शनिवार 22 जुमादा-1 1446 - 23 नवंबर 2024
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अल्लाह के कथन : (إِنَّ الدِّينَ عِنْدَ اللَّهِ الْإِسْلَامُ) की व्याख्या

प्रश्न

सर्वशक्तिमान अल्लाह के कथन :  إِنَّ الدِّينَ عِنْدَ اللَّهِ الْإِسْلَامُ   “निःसंदेह दीन (धर्म) अल्लाह के निकट इस्लाम ही है।” की व्याख्या क्या हैॽ

उत्तर का सारांश

सामान्य अर्थ में इस्लाम का मतलब है : सारे संसारों के पालनहार अल्लाह के प्रति समर्पण, अधीनता और आज्ञाकारिता, तथा अकेले उसी की इबादत करना जिसका कोई साझी नहीं है। विशिष्ट अर्थ में इस्लाम से अभिप्राय : वह दीन (धर्म) है जिसे हमारे नबी मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम लेकर आए हैं, और जिसके अलावा अल्लाह किसी से भी कोई और धर्म स्वीकार नहीं करेगा।

उत्तर का पाठ

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.

अल्लाह तआला फरमाता है :

 إِنَّ الدِّينَ عِنْدَ اللَّهِ الْإِسْلَامُ

(آل عمران/ 19.)

“निःसंदेह दीन (धर्म) अल्लाह के निकट इस्लाम ही है।” [सूरत आल-इमरान : 19]

यहाँ अल्लाह तआला हमें बता रहा है कि इस्लाम के अलावा कोई भी धर्म उसे स्वीकार्य नहीं है, जिसका अर्थ है अल्लाह के प्रति समर्पण करना, उसके अधीन और उसका आज्ञाकारी होना, अकेले उसी की इबादत करना, और उस पर और उसके रसूलों पर और जो कुछ वे अल्लाह की ओर से लाए हैं, उसपर ईमान लाना। प्रत्येक रसूल के लिए एक शरीयत और एक तरीक़ा होता है, यहाँ तक कि अल्लाह ने उनमें से मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर इस कड़ी को समाप्त कर दिया। अतः आपको सभी लोगों के लिए रसूल बनाकर भेजा, इसलिए अल्लाह तआला उसके बाद किसी से भी आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के लाए हुए इस्लाम के अलावा कोई और धर्म स्वीकार नहीं करेगा।

पिछले नबियों का अनुसरण करने वाले सभी ईमानवाले सामान्य अर्थ में मुसलमान थे, और वे अपने इस्लाम के आधार पर जन्नत में प्रवेश करेंगे। यदि उनमें से कोई नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के नबी बनाए जाने का ज़माना पाता है, तो उससे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का अनुसरण करने के अलावा कुछ भी स्वीकार नहीं किया जाएगा।

क़तादा रज़ियल्लाहु अन्हु ने उक्त आयत की व्याख्या करते हुए कहा : “इस्लाम का अर्थ है यह गवाही देना कि अल्लाह के अलावा कोई भी इबादत के योग्य नहीं, और जो कुछ आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) अल्लाह के पास से लेकर आए हैं, उसका इक़रार करना, और वह अल्लाह का वह धर्म है जिसे उसने अपने लिए निर्धारित किया और जिसके साथ उसने अपने रसूलों को भेजा, और जिसकी ओर उसने अपने मित्रों को निर्देशित किया। वह इसके अलावा कुछ भी स्वीकार नहीं करेगा और केवल इसी के द्वारा प्रतिफल देगा।”

अबुल-आलियह रहिमहुल्लाह ने कहा : “इस्लाम का मतलब है सिर्फ़ अल्लाह के प्रति सच्ची भक्ति, और केवल उसी की इबादत करना जिसका कोई साझी नहीं।” “तफ़सीर अत-तबरी” (6/275)

इब्ने कसीर रहिमहुल्लाह ने कहा :

“अल्लाह अपने कथन :

إِنَّ الدِّينَ عِنْدَ اللَّهِ الإسْلامُ

‘‘निःसंदेह दीन (धर्म) अल्लाह के निकट इस्लाम ही है।” में हमें बताता है कि उसके निकट कोई ऐसा धर्म नहीं है जिसे वह इस्लाम के अलावा किसी से स्वीकार करेगा, जिसका अर्थ है रसूलों का उस चीज़ में अनुसरण करना जिसके साथ अल्लाह ने उन्हें हर समय में भेजा, यहाँ तक कि मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर उनका सिलसिला समाप्त कर दिया गया, जिसने अल्लाह की ओर पहुँचने के सभी रास्ते बंद कर दिए, सिवाय मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के माध्यम से। इसलिए जो कोई भी अल्लाह से मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के नबी बनाकर भेजे जाने के बाद आपकी शरीयत के अलावा किसी अन्य धर्म के साथ मिलता है, तो उसे स्वीकार नहीं किया जाएगा, जैसाकि अल्लाह तआला ने फरमाया :

وَمَنْ يَبْتَغِ غَيْرَ الإسْلامِ دِينًا فَلَنْ يُقْبَلَ مِنْهُ وَهُوَ فِي الآخِرَةِ مِنَ الْخَاسِرِينَ

“और जो इस्लाम के अलावा कोई और धर्म तलाश करे, तो वह उससे हरगिज़ स्वीकार नहीं किया जाएगा और वह आख़िरत में घाटा उठाने वालों में से होगा।” (सूरत आल इमरान : 85)

तथा उसने इस आयत में हमें यह सूचना देते हुए कि उसके निकट स्वीकार्य धर्म एकमात्र इस्लाम है, फरमाया :

إِنَّ الدِّينَ عِنْدَ اللَّهِ الإسْلامُ

“निःसंदेह दीन (धर्म) अल्लाह के निकट इस्लाम ही है।” [सूरत आल-इमरान : 19]”

“तफ़सीर इब्ने कसीर” (2/25) से उद्धरण समाप्त हुआ।

इब्नुल-जौज़ी रहिमहुल्लाह ने कहा :

“अज़-ज़ज्जाज रहिमहुल्लाह ने कहा : दीन (धर्म) हर उस चीज़ का नाम है जिसके साथ अल्लाह ने लोगों से अपनी इबादत करने के लिए अह्वान किया है और उन्हें उसका पालन करने का आदेश दिया है, और उसी के आधार पर उन्हें प्रतिफल देगा।

हमारे शैख अली बिन उबैदुल्लाह ने कहा : दीन वह है जिसका कोई व्यक्ति अल्लाह महिमावान की खातिर खुद को प्रतिबद्ध करता है।

इब्ने क़ुतैबा ने कहा : इस्लाम का मतलब है आज्ञाकारिता और अनुसरण में प्रवेश करना (यानी अल्लाह का आज्ञापालन करना और उसके प्रति समर्पित होना), इसी के समान इस्तिस्लाम का भी अर्थ है। अरबी भाषा में कहा जाता है : (سلم فلان لأمرك، واستسلم، وأسلم) यानी अमुक ने आपके आदेश का पालन किया, आज्ञाकारी हो गया और अपने आपको समर्पित कर दिया।” “ज़ादुल-मसीर” (1/267) से उद्धरण समाप्त हुआ।

अल्लामा अस-सा’दी रहिमहुल्लाह ने फरमाया :

“अल्लाह तआला सूचना दे रहा है कि

إِنَّ الدِّينَ عِنْدَ اللَّهِ

“निःसंदेह दीन (धर्म) अल्लाह के निकट” अर्थात् : वह धर्म जिसके अलावा अल्लाह का कोई दूसरा धर्म नहीं और जिसके अलावा कोई धर्म उसके निकट स्वीकार्य नहीं, वह इस्लाम है, जिसका अर्थ है बाहरी और आंतरिक रूप से, अकेले अल्लाह के प्रति समर्पण करना, उस चीज़ का पालन करते हुए जो कुछ उसने अपने रसूलों की ज़ुबानी धर्मसंगत किया है। अल्लाह तआला का फरमान है :

وَمَنْ يَبْتَغِ غَيْرَ الإِسْلامِ دِينًا فَلَنْ يُقْبَلَ مِنْهُ وَهُوَ فِي الآخِرَةِ مِنَ الْخَاسِرِينَ

“और जो इस्लाम के अलावा कोई और धर्म तलाश करे, तो वह उससे हरगिज़ स्वीकार नहीं किया जाएगा और वह आख़िरत में घाटा उठाने वालों में से होगा।” (सूरत आल इमरान : 85)

अतः जिस व्यक्ति ने इस्लाम के अलावा किसी अन्य धर्म का पालन किया, उसने वास्तव में अल्लाह के प्रति समर्पण नहीं किया, क्योंकि उसने उस मार्ग का पालन नहीं किया जो उसने अपने रसूलों के द्वारा निर्धारित किया है।”

“तफ़सीर अस-सा’दी” (पृष्ठ : 964) से उद्धरण समाप्त हुआ।

इब्ने उसैमीन रहिमहुल्लाह ने फरमाया :

“इस्लाम का सामान्य अर्थ में मतलब यह है : अल्लाह की उसके बनाए हुए विधान के अनुसार इबादत करना, उस समय से जब अल्लाह ने रसूलों को भेजा यहाँ तक कि क़ियामत क़ायम हो जाए, जैसाकि अल्लाह महिमावान ने बहुत-सी आयतों में इसका उल्लेख किया है, जो दर्शाता है कि पिछले सभी नियम अल्लाह सर्वशक्तिमान के लिए इस्लाम (यानी उसके प्रति समर्पण) हैं। अल्लाह तआला ने इबराहीम अलैहिस्सलाम के बारे में फरमाया :

رَبَّنَا وَاجْعَلْنَا مُسْلِمَيْنِ لَكَ وَمِنْ ذُرِّيَّتِنَا أُمَّةً مُسْلِمَةً

“ऐ हमारे पालनहार! और हमें अपना आज्ञाकारी बना और हमारी संतान में से भी एक समुदाय अपना आज्ञाकारी बना।” [सूरतुल-बक़रा : 128]

विशिष्ट अर्थ में, नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के भेजे जाने के बाद, इस्लाम : विशिष्ट है उसके लिए जिसके साथ नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को भेजा गया ; क्योंकि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को जिसके साथ भेजा गया, उसने पिछले सभी धर्मों को निरस्त कर दिया। इसलिए जिसने भी आपका अनुसरण किया वह मुसलमान बन गया और जिसने आपका विरोध किया, वह मुसलमान नहीं है। अतः रसूलों के अनुयायी अपने रसूलों के समय में मुसलमान थे। इस तरह यहूदी लोग मूसा (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के समय में मुसलमान थे, और ईसाई लोग ईसा (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के समय में मुसलमान थे। लेकिन जब नबी मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम भेजे गए और उन्होंने आपका इनकार किया, तो वे मुसलमान नहीं हैं।

यही इस्लामी धर्म वह धर्म है जो अल्लाह के यहाँ स्वीकार्य है और उसके पालन करने वाले के लिए लाभदायक है। अल्लाह महिमावान ने फरमाया :

إِنَّ الدِّينَ عِنْدَ اللَّهِ الإسْلامُ

“निःसंदेह दीन (धर्म) अल्लाह के निकट इस्लाम ही है।” [सूरत आल-इमरान : 19]”

तथा फरमाया :

وَمَنْ يَبْتَغِ غَيْرَ الإِسْلامِ دِينًا فَلَنْ يُقْبَلَ مِنْهُ وَهُوَ فِي الآخِرَةِ مِنَ الْخَاسِرِينَ

“और जो इस्लाम के अलावा कोई और धर्म तलाश करे, तो वह उससे हरगिज़ स्वीकार नहीं किया जाएगा और वह आख़िरत में घाटा उठाने वालों में से होगा।” (सूरत आल इमरान : 85)

यही इस्लाम वह इस्लाम है जिसके द्वारा अल्लाह ने मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और आपकी उम्मत पर उपकार जतलाया है। अल्लाह तआला ने फरमाया :

الْيَوْمَ أَكْمَلْتُ لَكُمْ دِينَكُمْ وَأَتْمَمْتُ عَلَيْكُمْ نِعْمَتِي وَرَضِيتُ لَكُمُ الإِسْلامَ دِيناً 

“आज मैंने तुम्हारे लिए तुम्हारा धर्म परिपूर्ण कर दिया, तथा तुमपर अपनी नेमत पूरी कर दी और तुम्हारे लिए इस्लाम को धर्म के तौर पर पसंद कर लिया।” (सूरतुल-माइदा :3) “शर्ह सलासतुल उसूल” (पृष्ठ 20) से उद्धरण समाप्त हुआ।

शैख सालेह अल-फौज़ान हफिज़हुल्लाह ने कहा :

“सभी अंबिया (अलैहिमुस्सलाम) का धर्म एक है, अगरचे उनकी शरीयतें (कानून की व्यवस्था) अलग-अलग हैं। अल्लाह तआला ने फरमाया :

 شَرَعَ لَكُمْ مِنَ الدِّينِ مَا وَصَّى بِهِ نُوحاً وَالَّذِي أَوْحَيْنَا إِلَيْكَ وَمَا وَصَّيْنَا بِهِ إِبْرَاهِيمَ وَمُوسَى وَعِيسَى أَنْ أَقِيمُوا الدِّينَ وَلا تَتَفَرَّقُوا فِيهِ

“उसने तुम्हारे लिए वही धर्म निर्धारित किया है, जिसका आदेश उसने नूह़ को दिया और जिसकी वह़्य हमने आपकी ओर की, तथा जिसका आदेश हमने इबराहीम तथा मूसा और ईसा को दिया, यह कि इस धर्म को क़ायम करो और उसके विषय में अलग-अलग न हो जाओ।” [सूरतुश-शूरा : 13]

तथा अल्लाह ने फरमाया :

 يَا أَيُّهَا الرُّسُلُ كُلُوا مِنَ الطَّيِّبَاتِ وَاعْمَلُوا صَالِحاً إِنِّي بِمَا تَعْمَلُونَ عَلِيمٌ وَإِنَّ هَذِهِ أُمَّتُكُمْ أُمَّةً وَاحِدَةً وَأَنَا رَبُّكُمْ فَاتَّقُونِ

“ऐ रसूलो! पाक चीज़ों में से खाओ तथा अच्छे कर्म करो। निश्चय मैं उससे भली-भाँति अवगत हूँ, जो तुम करते हो। और निःसंदेह यह तुम्हारा समुदाय (धर्म) एक ही समुदाय (धर्म) है और मैं तुम सबका पालनहार (पूज्य) हूँ। अतः मुझसे डरो।” [सूरतुल-मूमिनून : 51-52]

तथा नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : “हम पैगंबरों के समुदाय, हमारा धर्म एक है और पैगंबर बरादर-ए-‘अल्लाती (सौतेले भाई) हैं।”

नबियों का धर्म वही इस्लाम का धर्म है, जिसके अलावा अल्लाह कोई अन्य धर्म स्वीकार नहीं करेगा। यह एकेश्वरवाद के माध्यम से अल्लाह के प्रति समर्पण करने, आज्ञाकारिता के साथ उसके अधीन होने तथा शिर्क (बहुदेववाद) और उसके लोगों से दूर रहने का नाम है।

अल्लाह तआला ने नूह अलैहिस्सलाम के बारे में फरमाया :

 وَأُمِرْتُ أَنْ أَكُونَ مِنَ الْمُسْلِمِينَ

“और मुझे आदेश दिया गया है कि मैं मुसलमानों (आज्ञाकारियों) में से हो जाऊँ।” [यूनुस : 72]

तथा इबराहीम अलैहिस्सलाम के बारे में फरमाया :

 إِذْ قَالَ لَهُ رَبُّهُ أَسْلِمْ قَالَ أَسْلَمْتُ لِرَبِّ الْعَالَمِينَ

“जब उसके पालनहार ने उससे कहा : (मेरा) आज्ञाकारी हो जा। उसने कहा : मैं सर्व संसार के पालनहार का आज्ञाकारी हो गया।” [सूरतुल-बक़रा : 131]

तथा मूसा अलैहिस्सलाम के बारे में फरमाया :

 وَقَالَ مُوسَى يَا قَوْمِ إِنْ كُنْتُمْ آمَنْتُمْ بِاللَّهِ فَعَلَيْهِ تَوَكَّلُوا إِنْ كُنْتُمْ مُسْلِمِينَ

“और मूसा ने कहा : ऐ मेरी जाति के लोगो! यदि तुम अल्लाह पर ईमान लाए हो, तो उसी पर भरोसा करो, यदि तुम आज्ञाकारी हो।” [यूनुस : 84]

तथा मसीह अलैहिस्सलाम के बारे में फरमाया :

 وَإِذْ أَوْحَيْتُ إِلَى الْحَوَارِيِّينَ أَنْ آمِنُوا بِي وَبِرَسُولِي قَالُوا آمَنَّا وَاشْهَدْ بِأَنَّنَا مُسْلِمُونَ

“तथा (याद करो) जब मैंने हवारियों के दिलों में यह बात डाल दी कि मुझपर तथा मेरे रसूल (ईसा) पर ईमान लाओ। उन्होंने कहा : हम ईमान लाए और तू गवाह रह कि हम आज्ञाकारी हैं।”  [सरतुल-मायदा : 111]

तथा अल्लाह ने पिछले नबियों और तौरात के बारे में फरमाया :

 يَحْكُمُ بِهَا النَّبِيُّونَ الَّذِينَ أَسْلَمُوا لِلَّذِينَ هَادُوا 

“उसके अनुसार वे नबी जो आज्ञाकारी थे उन लोगों के लिए फ़ैसला करते थे, जो यहूदी बने।” [सूरतुल-मायदा : 44]

तथा अल्लाह तआला ने सबा की रानी के बारे में फरमाया :

 رَبِّ إِنِّي ظَلَمْتُ نَفْسِي وَأَسْلَمْتُ مَعَ سُلَيْمَانَ لِلَّهِ رَبِّ الْعَالَمِينَ

“(उसने कहा :) ऐ मेरे पालनहार! निःसंदेह मैंने अपने प्राण पर अत्याचार किया है और (अब) मैं सुलैमान के साथ सारे संसारों के पालनहार अल्लाह के लिए आज्ञाकारिणी हो गई।” [सूरतुन-नम्ल : 44]

इस प्रकार इस्लाम सभी नबियों का धर्म है; यह केवल अल्लाह के प्रति समर्पण करने का नाम है। इसलिए जो कोई भी उसके और उसके अलावा किसी और के प्रति समर्पण करता है; वह एक मुशरिक (अल्लाह के साथ दूसरों को साझीदार बनाने वाला) है। जबकि जो उसके प्रति समर्पण नहीं करता है, वह अहंकारी है। मुशरिक (यानी जो अल्लाह के साथ दूसरों को साझीदार बनाने वाला) और अल्लाह की इबादत से अहंकार करने वाला, दोनों काफिर हैं।

अल्लाह के प्रति समर्पण में अकेले उसकी इबादत करना और केवल उसी की आज्ञा का पालन करना शामिल है। इसका मतलब यह है कि हर समय उसकी आज्ञा का पालन किया जाए, उस समय जो उसने आदेश दिया है उसको करके। इसलिए यदि उसने इस्लाम की शुरुआत में (मुसलमानों को नमाज़ पढ़ते समय) बैतुल-मक़दिस की ओर मुँह करने का आदेश दिया, फिर उसके बाद उसने उन्हें काबा की ओर मुँह करने का आदेश दिया, तो दोनों कार्यों में से प्रत्येक, जब उसने उसका आदेश दिया : इस्लाम का हिस्सा थे। क्योंकि धर्म आज्ञाकारिता का नाम है, और दोनों कार्य अल्लाह की इबादत हैं, लेकिन कार्य के कुछ रूप अलग-अलग होते हैं, और वह (इस मामले में) उस दिशा से संबंधित है जिस दिशा में नमाज़ी मुँह करता है।

यही बात रसूलों पर भी लागू होती है : उनका धर्म एक है, अगरचे उनकी शरीयत (क़ानून), तरीक़ा, पद्धति और अनुष्ठान अलग-अलग हैं। क्योंकि यह तथ्य धर्म को एक होने से नहीं रोकता; न ही यह एक ही रसूल की शरीयत (कानून) में बाधक है (यानी एक ही रसूल की शरीयत में यह विविधता संभव है); जैसा कि हमने उदाहरण दिया कि पैगंबर मुहम्मद (सल्लल्लाहू अलैहि व सल्लम) की शरीयत में पहले बैतुल-मक़दिस की ओर मुँह करने का नियम था, फिर का’बा की ओर मुँह करने का हुक्म दिया गया।

इस प्रकार पैग़ंबरों का धर्म एक है, अगरचे उनकी शरीयतें अलग-अलग हैं। क्योंकि अल्लाह किसी हिकमत के कारण एक समय में कोई विधान निर्धारित कर सकता है, फिर दूसरे समय में किसी हिकमत से कुछ और विधान निर्धारित कर सकता है। इसलिए निरस्त किए गए विधान पर, उसके निरस्त किए जाने से पहले, अमल करना : अल्लाह की आज्ञाकारिता है, और निरस्त किए जाने के बाद उसके अनुसार कार्य करना अनिवार्य है जो (विधान) निरस्त करने वाला है। अतः जो कोई निरस्त किए गए (विधान) का पालन करता है और निरस्त करने वाले विधान को त्याग देता है, वह इस्लाम धर्म का पालन नहीं कर रहा है, और न ही वह किसी पैग़ंबर का अनुयायी है। यही कारण है कि यहूदी और ईसाई काफ़िर हो गए। क्योंकि उन्होंने एक बदले हुए और निरस्त कर दिए गए क़ानून का पालन किया।

अल्लाह तआला हर उम्मत के लिए वही क़ानून निर्धारित करता है जो उसकी स्थिति और समय के अनुकूल हो, तथा उसकी स्थिति को सुधारने कि लिए पर्याप्त हो और उसमें उसके हित भी शामिल हों। फिर अल्लाह उन क़ानूनों में से जो भी चाहता है उसे उसका समय समाप्त होने कारण निरस्त कर देता है। यहाँ तक कि उसने अपने नबी मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को अंतिम नबी बनाकर धरती के चेहरे पर सभी लोगों के पास, क़ियामत के दिन तक के लिए भेजा, और आपके लिए एक व्यापक क़ानून निर्धारित किया जो हर समय और स्थान के लिए उचित और अनुकूल है, जिसे बदला या निरस्त नहीं किया जा सकता। अतः धरती के सभी लोगों के पास आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का अनुसरण करने और आपपर ईमान लाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। अल्लाह अल्लाह तआला ने फरमाया :

قُلْ يَا أَيُّهَا النَّاسُ إِنِّي رَسُولُ اللَّهِ إِلَيْكُمْ جَمِيعاً

“(ऐ नबी!) आप कह दें कि ऐ मानव जाति के लोगो! निःसंदेह मैं तुम सब की ओर अल्लाह का रसूल हूँ।” [सूरतुल-आराफ़ : 159]”

“अल-इरशाद इला सहीह अल-एतिक़ाद” (पृष्ठ : 194) से उद्धरण समाप्त हुआ।

और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखने वाला है।

स्रोत: साइट इस्लाम प्रश्न और उत्तर