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हदीस में किसी व्यक्ति को दुआ में यह कहने से मना किया गया है : “ऐ अल्लाह! यदि तू चाहे, तो मुझे क्षमा कर दे। ऐ अल्लाह! यदि तू चाहे, तो मुझपर दया कर दे।” क्योंकि कोई भी अल्लाह को मजबूर करने वाला नहीं है। अगर मामला ऐसा है, तो फिर इस्लामी शरीयत ने हमें दुआ करने के लिए क्यों आग्रह किया हैॽ दूसरे शब्दों में : जब अल्लाह हमें कभी जवाब ही नहीं देगा, तो हम दुआ क्यों करेंॽ
हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.
सर्व प्रथम :
बुख़ारी (हदीस संख्या : 7477) और मुस्लिम (हदीस संख्या : 2679) ने अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णन किया है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : “तुममें से कोई व्यक्ति यह न कहे : ऐ अल्लाह! यदि तू चाहे, तो मुझे क्षमा कर दे। यदि तू चाहे, तो मुझपर दया कर दे। यदि तू चाहे, तो मुझे जीविका प्रदान कर दे। बल्कि उसे चाहिए कि दृढ़ता (निश्चितता) के साथ प्रश्न करे। वह जो चाहता है, करता है। उसे कोई चीज़ मजबूर करने वाली नहीं है।”
अबू सईद अल-खुदरी रज़ियल्लाहु अन्हु ने कहा : “जब तुम अल्लाह से दुआ करो, तो उससे मांगने में ऊँचा लक्ष्य रखो। क्योंकि जो उसके पास है उसे कोई चीज़ ख़त्म नहीं कर सकती। तथा जब तुम दुआ करो, तो निश्चितता (दृढ़ता) के साथ दुआ करो। क्योंकि कोई भी चीज़ अल्लाह को मजबूर करने वाली नहीं है।”
“जामिउल-उलूम वल-हिकम” (2/48) से उद्धरण समाप्त हुआ।
इब्ने बत्ताल रहिमहुल्लाह ने कहा :
“इसमें इस बात का प्रमाण है कि मोमिन को दुआ करने में कठिन परिश्रम करना चाहिए और दुआ के क़बूल होने की आशा रखनी चाहिए। तथा उसे अल्लाह की दया से निराश नहीं होना चाहिए। क्योंकि वह एक करीम (उदार व दानशील) हस्ती को पुकार रहा है। यह नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से मुतवातिर (अनवरत) तरीक़े से वर्णित है।”
इब्ने बत्ताल की “शर्ह सहीहुल बुखारी” (10/99) से उद्धरण समाप्त हुआ।
क़ुर्तुबी रहिमहुल्लाह ने कहा :
“उसके शब्द : “अगर तू चाहे” में अल्लाह की क्षमा, प्रदान और दया से एक प्रकार की बेनियाज़ी पाई जाती है। जैसे कि कोई व्यक्ति कहे : यदि आप मुझे ऐसा और ऐसा देना चाहते हैं, तो दें। ऐसे शब्द का उपयोग केवल उससे बेनियाज़ होने पर ही किया जाता है। लेकिन जो व्यक्ति किसी चीज़ का ज़रूरतमंद होता है, तो वह उसे निश्चितता और दृढ़ता के साथ माँगता है, और वह उस व्यक्ति की तरह प्रश्न करता है जो उस चीज़ का ज़रूरतंद और हाजतमंद होता है, जिसका वह प्रश्न कर रहा होता है।
“तफ़सीर अल-क़ुर्तुबी (2/312) से उद्धरण समाप्त हुआ।
शैख़ इब्ने उसैमीन रहिमहुल्लाह ने कहा :
“दुआ को अल्लाह की इच्छा पर लंबित करने में तीन पहलुओं से सावधानी एवं चेतावनी योग्य बातें हैं :
पहला : इससे ऐसा महसूस होता है कि कोई अल्लाह को किसी चीज़ पर मजबूर करने वाला है, और यह कि उसके पीछे कोई ऐसा है जो उसे रोक सकता है। मानो कि इस तरीक़े से दुआ करने वाला यह कह रहा होता है : मैं तुम्हें मजबूर नहीं कर रहा हूँ। अगर तुम चाहो, तो माफ़ कर दो और अगर तुम चाहो, तो माफ़ न करो।
दूसरा : दुआ करने वाले का यह कहना कि : “यदि तू चाहे” से यह प्रतीत होता है कि मानो वह यह समझता है कि यह मामला अल्लाह के लिए बहुत बड़ा है। इसलिए हो सकता है कि वह उसे न चाहता हो, क्योंकि वह उसके निकट बहुत बड़ा है। उसी के समान यह है कि आप किसी व्यक्ति से कहें - और यह चित्र का उदाहरण चित्र के साथ है, वास्तविकता का उदाहरण वास्तविकता के साथ नहीं है - : मुझे दस लाख रियाल दे दो, अगर तुम चाहो। क्योंकि जब आप उससे यह कहते हैं, तो हो सकता है कि यह चीज़ उसके लिए बहुत बड़ी हो जिसे वह बोझ (भारी) समझता हो। इसलिए आपका यह कहना : “यदि तुम चाहो”, उस पर इस माँग को आसान बनाने के लिए है। लेकिन अल्लाह – महिमावान – को यह कहने की आश्यकता नहीं है कि : “अगर तू चाहे”; क्योंकि उसके लिए कुछ भी प्रदान करना बड़ी बात नहीं है। इसीलिए नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : “और उसे चाहिए कि अपनी इच्छा को बढ़ा दे, क्योंकि अल्लाह के लिए कोई भी चीज़ देना कठिन नहीं है।”
हदीस के शब्द : “और उसे चाहिए कि अपनी इच्छा को बढ़ा दे।” अर्थात् : वह थोड़ा या बहुत जो भी चाहे, माँगे और यह न कहे : यह बहुत अधिक है, मैं अल्लाह से इसे नहीं माँगूँगा। इसीलिए फरमाया : “क्योंकि अल्लाह के लिए कोई भी चीज़ देना कठिन नहीं है।”, अर्थात् : अल्लाह के यहाँ कोई चीज़ बड़ी नहीं है कि वह उसे रोक ले और उसे देने में कंजूसी करे। हर चीज़ जो वह प्रदान करता है, उसके निकट बड़ी नहीं है। चुनाँचे अल्लाह - सर्वशक्तिमान - एक शब्द से सभी प्राणियों को फिर से जीवित कर देगा। और यह एक महान बात है, लेकिन यह उसके लिए बहुत आसान है।
तीसरा : यह एहसास दिलाता है कि माँगने वाला अल्लाह से बेनियाज़ है, मानो कि वह कह रहा है : यदि तू चाहे, तो ऐसा कर और यदि तू चाहे, तो ऐसा न कर। मुझे परवाह नहीं है।”
“मजमूओ फतावा व रसाइल अल-उसैमीन” (10 / 917-918) से उद्धरण समाप्त हुआ।
अधिक जानकारी के लिए, प्रश्न संख्या : (105366) का उत्तर देखें।
दूसरी बात :
अल्लाह सर्वशक्तिमान ने अपने बंदों को दुआ करने का आदेश दिया है और उनसे दुआ स्वीकार करने का वादा किया है, जब वे इख़्लास के साथ (निष्ठापूर्वक) उससे दुआ करें और उसके सामने अपनी आवश्यकता व्यक्त करें, जैसा कि उसका फरमान है :
وقال ربكم ادعوني أستجب لكم [غافر:60] .
‘‘और तुम्हारे पालनहार ने कह दिया है कि मुझे पुकारो। मैं तुम्हारी दुआ स्वीकार करूँगा।'' (सूरत ग़ाफिर : 60)
यहाँ मुद्दा अल्लाह के पास मौजूद खज़ानों और उपहार एवं प्रदान का नहीं है। क्योंकि वे भरे हुए हैं, न तो खर्च करने से उनमें कमी आती है और न कोई प्रदान उनपर बहुत भारी (बहुत अधिक) होता है। और न ही अल्लाह ने जो कुछ वादा किया है, उसका मुद्दा है, क्योंकि अल्लाह महिमावान् अपने वादे का उल्लंघन नहीं करता। बल्कि असल मुद्दा इसमें है कि बंदा अल्लाह की दासता और आशा के स्थान पर खड़ा हो और दुआ की वास्तविकता को पूरा करे और उसे उसी तरह करे, जिस तरह अल्लाह ने अल्लाह ने अपने बंदों को उसे करने का आदेश दिया है। तथा वह उन सभी चीज़ों को छोड़ दे, जो दुआ के क़बूल होने में बाधक हैं और अल्लाह की ओर ले जाने वाले मार्ग को अवरुद्ध कर सकती हैं।
दुआ अल्लाह महिमावान् की उपासना का एक कार्य है, जो सबसे उत्कृष्ट इबादतों में से है, और उपासना का कोई ऐसा कार्य नहीं है जिसके कुछ शिष्टाचार, जिसकी कुछ शर्तों और जिसके करने के कुछ तौर-तरीक़े न हों जिनसे बंदे का सुसज्जित होना वांछनीय है।
तथा कोई भी कारण नहीं है, परंतु उसमें कुछ बाधाएँ हैं जो उसे उसके परिणाम से रोकती हैं और उसके प्रभाव को कमज़ोर करती हैं।
शैख़ इब्ने उसैमीन रहिमहुल्लाह ने कहा :
“क्या दुआ करने वाले को दुआ के क़बूल होने के बारे में निश्चित होना चाहिएॽ
इसका उत्तर यह है कि : यदि मामला अल्लाह की शक्ति से संबंधित है, तो आपको निश्चित होना चाहिए कि अल्लाह ऐसा करने में सक्षम है। अल्लाह तआला ने फरमाया :
وقال ربكم ادعوني أستجب لكم [غافر:60] .
‘‘और तुम्हारे पालनहार ने फरमाया : तुम मुझे पुकारो, मैं तुम्हारी दुआ क़बूल करूँगा।” (सूरत ग़ाफ़िर : 60)
लेकिन जहाँ तक आपके अपने दुआ करने का संबंध है, इस एतिबार से कि आपके पास जो बाधाएँ हैं, या कारणों की कमी है, तो आप क़बूल होने के बारे में अनिश्चित हो सकते हैं।
फिर भी, आपको अल्लाह के बारे में अच्छा गुमान रखना चाहिए। क्योंकि अल्लाह सर्वशक्तिमान् ने फरमाया है :
ادْعُونِي أَسْتَجِبْ لَكُمْ
“तुम मुझे पुकारो, मैं तुम्हारी दुआ क़बूल करूँगा।”
क्योंकि जिस हस्ती ने आपको पहली बार दुआ करने का सामर्थ्य प्रदान किया है, वह अंततः आपकी दुआ को क़बूल करके आपपर उपकार करेगा। खासकर यदि मनुष्य दुआ के क़बूल होने के कारणों को अपनाता और बाधाओं से बचता है। दुआ के स्वीकार किए जाने की बाधाओं में से एक दुआ में सीमा का उल्लंघन करना है, जैसे कि पाप करने की या रिश्तेदारी को तोड़ने की दुआ करना।”...
“मजमूओ फतावा व रसाइल अल-उसैमीन” (10/918) से उद्धरण समाप्त हुआ।
दुआ के सबसे महत्वपूर्ण शिष्टाचार प्रश्न संख्या : (36902) के उत्तर में, तथा दुआ को क़बूल होने से रोकने वाले कारणों को प्रश्न संख्या : (5113) के उत्तर में देखें।
तीसरा :
दुआ के क़बूल होने के लिए यह आवश्यक नहीं है कि आकांक्षित मुराद उसी रूप में पूरी हो जाए। दुआ करने वाला जब अपने पालनहार से दुआ करता है, तो उसकी दुआ के क़बूल होने के कई रूप होते हैं : या तो प्रश्नकर्ता की विशिष्ट रूप से वही माँग पूरी कर दी जाती है, या उससे उसी के समान बुराई टाल दी जाती है, या उसे उसके लिए क़ियामत के दिन अज्र व सवाब के रूप में संग्रहित कर दिया जाता है।
अबू सईद अल-खुदरी रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : जो भी मुसलमान कोई ऐसी दुआ करता है, जिसमें कोई पाप या रिश्ते-नाते तोड़ने की बात नहीं होती है, तो अल्लाह उसे उस दुआ के कारण तीन चीजों में से एक चीज़ अवश्य प्रदान कता है : या तो वह उसकी माँग को दुनिया ही में पूरी कर देता है, या वह उसे उसके लिए आख़िरत में संग्रहित कर देता है, या वह उससे उसी के समान कोई बुराई टाल देता है।” सहाबा ने यह सुनकर कहा : तब तो हम बहुत अधिक दुआ करेंगे। आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : अल्लाह इससे भी बहुत अधिक देने वाला है।”
इसे अहमद (हदीस संख्या : 10749) ने रिवायत किया है और अलबानी ने “सहीह अत-तर्ग़ीब वत-तर्हीब (हदीस संख्या : 1633) में इसे सहीह कहा है।
हाफ़िज़ इब्ने हजर रहिमहुल्लाह ने कहा : “प्रत्येक दुआ करने वाले की दुआ क़बूल की जाती है, लेकिन भिन्न-भिन्न तरीक़े से क़बूल की जाती है : कभी-कभी ठीक वही हो जाता है जिसके लिए उसने दुआ की थी, और कभी-कभी उसके बदले में कुछ और मिलता है। और इसके बारे में एक सहीह हदीस वर्णित है।”
“फत्ह़ुल-बारी” (11/95) से उद्धरण समाप्त हुआ।
शैख़ इब्ने बाज़ रहिमहुल्लाह ने कहा :
“आदमी को चाहिए कि आग्रहपूर्वक दुआ करे और अल्लाह सर्वशक्तिमान के प्रति अच्छा गुमान रखे। और इस बात को ज्ञान में रखे कि वह हिकमत वाला और सब कुछ जानने वाला है, वह कभी किसी हिकमत के कारण दुआ जल्द ही स्वीकार कर लेता है, और कभी किसी कारण उसे विलंबित कर देता है और कभी वह प्रश्न करने वाले को उससे बेहतर प्रदान करता है, जो उसने माँगा था।”
“मजमूओ फ़तावा इब्ने बाज़” (9/353) से उद्धरण समाप्त हुआ।
और अल्लाह तआला ही सबसे बेहतर जानता है।