गुरुवार 20 जुमादा-1 1446 - 21 नवंबर 2024
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अल्लाह तआला के लिए उपासना की वास्तविकता

प्रश्न

मैं ने प्रश्न संख्या (11804 ) में पढ़ा है कि मनुष्य की रचना का एकमात्र लक्ष्य एवं उद्देश्य यह है कि वे केवल अल्लाह तआला की उपासना (इबादत) करें। तो क्या आप हमारे लिए इबादत की वास्तविकता को स्पष्ट करेंगे?

उत्तर का पाठ

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.

अरबी भाषा में इबादत का अर्थ : विनम्रता, विनति और नम्रता है, अरब लोग कहते हैं कि (هذا طريق مُعَبَّدْ) ‘‘हाज़ा तरीक़ुन मुअब्बद’’ (यह पक्का रास्ता है) अथार्त: अधिक चलने और पाँवों के रौंदने के कारण समतल और बराबर रास्ता है।

इस्लामी धर्म शास्त्र में, इबादत का प्रयोग दो चीजों के लिए होता है :

पहला : बन्दे का कार्य, जैसे कि कोई नमाज़ पढ़ता है या ज़कात देता है, तो उसका यह कार्य इबादत है। विद्वानों ने इसकी परिभाषा इस प्रकार की है:

अल्लाह तआला से प्रेम, भय और आशा के साथ, उसके आदेशों का पालन करके और उस की निषिद्ध की हुई चीज़ों से बचकर, उसकी आज्ञाकारिता करना।

दूसरा : जिस चीज़ का आदेश दिया गया है वही इबादत है, यद्यपि उसे किसी ने भी न किया हो, जैसे कि नमाज़ और ज़कात अपने तौर पर एक इबादत हैं, विद्वानों ने इस की परिभाषा इस प्रकार से की है:

इबादत हर उन ज़ाहिरी (बाहरी) और बातिनी (भीतरी) कार्यों और कथनों का एक व्यापक नाम है, जिन्हें अल्लाह तआला पसंद करता है और उन से प्रसन्न होता है।

इन आदेशों का नाम इबादत (उपासना) इस लिए रख़ा गया है क्योंकि मुकल्लफ़ लोग इन को विनम्रता एंव विनति के साथ अपने सर्वशक्तिमान पालनहार से प्रेम रखते हुए अंजाम देते हैं। इसलिए अल्लाह तआला की इबादत में उसके लिए पूर्ण विनम्रता एवं विनति के साथ-साथ उससे संपूर्ण प्यार का होना आवश्यक है।

हमारे सर्वशक्तिमान पालनहार ने हमारे लिए स्पष्ट कर दिया है कि मनुष्य और जिन्न की रचना का महान उद्देश्य और सर्वोच्च लक्ष्य यह है कि वे केवल एक अल्लाह की इबादत (पूजा) करें, उस के साथ किसी को साझी न करें, जैसा कि अल्लाह तआला का कथन है :

وما خلقت الجن والإنس إلا ليعبدون

الذاريات : 56

‘‘मैं ने जिन्न और इन्सानों को इसके सिवा किसी काम के लिए पैदा नहीं किया है कि वे मेरी ही बन्दगी करें।’’ (सुरतुज़ ज़ारियात : 56)

तो हम इस उद्देश्य तक कैसे पहुँच सकते हैं और इस लक्ष्य को कैसे प्राप्त कर सकते हैं?

बहुत से लोग यह समझते हैं कि इबादत, उपासना के कुछ प्रतीकों और संस्कारों के एक समूह का नाम है, जिन्हें अल्लाह तआला ने उनके निर्धारित समय में करने का आदेश दिया है जैसे, नमाज़, रोज़ा, और हज्ज, और इसी पर सब कुछ संपन्न हो जाता है . . . हालांकि मामला ऐसा नहीं है जैसाकि ये लोग गुमान करते हैं।

प्रश्न यह है कि उपासना के ये प्रतीक और संस्कार दिन व रात का कितना समय लेते हैं? बल्कि स्वयं मनुष्य के जीवन का कितना समय इन इबादतों में लगता है!?

तो फिर मनुष्य की आयु के शेष समय का क्या होगा? उसकी शेष शक्ति कहाँ गई? और उस का शेष समय कहाँ है? उसे कहाँ खर्च किया जायेगा और वह कहाँ जायेगा? क्या वह इबादत में खर्च किया जायेगा, या उसके अतिरित्क चीज़ों में? और यादि उसे इबादत के अतिरिक्त कामों में खर्च किया जायेगा, तो फिर मनुष्य की रचना का मूल लक्ष्य कैसे प्राप्त हो सकता है जिसे उपर्युक्स आयत ने पूर्ण रूप से केवल अल्लाह तआला की इबादत में सीमित कर दिया है?

और इसी प्रकार अल्लाह तआला का यह कथन कैसे साकार होगा :

قل إن صلاتي ونسكي ومحياي ومماتي لله رب العالمين

الأنعام : 162

“कहो, मेरी नमाज़, मेरे इबादत-सम्बन्धी सारे तारीके, मेरा जीना और मेरा मरना सब कुछ सारे संसार के रब अल्लाह के लिए है।” (सुरतुल अनआम : 162)

निःसन्देह उपासना एक सार्विक मुद्दा है जो मुसलमान के संपूर्ण जीवन पर हावी होता है, चुनाँचे जब वह अपनी जीविका की खोज़ में धरती पर घूमता और चक्कर लगाता है, तो उसका जीविका की खोज़ में चक्कर लगाना भी इबादत है, क्योंकि उसका पालनहार उसे इस चीज़ का अपने इस कथन में आदेश देता है:

فامشوا في مناكبها وكلوا من رزقه وإليه النشور

الملك : 15

अतः तुम उसके (धरती के) कन्धों (रास्तों) पर चलो और उसकी रोज़ी में से खाओ, उसी की ओर दुबारा उठकर (जीवित होकर) जाना है।'' (सुरतूल मुल्कः 15)

इसी प्रकार मुसलमान का सोना भी इबादत है, वह जब सोता है तो इस लिए सोता है ताकि अल्लाह की इबादत करने के लिए शक्ति जुटा सके। जैसा कि मुआज़ बिन ज़बल रज़ियल्लाहु उन्हु का कथन है: ”मैं अपनी नींद में उसी प्रकार से अज्र व सवाब प्राप्त करने की आशा रखता हूँ जिस प्रकार मैं अपने क़ियामुल्लैल में अज्र व सवाब हासिल करने की आशा रखता हूँ।” (सहीह बुख़ारी : 4342)

अर्थात जिस प्रकार वह क़ियामुल्लैल में इनाम और बदला प्राप्त करने की आशा रखते थे उसी प्रकार नींद में भी बदला और अज्र व सवाब के प्राप्ति की आशा रखते थे।

बल्कि मुसलमान तो यह पसंद करता है कि उसका ख़ाना, पानी और संभोग से लाभान्वि होना भी उसकी नेकियों के तुले में सम्मिलित हो। जैसा कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया:

“और तुम्हारे संभोग करने में भी सदक़ा (पुण्य) है, लोगों ने कहा : ऐ अल्लाह के रसूल हम में से एक व्यक्ति अपनी कामवासना की पूर्ति करता है और उसे उसमें पुण्य भी मिलेगा? आप ने कहा : तुम्हारा क्या विचार है यदि वह अपनी कामवासना को निषेध चीज़ों में पूरा करता, तो क्या उसे उस पर पाप मिलता? लोगों ने कहा : जी हाँ। आप ने फरमाया : तो इसी प्रकार जब उसने उसे वैध चीज़ों में रखा तो उसे उस पर पुण्य मिलेगा।'' (मुस्लिम हदीस संख्या : 1006)

इस महान पद तक पहुँचने का रास्ता यह है कि मनुष्य जीवन के विभन्न क्षेत्रों में काम करते हुए, अपने पालनहार का स्मरण करता रहे। वह अपने आप से प्रश्न करे कि क्या वह ऐसे स्थान पर है जिससे उसका पालनहार उससे प्रसन्न होता है या वह उसे उसके ऊपर क्रोधित करता है? यदि वह अल्लाह तआला की प्रसन्नता के स्थान पर है, तो उसे अल्लाह तआला की प्रशंसा और गुणगान करना चाहिए, और भालाई के कामों में बढ़ चढ़ कर भाग लेना चाहिए। और यदि वह अल्लाह तआला की प्रसन्नता के अलावा स्थान पर है, तो फ़िर उसे अल्लाह से क्षमा याचना करना चाहिए, और उसके समक्ष पश्चाताप करना चाहिए, जैसा कि अल्लाह के मुत्तक़ी व परहेज़गार (ईश्भय रखनेवाले) बन्दों का हाल होता है, जिनकी विशेषताओं का वणर्न करते हुए अल्लाह तआला ने फ़रमाया :

وَالَّذِينَ إِذَا فَعَلُوا فَاحِشَةً أَوْ ظَلَمُوا أَنْفُسَهُمْ ذَكَرُوا اللَّهَ فَاسْتَغْفَرُوا لِذُنُوبِهِمْ وَمَنْ يَغْفِرُ الذُّنُوبَ إِلا اللَّهُ وَلَمْ يُصِرُّوا عَلَى مَا فَعَلُوا وَهُمْ يَعْلَمُونَ . أُولَئِكَ جَزَاؤُهُمْ مَغْفِرَةٌ مِنْ رَبِّهِمْ وَجَنَّاتٌ تَجْرِي مِنْ تَحْتِهَا الأَنْهَارُ خَالِدِينَ فِيهَا وَنِعْمَ أَجْرُ الْعَامِلِينَ

آل عمران : 135-136

“और जिनका हाल यह है कि यदि कभी कोई अश्लील कार्य उनसे हो जाता है या किसी गुनाह में पड़ कर वे अपने ऊपर जुल्म कर बैठते हैं तो तत्काल अल्लाह तआला उन्हें याद आ जाता है और उस से अपने गुनाहों की माफ़ी चाहते हैं, क्योंकि अल्लाह के सिवा और कौन है जो गुनाह माफ़ कर सकता हो, और वे कभी जानते-बूझते अपने किए पर आग्रह (ज़िद) नहीं करते है। ऐसे लोगों का बदला उनके पालनहार के पास यह है कि वह उनको माफ़ कर देगा और ऐसे बाग़ों में उन्हें दाखिल करेगा जिनके नीचे नहरें बहती होंगी और वहाँ वे हमेशा रहेंगे, और क्या ही अच्छा बदला है अच्छे कर्म करनेवालों का।” (सूरत आल-इमरान : 135-136)

हमारे पुनीत पूर्वजों ; सहाबा रज़ियल्लाहु अन्हुम और उन के बाद आने वाले लोगों के चेतना और बोध में उपासना (इबादत) इसी प्रकार थी। चुनाँचे उन्होंने इसे कभी पूजा के अनुष्ठानों और संस्कारों के ढाँचे में सीमित नहीं किया, इस प्रकार से कि वही क्षण जिनमें वे उन अनुष्ठानों और संस्कारों को करते हैं एकमात्र पूजा के क्षण बन जाएँ, और उनका शेष जीवन ‘‘पूजा व उपासना से बाहर’’ हो। उनमें से किसी की चेतना और बुद्धि में यह बात होती थी कि उसका संपूर्ण जीवन इबादत का नाम है और ये संस्कार और अनुष्ठान, मात्र कुछ केंद्रित क्षण हैं जिनमें मनुष्य ईमान की शक्ति अर्जित करता है जो उसकी उससे अपेक्षित शेष इबादतों को करने में सहायता करती है। इसीलिए वे लोग इन इबादतों का विशेष रूप से अभिवादन और शुभागमन करते थे, जिस प्रकार कि मुसाफ़िर उस मार्गव्यय का अभिवादन करता है जो रास्ता चलने में उसकी सहायता करता है, तथा उस क्षण का स्वागत करता है जिसमें वह मार्गव्यय प्राप्त करता है।

वे लोग वास्तव में वैसे ही थे जैसे कि अल्लाह तआला ने उन की विशेषताओं का वर्णन किया है:

يذكرون الله قياما وقعودا وعلى جنوبهم

آل عمران : 191

“जो उठते-बैठते और लेटते, हर हाल में अल्लाह को याद करते हैं।” (सूरा अल इमरानः 191) अथार्त अपनी सभी स्थितियों में।

वे लोग अपनी ज़ुबान से अल्लाह तआला का जप व स्मरण करने के साथ-साथ अपने ह्रदय से भी स्मरण करते थे। अल्लाह तआला की महिमा और उसका भय उनके दिलों में हर कार्य के करने और हर बात के कहने के समय उपस्थित रहता था। जब उनमें से कोई व्यक्ति असावधान हो जाता, और उससे चूक या गलती हो जाती, तो उसकी हालत ऐसी हो जाती थी जैसाकि अल्लाह तआला ने सूरत आल इमरान की उपर्युक्त आयतों में उसका उल्लेख़ किया है।

यह बात अच्छी तरह जान लें - अल्लाह तआला आपको तौफीक़ (दैवयोग) प्रदान करे - कि हर मनुष्य प्राकृतिक और स्वभाविक रूप से उपासक और पूजक है। अर्थात वह उपासना और पूजा पर जंमित है। चुनाँचे या तो वह बिना किसी की साझदारी के केवल एक अल्लाह की पूजा करनेवाला होगा, और या तो वह अल्लाह के अलावा किसी अन्य चीज़ की पूज़ा करनेवाला होगा, चाहे वह अल्लाह के साथ ऐसा करे (यानी दूसरे की पूजा करे) या उसे छोड़कर, दोनों ही समान हैं! और इसी तरह की पूजा-पाठ या इबादत को अल्लाह तआला ‘‘शैतान की इबादत’’ का नाम देता है। क्योंकि यह शैतान के निमंत्रण को स्वीकार करना है। अल्लाह तआला का कथन है:

ألم أعهد إليكم يا بني آدم ألا تعبدوا الشيطان إنه لكم عدو مبين وأن اعبدوني هذا صراط مستقيم

يس :60

“ऐ आदम के बेटो! क्य मैंने तुमको ताकीद न की थी कि शैतान की बन्दगी न करो, वह तुम्हारा खुला दुश्मन है, और यह कि मेरी ही बन्दगी करो, यही सीधा मार्ग है।'' (सूरत यासीनः 60)

अल्लाह की इबादत करने वाले और शैतान की इबादत करने वाले मनुष्य की जीवन एक समान नहीं हो सकती है। अल्लाह तआला का कथन हैः

أفمن يمشي مكباًّ على وجهه أهدى أم من يمشي سويا على صراط مستقيم

الملك :22

“भला सोचो, क्या जो व्यक्ति अपने मुँह के बल औंधा चलता हो वह अधिक सीधे मार्ग पर है या वह जो सीधा होकर सीधे मार्ग पर चल रहा है ।'' (सूरतुल मुल्कः 22)

एक दूसरे स्थान पर अल्लाह तआला का कथन है कि :

قل هل يستوي الأعمى والبصير أم هل تستوي الظلمات والنور

الرعد : 16

''कहो, क्या अन्धा और आँखों वाला बराबर हो सकते हैं? क्या प्रकाश और अंधेरे समान होते हैं? (सूरतुर रअ़दः 16)

शैतान धीरे-धीरे मनुष्य को अल्लाह की पूजा से दूर करने का प्रयास करता है, चुनाँचे कभी वह मनुष्य को सामयिक तौर पर इबादत से दूर रखने में सफल रहता है, जैसे कि वह अवज्ञा में पड़ जाता है।

अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का कथन है कि : “जब व्यभिचारी व्यभिचार करता है तो वह व्यभिचार करते समय मोमिन नहीं होता है, और जब चोर चोरी करता है तो वह चोरी करते समय मोमिन नहीं होता है . . ” इसे बुख़ारी (हदीस संख्या : 2475) और मुस्लिम (हदीस संख्या : 57) ने रिवायत किया है।

और कभी कभी वह (शैतान) उसे पूरी तरह से दूर कर देता है जिसमें बन्दे और उसके पालनहार के बीच का संबंध खत्म हो जाता है, ऐसी स्थिति में मनुष्य या तो अल्लाह के साथ किसी को साझी बनाता है, या अल्लाह के साथ कुफ्र करता है, या विधर्मी हो जाता है, - इससे हम अल्लाह का शरण चाहते हैं -।

शैतान की बंदगी कभी तो इच्छाओं की पूजा होती है, जैसाकि अल्लाह तआला का कथन है:

أرأيت من اتخذ إلهه هواه أفأنت تكون عليه وكيلاً

الفرقان : 43

“कभी तुमने उस व्यक्ति की हालत पर विचार किया है जिसने अपने मन की इच्छा को अपना पूज्य बना लिया हो? क्य तुम ऐसे व्यक्ति को सीधे मार्ग पर लाने का ज़िम्मा ले सकते हो?” (सूरतुल फु़रक़ान : 43)

अतः यह बंदा जो अपने मन की इच्छा के आदेश का पालन करता है, चुनाँचे जो चीज़ उसे भली और अच्छी लगती है उसे करता है और जो चीज़ उसे बुरी लगती है उसे छोड़ देता है। तो वास्तव में वह अपने मन की इच्छा का आज्ञाकारी है, जिस चीज़ की ओर भी उसका मन उसे आमंत्रणित करता है वह उसका अनुसरण करता है, मानो कि वह उसकी पूजा करता है जिस प्रकार कि मनुष्य अपने ईश्वर की पूजा करता है।

और कभी कभार उसकी बंदगी दीनार और दिरहम (सोन और चाँदी) के लिए होती है, जैसाकि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है : “दीनार का बन्दा, दिरहम का बन्दा और धारीदार लाल या काले कुर्ते या पोशाक का बंदा तबाह और बर्बाद हो जाए, यदि उसे कुछ दिया जाए तो वह प्रसन्न होता है, और अगर कुछ न दिया जाए तो वह नाराज़ हो जाता है। उसका सर्वनाश हो और वह पीछे जाए, और अगर उसे काँटा चुभे तो उसका काँटा भी न निकाला जाए।” (सही बुख़ारी, हदीस संख्या : 2887)

इसी प्रकार हर वह व्यक्ति जिसका ह्रदय अल्लाह के अलावा किसी अन्य चीज़ जैसे अपने मन की इच्छा से संबंधित हो गया, तो यदि उसे वह चीज़ प्राप्त हो जाती है तो वह प्रसन्न होता है, और अगर उसे वह चीज़ प्राप्त नहीं होती है, तो वह नाराज़ हो जाता है। वास्तव में वह अपने मन की इच्छा का गुलाम होता है। क्योंकि वास्तविक दासता और गुलामी, दरअसल ह्रदय की दासता और गुलामी है।

फ़िर जिस मात्रा में ये इच्छाएं या इनमें से कुछ उसे गुलाम बना लेती हैं, उसी मात्रा में उसकी अपने सर्वशक्तिमान पालनहार की बंदगी में कमज़ोरी आ जाती है। यदि इन इच्छाओं के प्रति उसकी दासता व बंदगी स्थिर हो जाए यहाँ तक कि उसे संर्पूण रूप से धर्म से रोक दे तो वह मुशरिक (अनेकेश्वरवादी) और काफिर (नास्तिक) है। और यदि वह इच्छाएं और आकांक्षायें उसे उसके ऊपर अनिवार्य कुछ चीजों से रोक दें या उस के लिए कुछ निषिद्ध चीजों को करना सुसज्जित कर दें, जिससे उसको करने वाला धर्म से बाहर नहीं निकलता है, तो जिस मात्रा में उसे धर्म से रोक दिया गया है उसी मात्रा में उसके अपने पालनहार की बंदगी और उस पर ईमान में कमी आजाएगी।

हम अल्लाह सर्वशक्तिमान से प्रार्थना करते हैं कि वह हमें अपनी संपूर्ण बंदगी का अनुग्रह प्रदान करे, और हमें अपने निःस्वार्थ बन्दों और निकटवर्ती मित्रों में से बनाए। निःसन्देह वह सुननेवाला, निकट और क़बूल करनेवाला है।

और अल्लाह ही सबसे अधिक जाननेवाला और सबसे बेहतर फैसला करनेवाला है।

अल्लाह तआला अपने बन्दे और नबी मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम, उनकी संतान और सभी सहाबा पर अपनी दया व शांति अवतरित करे।

इस विषय में अधिक विस्तार से जानकारी प्राप्त करने के लिए निम्न पुस्तकों का अध्यन अवश्य करें।

(मफ़ाहीम यंबग़ी अन तुसह्हहा, लेखक: मुहम्मद क़ुतुब 20-23, 174-182) और (अल-उबूदिय्या, लेखक: शैखुल इस्लाम इबने तैमिय्या)।

स्रोत: साइट इस्लाम प्रश्न और उत्तर