हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.
सर्व प्रथमः जमरतुल अक़बा
जमरतुल अक़बाः यह सबसे पहले कंकड़ मारा जानेवाला जमरह है, इसे ईद के दिन सूर्य उदय होने के बाद कंकड़ मारा जाता है।
तथा कमज़ोर महिलाओं और बच्चों तथा अन्य कमज़ोर लोगों के लिए ईद की रात (रात के अंत में) जमरतुल अक़बा को कंकड़ मारना जायज़ है, क्योंकि अस्मा बिन्त अबू बक्र रज़ियल्लाहु अन्हा ईद की रात चाँद के गायब होने की प्रतीक्षा करती थीं। जब वह गायब हो जाता तो मुज़दलिफ़ा से मिना की ओर रवाना हो जातीं और जमरह को कंकड़ मारती थीं।
- जमरतुल अक़बा को कंकड़ मारने का अंतिम समयः
जमरतुल अक़बा को कंकड़ मारने का समय ईद के दिन सूरज के डूबने तक रहता है।
जिसने सख्त भीड़ या जमरात से दूर होने की वजह से उसे रात के अंत तक विलंब कर दिया तो कोई आपत्ति की बात नहीं है। लेकिन ग्यारहवीं ज़ुल-हिज्जा के दिन के फज्र के उदय होने तक उसे विलंब नही करेगा।
दूसराः तश्रीक़ के दिनों (11, 12, 13 ज़ुल-हिज्जा के दिनों) में कंकड़ मारन
- कंकड़ मारने की शुरूआत
तश्रीक़ के दिनों में कंकड़ मारने की शुरूआत सूरज के ढलने (अर्थात् ज़ुहर की नमाज़ के समय के प्रवेश करने) से होती है।
- उसका अंतिम समयः
कंकड़ मारने का समय रात के अंत तक समाप्त हो जाता है। यदि कष्ट और भीड़ आदि हो तो रात में फज्र के उदय होने तक कंकड़ मारना जायज़ है, परंतु उसे फज्र के बाद तक विलंब करना जायज़ नहीं है।
ग्यारहवीं, बारहवीं और तेरहवीं ज़ुल-हिज्जा के दिन सूरज ढलने से पहले कंकड़ मारना जायज़ नहीं है। क्योंकि पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने सूरज ढलने के बाद ही कंकड़ मारा था और लोगों से फरमाया थाः (तुम मुझसे अपने हज्ज के कार्य सीख लो।) पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का - इस समय तक - कंकड़ मारने को विलंब करना जबकि वह सख्त गर्मी (के समय) में था, और दिन के आरंभिक हिस्से को छोड़ देना जबकि वह अधिक ठंडा और आसानी का कारण था, यह इस बात को इंगित करता है कि इस समय से पहले कंकड़ मारना जायज़ नहीं है। तथा इस बात को यह तथ्य भी इंगित करता है कि पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम सूरज ढलते ही ज़ुहर की नमाज़ पढ़ने से पहले ही कंकड़ मारते थे। इससे पता चलता है कि सूरज ढलने से पहले कंकड़ मारना जायज़ नहीं है, अन्यथा सूरज ढलने से पहले कंकड़ मारना बेहतर था। ताकि ज़ुहर की नमाज़ को उसके प्रथम समय पर पढ़ सकें। क्योंकि नमाज़ को उसके प्रथम समय में पढ़ना बेहतर है। निष्कर्ष यह कि प्रमाण इस बात को दर्शाते हैं कि तश्रीक़ के दिनों में सूरज ढलने से पहले कंकड़ मारना जायज़ नहीं है।
देखें : फतावा अर्कानुल इस्लाम (पृष्ठ 560)