम्रा जिसका भी एहराम बाँधना चाहता है उसका तल्बियह पुकारे, और उसके लिए जायज़ नहीं है कि इसे जद्दा तक विलंब कर दे, यदि उसने ऐसा किया तो उसने गलती की, और जम्हूर अह्ले इल्म (विद्वानों की बहुमत) के निकट उसके ऊपर एक फिद्या अनिवार्य है जिसे वह मक्का में ज़ब्ह करेगा, और उसके गरीबों में वितरित कर देगा, क्योंकि उसने वाजिबात में से एक वाजिब को छोड़ दिया है।
दूसरी :
कुछ लोग यह समझते हैं कि जूते में एहराम बाँधना ज़रूरी है, और यदि एहराम बाँधते समय उसने जूते नहीं पहने थे तो बाद में उसके लिए उन्हें पहनना जायज़ नहीं है, हालांकि यह गलत विचार है, क्योंकि जूते में एहराम बाँधना न अनिवार्य है और न शर्त है, अतः बिना जूते के भी एहराम संपन्न हो जाता है, तथा इसमें कोई रूकावट नहीं है कि यदि उसने बिना जूते के एहराम बाँध लिए हैं तो उन्हें बाद में पहन ले ; वह बाद में भी जूते पहन सकता है, भले ही उसने जूते में एहराम नहीं बाँधे थे, और उसके ऊपर कोई आपत्ति (हरज) की बात नहीं है।
तीसरी :
कुछ लोग यह समझते हैं कि उसके लिए ज़रूरी है कि वह एहराम के कपड़े में ही एहराम बाँधे और वे कपड़े उसके ऊपर बाक़ी रहें यहाँ तक कि वह अपने एहराम से हलाल हो जाए, और उसके लिए इन कपड़ों को बदलना जायज़ नहीं है, जबकि यह एक गलत विचार है, क्योंकि मोहरिम इंसान के लिए किसी कारण या बिना कारण के एहराम के कपड़े पदलना जायज़ है, यदि उसने उसे ऐसी चीज़ के द्वारा बदला है जिसका एहराम की हालत में पहनना जायज़ है।
तथा इसमें औरतों और मर्दों के बीच कोई अंतर नहीं है, अतः जिसने भी किसी कपड़े में एहराम बाँधा और वह उसे बदलना चाहता है तो उसके लिए ऐसा करना जायज़ है, लेकिन कभी कभार उसके ऊपर उसे बदलना अनिवार्य हो जाता है जैसे कि यदि वह किसी गंदगी में लिप्त हो जाए जिसको धुलना उसे उतारे बिना संभव न हो, और कभी कभी उसको बदलना बेहतर होता है यदि वह किसी गंदी चीज़ के अलावा से अधिक मात्रा में दूषित हो जाए, तो ऐसी स्थिति में उसे सस्वच्छ एहराम से बदलना उचित है।
और कभी कभार मामले में विस्तार होता है, यदि चाहे तो उसे बदले और चाहे तो न बदले। महत्वपूर्ण बात यह है कि यह अक़ीदा रखना सही नहीं है यानी हाजी यह अक़ीदा रखे कि उसने यदि किसी कपड़ें में एहराम बाँधा है तो उसे निकालना जायज़ नहीं है यहाँ तक कि वह अपने एहराम से हलाल हो जाए।
चौथी :
कुछ लोग एहराम बाँधन के समय से ही इजि़्तबाअ कर लेते हैं अर्थात नीयत करने के समय से ही दायां कंधा खोल कर रखते हैं, इजि़्तबाअ यह है कि मनुष्य अपने दायें कंधे को निकाल ले और चादर के दोनों किनारों को अपने बायें कंधे पर डाल ले, चुनाँचे हम बहुत से हाजियों को - यदि अक्सर हाजी ऐसे नहीं हैं - देखते हैं कि वे एहराम बाँधन के समय से ही इजि़्तबाअ कर लेते हैं यहाँ तक कि वे हलाल हो जाते हैं, जबकि यह गलत है, इसलिए कि इज्तिबाअ केवल तवाफे क़ुदूम में होता है, न तो सई में होता है और न ही तवाफ से पहले होता है।
पाँचवीं :
कुछ लोग यह अक़ीदा रखते हैं कि एहराम के समय दो रकअत नमाज़ पढ़ना अनिवार्य है, जबकि यह भी गलत है ; क्योंकि यह अनिवार्य नहीं है कि आदमी एहराम के समय दो रकअत नमाज़ पढ़े, बल्कि राजेह कथन जिसकी ओर अबुल अब्बास शैखुल इस्लाम इब्ने तैमिय्यह रहिमहुल्लाह गए हैं यह है कि एहराम के लिए कोई विशिष्ट नमाज़ मसनून नहीं है, क्योंकि यह नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से वर्णित नहीं है।
जब इंसान स्नान कर ले और एहराम के कपड़े पहन ले तो वह बिना नमाज़ के नीयत करेगा, सिवाय इसके कि वह नमाज़ का समय हो, उदाहरण के तौर पर किसी फर्ज़ नमाज़ का समय हो गया हो या उसका समय क़रीब आ गया हो, और वह नमाज़ पढ़ने तक मीक़ात पर ठहरना चाहता हो, तो यहाँ पर बेहतर यह है कि उसका एहराम नमाज़ के बाद हो, लेकिन जहाँ तक इस बात का संबंध है कि वह जानबूझकर एहराम में किसी निर्धारित नमाज़ का क़सद करे, तो राजेह कथन यह है कि एहराम की कोई विशिेष्ट नमाज़ नहीं है।
“दलीलुल अख्ता अल्लती यक़ओ फीहा अल-हाज्जो वल-मोतमिरो” (हज्ज व उम्रा करने वालों से होने वाली गलतियों की मार्गदर्शिका) से समाप्त हुआ।