शुक्रवार 24 रबीउलअव्वल 1446 - 27 सितंबर 2024
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एक नई मुस्लिम महिला को सूरतुल-फातिहा पढ़ने में कठिनाई होती है

प्रश्न

मैं अंग्रेजी भाषा बोलती हूँ (जो मेरी मूल भाषा है) और मैं अरबी सीखने की कोशिश कर रही हूँ। इस्लाम स्वीकारने के बाद मैंने सूरतुल-फातिहा सीखी, लेकिन कुछ अक्षर ऐसे हैं जिनका मैं उच्चारण नहीं कर पाती तथा कुछ अक्षर ऐसे हैं जिनका उच्चारण मैं गलत करती हूँ। इस्लामी धर्मशात्र (फ़िक़्ह) की एक किताब में मैंने पढ़ा है कि अगर कोई व्यक्ति नमाज़ में सूरतुल-फ़ातिहा का एक अक्षर ग़लत पढ़ देता है, तो उसकी नमाज़ अमान्य हो जाती है। मैं अपने पाठ को सही करने के लिए कुछ रिकॉर्ड किए गए पाठों को सुनने की कोशिश कर रही हूँ, लेकिन मैं अभी भी गलतियाँ करती हूँ। मैं अक्षरों के उच्चारण को सही करने के लिए अपने पढ़ने के दौरान बहुत रुकती हूँ, और मैं अक्सर सूरतुल-फ़ातिहा को एक से अधिक बार दोहराती हूँ, ऐसी स्थिति में मुझे क्या करना चाहिए?

उत्तर का सारांश

सूरतुल-फ़ातिहा पढ़ने में गलती करने वाले की नमाज़ का अमान्य होना सामान्य रूप से हर किसी पर लागू नहीं होता है। क्योंकि सूरतुल-फ़ातिहा पढ़ने में होने वाली हर गलती नमाज़ को अमान्य नहीं करती है, बल्कि नमाज़ तभी अमान्य होती है जब वह सूरतुल-फ़ातिहा में से कुछ छोड़ दे या ए’राब (मात्राओं, यानी स्वर चिह्न : ज़बर, ज़ेर और पेश आदि) में ऐसा बदलाव कर दे जो शब्द के अर्थ को विकृत कर दे। फिर यह नियम, अर्थात् नमाज़ की अमान्यता, केवल उस व्यक्ति पर लागू होता है जो सूरतुल-फ़ातिहा को सही ढंग से पढ़ने में सक्षम है या वह इसे सीखने में सक्षम है, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। जहाँ तक उस व्यक्ति की बात है जो ऐसा करने में असमर्थ है, वह इसे अपनी शक्ति के अनुसार पढ़ेगा और इससे उसे कोई नुकसान नहीं होगा। क्योंकि अल्लाह किसी आत्मा पर उसकी क्षमता से अधिक बोझ नहीं डालता।

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.

क्या सूरतुल-फ़ातिहा पढ़ना नमाज़ का स्तंभ है

1- सूरतुल-फ़ातिहा पढ़ना – विद्वानों के सही कथन के अनुसार – नमाज़ का एक स्तंभ (ज़रूरी हिस्सा) है और यह इमाम (नमाज़ का नेतृत्व करने वाले), इमाम के पीछे नमाज़ पढ़ने वाले (मुक़्तदी) और अकेले नमाज़ पढ़ने वाले व्यक्ति पर अनिवार्य है।

अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है, वह नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से रिवायत करते हैं कि आपने फरमाया : “जिस व्यक्ति ने कोई नमाज़ पढ़ी जिसमें उसने उम्मुल-किताब (यानी, सूरतुल-फ़ातिहा) नहीं पढ़ी, तो वह (नमाज़) अधूरी है – आपने इसे तीन बार फरमाया – पूर्ण नहीं है। अबू हुरैरा से कहा गया : हम इमाम के पीछे होते हैं (तो उसे कैसे पढ़ें)? उन्होंने कहा : इसे अपने दिल में पढ़ लो। क्योंकि मैंने अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को फरमाता हुए सुना है : अल्लाह तआला ने फरमाया : मैंने नमाज़ को अपने और अपने बंदे के बीच आधा-आधा बाँट दिया है, और मेरे बंदे के लिए वह कुछ है जो उसने माँगा। जब बंदा कहता है : अल-हम्दु लिल्लाहि रब्बिल-आलमीन (हर प्रकार की प्रशंसा केवल अल्लाह के लिए है, जो सारे संसारों का पालनहार है।), तो अल्लाह कहता है : मेरे बंदे ने मेरी प्रशंसा की। और जब वह कहता है : अर-रहमानिर-रहीम (जो अत्यंत दयावान, असीम दयालु है), तो अल्लाह कहता है : मेरे बंदे ने मेरी स्तुति की। और जब वह कहता है : “मालिकि यौमिददीन (प्रतिफल के दिन का मालिक है), तो अल्लाह कहता है : मेरे बंदे ने मेरी महिमा की – और एक बार पर आपने फरमाया : मेरे बंदे ने अपने मामले को मेरे हवाले कर दिया। और जब वह कहता है : इय्याका ना’बुदु व इय्याका नस्तईन (हम केवल तेरी पूजा करते हैं, और अकेले तुझी से हम मदद मांगते हैं), तो अल्लाह कहता है : यह मेरे और मेरे बंदे के बीच में है, और मेरे बंदे को वह मिलेगा जो उसने मांगा है। फिर जब वह कहता है : इहदिनस्-सिरातल-मुस्तक़ीम, सिरातल-लज़ीना अन्-अम्ता अलैहिम ग़ैरिल-मग़ज़ूबि अलैहिम व लज़्ज़ाल्लीन (हमें सीधे मार्ग पर चला। उन लोगों का मार्ग, जिनपर तूने अनुग्रह किया। उनका नहीं, जिनपर तेरा प्रकोप हुआ और न ही उनका, जो गुमराह हैं।), तो अल्लाह कहता है : यह मेरे बंदे के लिए है, और मेरे बंदे को वह मिलेगा जो उसने मांगा है।” इसे मुस्लिम (हदीस संख्या : 395) ने रिवायत किया है।

इसलिए नमाज़ पढ़ने वाले को सूरतुल-फ़ातिहा को अरबी भाषा में सही ढंग से पढ़ना चाहिए। क्योंकि हमें क़ुरआन को वैसे ही पढ़ने का आदेश दिया गया है जैसा कि वह अवतरित हुआ है।

उस व्यक्ति का हुक्म जिसके लिए सूरतुल-फ़ातिहा पढ़ना दुर्लभ है

2- जो व्यक्ति अपनी ज़बान में किसी दोष के कारण या अरबी-भाषी न होने के कारण सूरतुल-फ़ातिहा का सही उच्चारण करने में असमर्थ है : उसपर अनिवार्य है कि वह सीखे और यथासंभव अपने उच्चारण को सही करे।

यदि वह ऐसा न कर सके, तो वह इस दायित्व से मुक्त हो जाएगा, क्योंकि अल्लाह लोगों पर उनकी क्षमता से ज़्यादा बोझ नहीं डालता। अल्लाह ने फरमाया :

لا يكلف الله نفساً إلا وسعها

[البقرة/286]

“अल्लाह किसी व्यक्ति पर उसकी क्षमता से ज़्यादा बोझ नहीं डालता।” [सूरतुल-बक़रा : 286]

 सूरतुल-फ़ातिहा पढ़ने में पूरी तरह से असमर्थ व्यक्ति का हुक्म

3- जो व्यक्ति सूरतुल-फ़ातिहा पढ़ने में बिलकुल असमर्थ है या वह उसे सीखने में असमर्थ है, या उसने अभी-अभी इस्लाम स्वीकार किया है और नमाज़ का समय आ गया और उसके सीखने के लिए पर्याप्त समय नहीं है, तो उसके लिए निम्नलिखित हदीस में राहत और समाधान है :

अब्दुल्लाह बिन अबी औफा से वर्णित है कि उन्होंने कहा : एक आदमी नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास आया और कहा : “ऐ अल्लाह के रसूल, मुझे कोई ऐसी चीज़ सिखाएँ जो मेरे लिए क़ुरआन के बदले पर्याप्त हो, क्योंकि मैं पढ़ना नहीं जानता।” आपने फरमाया : “कहो : सुब्हानल्लाह, अल-हम्दु लिल्लाह, ला इलाहा इल्लल्लाह, अल्लाहु अकबर, ला हौला वला क़ुव्वता इल्ला बिल्लाह (अल्लाह की महिमा हो, हर प्रकार की प्रशंसा अल्लाह के लिए है, अल्लाह के अलावा कोई सत्य पूज्य नहीं और अल्लाह सबसे महान है, अल्लाह की तौफ़ीक़ के बिना न कोई भलाई करने की शक्ति है और न किसी बुराई से बचने की ताकत)।” उस आदमी ने अपने हाथ से उसे पकड़ लिया और कहा : यह मेरे पालनहार के लिए है, तो मेरे लिए क्या है?” आपने फरमाया : “कहो : अल्लाहुम्मा इग़फिर ली वर्हमनी वह्दिनी वर्ज़ुक़्नी व आफिनी (ऐ अल्लाह, मुझे माफ़ कर दे, मुझ पर दया कर, मेरा मार्गदर्शन कर, मुझे रोज़ी दे और मुझे स्वास्थ्य प्रदान कर)।” उसने इसे अपने दूसरे हाथ से पकड़ लिया और खड़ा हो गया।” इसे नसाई (हदीस संख्या : 924) और अबू दाऊद (हदीस संख्या : 832) ने रिवायत किया है।

इस हदीस के इस्नाद को अल-मुंज़री ने “अत-तरगीब वत-तरहीब” (2/430) में जैयिद कहा है। और हाफ़िज़ इब्ने हजर ने “अत-तल्खीस अल-हबीर” (1/236) में इसके हसन होने का संकेत दिया है।

इब्ने क़ुदामा रहिमहुल्लाह ने कहा :

“यदि वह क़ुरआन में से कुछ भी नहीं जानता है, और उसके लिए नमाज़ का समय समाप्त होने से पहले इसे सीखना संभव नहीं है : तो उसके लिए “सुब्हानल्लाह, अल-हम्दु लिल्लाह, ला इलाहा इल्लल्लाह, अल्लाहु अकबर, ला हौला वला क़ुव्वता इल्ला बिल्लाह (अल्लाह की महिमा हो, हर प्रकार की प्रशंसा अल्लाह के लिए है, अल्लाह के अलावा कोई सत्य पूज्य नहीं और अल्लाह सबसे महान है, अल्लाह की तौफ़ीक़ के बिना न कोई भलाई करने की शक्ति है और न किसी बुराई से बचने की ताकत) कहना आवश्यक है। क्योंकि अबू दाऊद ने रिवायत किया है : एक आदमी नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास आया और कहा : “मैं क़रआन से कुछ भी नहीं सीख सकता। इसलिए मुझे कुछ सिखाएँ जो मेरे लिए क़ुरआन के बदले पर्याप्त हो। आपने फरमाया : “कहो : सुब्हानल्लाह, अल-हम्दु लिल्लाह, ला इलाहा इल्लल्लाह, अल्लाहु अकबर, ला हौला वला क़ुव्वता इल्ला बिल्लाह (अल्लाह की महिमा हो, हर प्रकार की प्रशंसा अल्लाह के लिए है, अल्लाह के अलावा कोई सत्य पूज्य नहीं और अल्लाह सबसे महान है, अल्लाह की तौफ़ीक़ के बिना न कोई भलाई करने की शक्ति है और न किसी बुराई से बचने की ताकत)।” उस आदमी ने कहा : यह मेरे पालनहार के लिए है, तो मेरे लिए क्या है?” आपने फरमाया : “कहो : ‘अल्लाहुम्मा इग़फिर ली वर्हमनी वर्ज़ुक़्नी वह्दिनी व आफिनी’ (ऐ अल्लाह, मुझे माफ़ कर दे, मुझ पर दया कर, मुझे रोज़ी दे, मेरा मार्गदर्शन कर और मुझे स्वास्थ्य प्रदान कर)।”

लेकिन उसके लिए पहले पाँच वाक्यों से अधिक कहना आवश्यक नहीं है; क्योंकि पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने सिर्फ़ इतना ही कहा था। आपने उसे केवल तभी ज़्यादा बताया जब उसने वृद्धि के लिए माँग की।” उद्धरण समाप्त हुआ।

यदि वह सूरतुल-फ़ातिहा का कुछ हिस्सा पढ़ने में सक्षम है और कुछ नहीं, तो उसके लिए उतना हिस्सा पढ़ना अनिवार्य है जितना उसके लिए संभव है।

तथा वह जितना हिस्सा अच्छी तरह से पढ़ सकता है, उसे उतना ही इतनी मात्रा में दोहराना चाहिए (कि वह जो कुछ भी पढ़े उसकी कुल संख्या सूरतुल-फ़ातिहा की आयतों की संख्या के बराबर सात आयत हो जाए)।

इब्ने क़ुदामा ने कहा :

“उसके लिए अल्हम्दु-लिल्लाह (सब प्रशंसा अल्लाह के लिए योग्य है), ला इलाहा इल्लल्लाह (अल्लाह के अलावा कोई पूज्य नहीं) और अल्लाहु अकबर (अल्लाह सबसे महान है) कहना पर्याप्त हो सकता है, क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है : “यदि तुम्हें कुछ कुरआन याद हो, तो उसे पढ़ो, अन्यथा “अल्हम्दु-लिल्लाह, ला इलाहा इल्लल्लाह अल्लाह और अल्लाहु अकबर” कहो।” इसे अबू दाऊद ने रिवायत किया है।”

देखिए : “अल-मुग़्नी” (1/189-190)

क्या सूरतुल-फ़ातिहा के एक अक्षर में गलती करने वाले की नमाज़ अमान्य है?

आपने जो पढ़ा है कि अगर नमाज़ पढ़ने वाला सूरतुल-फ़ातिहा के एक अक्षर में भी ग़लती कर दे, तो उसकी नमाज़ अमान्य हो जाती है, तो यह सामान्य रूप से नहीं है। सूरतुल-फ़ातिहा में होने वाली हर गलती नमाज़ को अमान्य नहीं करती है; बल्कि नमाज़ तभी अमान्य होती है जब वह सूरतुल-फ़ातिहा में से कुछ छोड़ दे या ए’राब (मात्राओं, यानी स्वर चिह्न : ज़बर, ज़ेर और पेश आदि) में ऐसा बदलाव कर दे जो शब्द के अर्थ को विकृत कर दे। फिर नमाज़ के अमान्य होने का यह नियम केवल उस व्यक्ति पर लागू होता है जो सूरतुल-फ़ातिहा को सही ढंग से पढ़ने में सक्षम है या वह इसे सीखने में सक्षम है, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया।

जहाँ तक उस व्यक्ति की बात है जो ऐसा करने में असमर्थ है, वह इसे अपनी क्षमता के अनुसार पढ़ेगा और इससे उसे कोई नुकसान नहीं होगा। क्योंकि अल्लाह किसी आत्मा पर उसकी क्षमता से अधिक बोझ नहीं डालता। तथा विद्वानों द्वारा स्थापित नियमों में से एक यह है कि अक्षमता के साथ कोई कर्तव्य नहीं है।”

देखें : अल-मुगनी (2/154)।

इस स्थिति में, उसे अपनी क्षमता के अनुसार सूरतुल-फातिहा पढ़ना चाहिए, फिर उसके साथ तस्बीह, तहमीद, तकबीर और तहलील पढ़ना चाहिए, ताकि सूरतुल-फातिहा में से जो कुछ उससे छूट गया है उसकी भरपाई हो सके।

देखें : “अल-मजमू’” (3/375)।

क्या सूरतुल-फातिहा पढ़ने में गलती करने वाले की नमाज़ सही (मान्य) है?

शैखुल-इस्लाम इब्ने तैमिय्या रहिमहुल्लाह से प्रश्न किया गया :

उनसे पूछा गया : क्या जो व्यक्ति सूरतुल-फातिहा पढ़ने में गलती करता है, उसकी नमाज सही है या नहीं?

उन्होंने उत्तर दिया :

“जहाँ तक सूरतुल-फ़ातिहा में उस गलती का सवाल है जो अर्थ को विकृत नहीं करती है, तो ऐसे व्यक्ति की नमाज़ सही (मान्य) है, चाहे वह इमाम के रूप में हो या अकेले नमाज़ पढ़ रहा हो… जहाँ तक उस गलती का सवाल है जो अर्थ को विकृत कर देती है : तो यदि वह व्यक्ति उसका अर्थ जानता है, जैसे कि यदि वह उदाहरण के तौर पर कहता है : “सिरातल-लज़ीना अन’अमतु अलैहिम” (यानी उन लोगों का मार्ग जिन पर मैंने अनुकंपा की है), जबकि वह जानता है कि यह वक्ता का सर्वनाम है, तो उसकी नमाज़ सही नहीं होगी। और यदि वह नहीं जानता है कि यह अर्थ को विकृत कर देती है और वह यह समझता है कि यह द्वितीय व्यक्ति सर्वनाम है, तो इसके बारे में विद्वानों के बीच मतभेद है। और अल्लाह ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।” उद्धरण समाप्त हुआ।

“मजमूउल-फतावा” (22/443)

उनसे यह भी पूछा गया कि यदि वह (व्यक्ति) अपनी नमाज़ में ज़ेर की मात्रा पर समाप्त होने वाले शब्द को ज़बर की मात्रा के साथ पढ़ दे तो उसका क्या हुक्म हैॽ

तो उन्होंने उत्तर दिया :

“यदि वह उसे जानता है (और वह जानबूझकर ऐसा करता है), तो उसकी नमाज़ अमान्य है, क्योंकि वह अपनी नमाज़ में खिलवाड़ कर रहा है। लेकिन अगर वह इससे अनजान है, तो विद्वानों के दो विचारों में से एक के अनुसार उसकी नमाज़ अमान्य नहीं है।” उद्धरण समाप्त हुआ।

“मजमूउल-फतावा” (22/444)

नई मुस्लिम महिला के लिए सुझाव

इसलिए – मेरी नई मुस्लिम बहन – आपको कड़ी मेहनत करनी चाहिए, तथा इसका ख़ूब अभ्यास करना चाहिए और बार-बार दोहराते रहना चाहिए। साथ ही किसी अन्य मुस्लिम बहन से पढ़ सकती हैं जो इसे अच्छी तरह से पढ़ना जानती हो। इसके अलावा, टेपों और रेडियो पर अच्छे पाठकों द्वारा पढ़ी गई सूरतों को अधिक से अधिक सुनते रहना चाहिए।

तथा तनाव और चिंता की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि अल्लाह जानता है कि उसके बंदों के दिलों में क्या है, तथा वह सर्वशक्तिमान जानता है कि कौन साधनों को अपना रहा है और कड़ी मेहनत कर रहा है, और कौन आलसी और लापरवाह है।

क़ुरआन पढ़ने में आपको जो यह कठिनाई होती है, वह आपकी नेकियों और सवाब को बढ़ाती है। आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा से वर्णित है कि उन्होंने कहा : अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने फरमाया : “जो व्यक्ति क़ुरआन की तिलावत में कुशल है, वह सम्माननीय और आज्ञाकारी लेखक फ़रिश्तों के साथ होगा और जो व्यक्ति क़ुरआन पढ़ता है और उसमें अटकता (हकलाता) है और वह उसके लिए कठिन होता है, उसे दो सवाब मिलेंगे।” इसे मुस्लिम (हदीस संख्या : 798) ने रिवायत किया है।

नववी रहिमहुल्लाह कहते हैं :

“जहाँ तक उस व्यक्ति का सवाल है जो इसमें अटकता (हकलाता) है, इससे अभिप्राय वह व्यक्ति है जो इसे अच्छी तरह याद करने में सक्षम न होने के कारण उसका पाठ करने में झिझकता है, उसे दो सवाब मिलेंगे : एक सवाब इसे पढ़ने का और एक सवाब इसे पढ़ने में उसके अटकने और कठिनाई झेलने का।” उद्धरण समाप्त हुआ।

सूरतुल-फ़ातिहा को एक से अधिक बार दोहराने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि यह नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के मार्गदर्शन में से नहीं है। बल्कि यह वस्वसा (शैतान की कानाफूसी) का द्वार खोलता है, नमाज़ में अभाव पैदा करता है, उसमें विनम्रता व एकाग्रता को समाप्त कर देता है, उसकी आयतों के अर्थ पर विचार करने से विचलित करता है और शैतान को खुश करता है, क्योंकि वह इसे नमाज़ पढ़ने वाले को परेशान करने का प्रवेश द्वार बना देगा ताकि वह अंततः नमाज़ से ऊब जाए। जबकि सर्वशक्तिमान अल्लाह अत्यंत दयावान्, बेहद दयालु है, वह हमपर स्वयं हमसे भी अधिक दयालु है और वह हम पर वह बोझ नहीं डालता जिसे हम सहन नहीं कर सकते।

और अल्लाह ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।

स्रोत: साइट इस्लाम प्रश्न और उत्तर