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वित्र की नमाज़ के वर्णित तरीक़ों का विवरण

23-12-2024

प्रश्न 46544

वित्र की नमाज़ अदा करने का सर्वश्रेष्ठ तरीक़ा क्या है?

उत्तर का पाठ

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.

वित्र की नमाज़ अल्लाह तआला की निकटता प्राप्त करने के कार्यो में से एक महान कार्य है, यहाँ तक कि कुछ विद्वानों ने – और वे अहनाफ हैं – इसे वाजिब (अनिवार्य) कहा है। परंतु सही बात यह है कि यह मुअक्कदा सुन्नतों में से है, जिसका एक मुसलमान व्यक्ति को नियमित रूप से पालन करना चाहिए और उसे छोड़ना नहीं चाहिए।

इमाम अहमद रहिमहुल्लाह कहते हैं : ”जो कोई भी वित्र को छोड़ देता है, वह एक बुरा आदमी है, उसकी गवाही को स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए।” और यह वित्र की नमाज़ की ताकीद (निश्चिति) को इंगित करता है।

वित्र की नमाज़ के तरीक़े के बारे में बात को हम निम्नलिखित बिंदुओं में सारांशित कर सकते हैं :

वित्र की नमाज़ का समय :

जब इन्सान इशा की नमाज़ पढ़ ले, तो उसी समय से वित्र की नमाज़ का समय आरम्भ हो जाता है, अगरचे इशा की नमाज़ मग़्रिब की नमाज़ के साथ इकट्ठा कर पढ़ी गई हो, और उसका समय फज्र के उदय होने तक रहता है। क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है :

إِنَّ اللَّهَ قَدْ أَمَدَّكُمْ بِصَلاةٍ وهي الْوِتْرُ جَعَلَهُ اللَّهُ لَكُمْ فِيمَا بَيْنَ صَلاةِ الْعِشَاءِ إِلَى أَنْ يَطْلَعَ الْفَجْرُ

”निःसंदेह अल्लाह ने तुम्हें एक (अतिरिक्त) नमाज़ प्रदान की है, और वह वित्र है, जिसे अल्लाह ने तुम्हारे लिए इशा की नमाज़ और फज्र उदय होने के बीच में निर्धारित किया है।” इस हदीस को तिर्मिज़ी (हदीस संख्याः 425) ने रिवायत किया है और शैख अल्बानी ने “सहीहुत्तिर्मिज़ी” में इसे सहीह क़रार दिया है।

क्या वित्र को प्रथम समय में पढ़ना अफज़ल है या उसे विलंब कर के पढ़ना बेहतर है?

सुन्नत इस बात पर दलालत करती है कि जिस व्यक्ति को रात के आख़िरी हिस्से में जागने की उम्मीद हो तो उसके लिए वित्र को विलंब करके पढ़ना अफज़ल (सर्वश्रेष्ठ) है, क्योंकि रात के अंतिम हिस्से की नमाज़ सर्वश्रेष्ठ है, और इसमें फरिश्ते उपस्थित होते हैं। और जिस व्यक्ति को यह भय हो कि वह रात के आखिरी हिस्से में नहीं उठ पाएगा, तो वह सोने से पहले वित्र पढ़ ले। इसका प्रमाण जाबिर रज़ियल्लाहु अन्हु की यह हदीस है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया :

مَنْ خَافَ أَنْ لَّا يَقُومَ مِنْ آخِرِ اللَّيْلِ فَلْيُوتِرْ أَوَّلَهُ وَمَنْ طَمِعَ أَنْ يَقُومَ آخِرَهُ فَلْيُوتِرْ آخِرَ اللَّيْلِ فَإِنَّ صَلاةَ آخِرِ اللَّيْلِ مَشْهُودَةٌ وَذٰلِكَ أَفْضَلُ

(जिस व्यक्ति को यह डर हो कि वह रात के आख़िरी हिस्से में नहीं उठ सकेगा, तो उसे चाहिए कि वह रात के शुरू हिस्से में वित्र की नमाज़ पढ़ ले। और जिस को रात के अंत में उठने की उम्मीद हो, वह रात के अंत में वित्र की नमाज़ पढ़े। क्योंकि रात के अंतिम हिस्से की नमाज़ में फरिश्ते हाज़िर होते हैं, और यह सर्वश्रेष्ठ है।” इस हदीस को मुस्लिम (हदीस संख्याः 755) ने रिवायत किया है।

नववी रहिमहुल्लाह कहते हैं : ”और यही सही दृष्टिकोण है, और इसके अतिरिक्त शेष सामान्य हदीसों के अर्थ को इसी सहीह स्पष्ट तफ्सील (विस्तार) के आधार पर निर्धारित किया जायगा। इसी अध्याय से यह हदीस भी हैः ”मेरे खलील (दोस्त) ने मुझे सलाह दी है कि मैं वित्र पढ़ कर ही सोया करूँ।” यह हदीस उस व्यक्ति के हक़ में है जिसे (सोने के बाद) जागने का विश्वास नहीं है।” अंत हुआ। शर्ह मुस्लिम (3/277).

उसकी रक्अतों की संख्या :

कम से कम वित्र एक रक्अत है। इसका प्रमाण नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का यह फरमान है :

الْوِتْرُ رَكْعَةٌ مِنْ آخِرِ اللَّيْلِ

”वित्र रात के अंत में एक रक्अत है।” इसे मुस्लिम (हदीस संख्या: 752) ने रिवायत किया है। तथा नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है :

صَلاةُ اللَّيْلِ مَثْنَى مَثْنَى فَإِذَا خَشِيَ أَحَدُكُمْ الصُّبْحَ صَلَّى رَكْعَةً وَاحِدَةً تُوتِرُ لَهُ مَا قَدْ صَلَّى

”रात की नमाज़ दो-दो रक्अत है। अतः जब तुम में से किसी को सुबह होने का डर हो तो वह एक रक्अत पढ़ ले, जो उसकी पढ़ी हुई नमाज़ को वित्र (विषम) बना देगी।” इस हदीस को बुखारी (हदीस संख्याः 911) और मुस्लिम (हदीस संख्याः 749) ने रिवायत किया है।

अतः इन्सान अगर एक ही रक्अत वित्र अदा करता है तो उसनेसुन्नत का पालन किया … जबकि वित्र की नमाज़ तीन, पाँच, सात एवं नौ रक्अत भी जायज़ है।

यदि वह तीन रक्अत वित्र अदा करे तो इसके निम्नलिखित दो तरीक़े हैं और दोनों तरीक़े धर्मसंगत हैं :

प्रथम तरीक़ा : तीन रक्अत एक साथ एक तशह्हुद से पढ़े। आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा कहती हैं :

كَانَ النَّبِيُّ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ لَا يُسَلِّمُ فِي رَكعتي الوتر

”नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम वित्र की दो रक्अतों में सलाम नहीं फेरते थे।” और एक रिवायत के शब्द यह हैं :

كَانَ يُوتر بثلاث لا يَقعُد إلَّا فِي آخِرهنَّ

”नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम तीन रक्अत वित्र पढ़ते थे जिनके केवल अंत ही में आप बैठते थे।” इसे नसाई (2/234) और बैहक़ी (3/31) ने रिवायत किया है। इमाम नववी रहिमहुल्लाह “अल-मजमूअ” (4/7) में लिखते हैं : इसे नसाई ने हसन सनद के साथ और बैहक़ी ने सहीह सनद के साथ रिवायत किया है। अंत हुआ।

दूसरा तरीक़ा :

दो रक्अत पढ़कर सलाम फेर दे, फिर एक रक्अत वित्र पढ़े। जैसा कि इब्ने उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा से वर्णित है कि : “वह अपनी दो रकअत को सलाम के द्वारा एक रक्अत से अलग करते थे। (अर्थात वित्र की दो रक्अतों के बाद सलाम फेर कर एक रक्अत अलग पढ़ते थे) तथा उन्होंने बताया कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ऐसा ही किया करते थे।” इसे इब्ने हिब्बान (हदीस संख्याः 2435) ने रिवायत किया है, और हाफिज़ इब्ने हजर रहिमहुल्लाह फत्हुल बारी (2/482) में कहते हैं कि : “इसकी सनद क़वी (मज़बूत) है।” अंत हुआ।

लेकिन अगर वह पाँच या सात रक्अत वित्र पढ़ता है तो ये सब मिलाकर एकसाथ पढ़ी जाएंगी, और वह उनके अंत में केवल एक तशह्हुद करेगा और सलाम फेर देगा। जैसा कि आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा से वर्णित है, वह कहती हैं :

كانَ رسولُ الله صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ يصلي من الليل ثلاث عشرة ركعة يوتر من ذلك بخمس لا يجلس في شيء إلا في آخرها

”अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम रात को तेरह रक्अत पढ़ते थे, उन में पाँच रक्अत वित्र पढ़ते थे जिनके केवल अंत ही में बैठते थे।” इसे मुस्लिम (हदीस संख्याः 737) ने रिवायत किया है।

तथा उम्मे सलमा रज़ियल्लाहु अन्हा से रिवायत है वह कहती हैं :

كانَ النَّبيُ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ يُوترُ بخمس وبسبع ولا يُفصل بينهن بِسَلامٍ ولا كلام

”नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम वित्र की नमाज़ पाँच और सात रक्अते पढ़ते थे, जिनके बीच सलाम या बातचीत के द्वारा विच्छेद (पार्थक्य) नहीं करते थे।” इसे अहमद (6/290) और नसाई (हदीस संख्याः 1714) ने रिवायत किया है। इमाम नववी कहते हैं : इसकी सनद “जैयिद” है। “अल-फत्हुर्रब्बानी” (2/297), और शैख अल्बानी ने “सहीहुन-नसाई” में इसे सहीह क़रार दिया है।

और अगर वह नौ रक्अत वित्र पढ़े तो ये सब लगातार एकसाथ पढ़ी जाएंगी, और वह आठवीं रक्अत में तशह्हुद के लिए बैठेगा, फिर खड़ा हो जाएगा और सलाम नहीं फेरेगा, फिर नौवीं रक्अत में तशह्हुद के लिए बैठेगा और सलाम फेर देगा। जैसा कि आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा से सहीह मुस्लिम (हदीस संख्याः 746) में वर्णित है कि :

أن النبي صلى لله كان يُصَلِّي تِسْعَ رَكَعَاتٍ لا يَجْلِسُ فِيهَا إِلا فِي الثَّامِنَةِ فَيَذْكُرُ اللَّهَ وَيَحْمَدُهُ وَيَدْعُوهُ ثُمَّ يَنْهَضُ وَلا يُسَلِّمُ ثُمَّ يَقُومُ فَيُصَلِّ التَّاسِعَةَ ثُمَّ يَقْعُدُ فَيَذْكُرُ اللَّهَ وَيَحْمَدُهُ وَيَدْعُوهُ ثُمَّ يُسَلِّمُ تَسْلِيمًا يُسْمِعُنَا

”नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम नौ रक्अत नमाज़ (वित्र) पढ़ते थे, जिनमें आप आठवीं रक्अत में बैठते और अल्लाह का ज़िक्र करते, उसकी प्रशांसा करते और उससे दुआ मांगते, फिर सलाम फेरे बिना खड़े हो जाते और नौवीं रक्अत पढ़ते, फिर बैठ जाते और अल्लाह का ज़िक्र करते, उसकी प्रशंसा करते और उससे दुआ करते। फिर हमें सुनाकर सलाम फेरते थे।”

और अगर वह ग्यारह रक्अत (वित्र) पढ़े, तो हर दो रक्अत पर सलाम फेर दे और उन्हें एक रक्अत से वित्र बना ले।

वित्र में पूर्णता का न्यूनतम स्तर और उस में क्या पढ़ा जाएगा :

वित्र में कम से कम पूर्णता यह है कि वह दो रक्अत पढ़ कर सलाम फेर दे, फिर एक रक्अत पढ़े और सलाम फेर दे। तथा तीनों रकअतों को एक सलाम के साथ पढ़ना भी जायज़ है, परंतु उन्हें एक तशह्हुद के साथ पढ़ेगा, दो तशह्हुद के साथ नहीं, जैसा कि ऊपर गुज़र चुका।

तीनों रक्अतों में से पहली रक्अत में “सब्बेहिस्मा रब्बिकल आला” पूरी सूरत पढ़े, दूसरी रकअत में सूरत “अल-काफिरून” और तीसरी रक्अत में सूरत “अल-इख्लास” पढ़े।

इमाम नसाई (हदीस संख्याः 1729) ने उबै बिन कअब रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत किया है कि वह कहते हैं :

كَانَ رَسُولُ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ يَقْرَأُ فِي الْوِتْرِ بِسَبِّحْ اسْمَ رَبِّكَ الأَعْلَى وَقُلْ يَا أَيُّهَا الْكَافِرُونَ وَقُلْ هُوَ اللَّهُ أَحَدٌ

”अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम वित्र में “सब्बेहिस्मा रब्बिकल आला” और “क़ुल या अय्युहल काफिरून” और “क़ुल हुवल्लाहु अहद” पढ़ते थे।” शैख अल्बानी ने सहीहुन्नसाई में इसे सहीह क़रार दिया है।

वित्र की नमाज़ के उपर्युक्त सभी तरीक़े सुन्नत से प्रमाणित हैं। और सबसे उत्तम यह है कि मुसलमान व्यक्ति हमेशा एक ही तरीक़े पर नमाज़े वित्र न पढ़े, बल्कि कभी इस तरीक़े से और कभी दूसरे तरीक़े से पढ़े .. ताकि सुन्नत के सब तरीक़ों पर अमल हो जाए।

और अल्लाह तआला ही सब से अधिक ज्ञान रखता है।

नफ्ल (स्वेच्छिक) नमाज़
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