हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.
ज़ुल-हिज्जा के ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें दिन को तश्रीक़ के दिन कहा जाता है।
अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से इन दिनों का रोज़ा रखने से निषेध साबित है, और इन दिनों का रोज़ा रखने की रूख्सत केवल हज्ज तमत्तो या हज्ज कि़रान करने वाले उस व्यक्ति को प्राप्त हैं जिसे क़ुर्बानी का जानवर न मिल सके।
इमाम मुस्लिम (हदीस संख्याः 1141) ने नुबैशह अल-हुज़ली रजियल्लाहु अन्हु से रिवायत किया है कि उन्हों ने कहा : अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया :‘‘तश्रीक़ के दिन खाने-पीने और अल्लाह तआला को याद करने के दिन हैं।’’
तथा इमाम अहमद (हदीस संख्या : 16081) ने हमज़ह बिन अम्र अल-अस्लमी रजियल्लाहु अन्हु से रिवायत किया है कि उन्होंने ऊँट पर सवार एक व्यक्ति को देखा जो मिना में लोगों के डेरों पर जाता है, जबकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम उपस्थित हैं, और वह आदमी यह कहता है कि : ‘‘इन दिनों के रोज़े न रखो क्योंकि ये खाने और पीने के दिन हैं।’’ इसे अल्लामा अल्बानी ने सहीह-अलजामि (हदीस संख्या : 7355) में सहीह करार दिया है।
तथा इमाम अहमद (हदीस संख्या : 17314) और अबू दाऊद (हदीस संख्या: 2418) ने उम्मे हानी के मौला (आज़ाद किए गए दास) अबू मुर्रह से रिवायत किया है कि वह अब्दुल्लाह बिन अम्र रजि़यल्लाहु अन्हु के साथ उनके पिता अम्र बिन आस रजि़यल्लाहु अन्हु के पास तश्रीफ़ लाए, तो उन्होंने उन दोनों के सामने खाना रखा, और कहा कि : खाओ, तो उन्होंने कहा : मैं रोजे से हूँ। तो अम्र रजियल्लाहु अन्हु ने कहा : खाओ, क्योंकि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम हमें इन दिनों का रोज़ा न रखने का आदेश देते थे, और इन दिनों का रोज़ा रखने से मना करते थे। मालिक कहते हैं कि : ये तश्रीक़ के दिन हैं। अल्लामा अल्बानी ने सहीह अबू दाऊद में इसे सहीह करार दिया है।
इमाम अहमद (हदीस संख्याः 1459) ने सअद बिन अबी वक़्क़ास रजियल्लाहु अन्हु से रिवायत किया है कि वह कहते हैं : ‘‘मिना के दिनों में अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने मुझे यह एलान करने का आदेश दिया कि : ‘‘ये खाने और पीने के दिन हैं, इसलिए इनमें रोज़ा न रखो’’ यानी तश्रीक़ के दिनों में। मुस्नद अहमद के अन्वेषक ने इस हदीस को सहीह लि-गैरिही बताया है।
इमाम बुखारी (हदीस संख्या 1998) ने आयशा और इब्ने उमर रजियल्लाहु अन्हुमा से रिवायत किया हैं कि उन दोनों ने कहा : तश्रीक़ के दिनों में केवल उन लोगों को रोज़ा रखने की रियायत दी गई है जिनको बलिदान का जानवर न मिल सके।’’
इन हदीसों - और इनके अलावा अन्य हदीसों - में तश्रीक़ के दिनों में रोज़ा रखने से मना किया गया है।
इसीलिए अधिकांश विद्वानों का मत है कि इन दिनों में स्वैच्छिक रोज़ा रखना सही नहीं है।
रही बात उन दिनों में रमजान के रोज़ों की क़ज़ा करने के तौर पर रोज़ा रखने की, तो कुछ विद्वानों ने उसकी अनुमति दी है, जबकि सही बात यह है कि यह जायज़ नहीं है।
इब्ने क़ुदामा रहिमहुल्लाह ‘‘अल-मुगनी’’ (3/51) में कहते हैं:
‘‘अक्सर विद्वानों के कथन के अनुसार उन दिनों का स्वैच्छिक रोज़ा रखना जायज़ नहीं है। और इब्ने जुबैर से वर्णित है कि वह उन दिनों का रोज़ा रखा करते थे।
और इब्ने उमर और अल-असवद बिन यज़ीद से भी ऐसा ही वर्णित है, और अबू तल्हा के बारे वर्णित है कि वह ईदुल फित्र और ईदुल अज़हा के अलावा किसी भी दिन का रोज़ा नहीं छोड़ते थे। ऐसा लगता है कि इन लोगों को इन दिनों में रोज़ा न रखने के संबंध में नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की मनाही नहीं पहुंची थी और अगर उन्हें इसका ज्ञान होता तो वे इसे जरूर मानते।
रही बात उन दिनों में अनिवार्य रोजे रखने की, तो इस के बारे में दो रिवायतें हैं:
पहली रिवायत:रोज़ा रखना जायज नहीं है, क्योंकि उन दिनों में रोज़ा रखने का निषेध है, तो इस तरह ये ईद के दो दिनों के समान हुए।
दूसरी रिवायत: उन दिनों में अनिवार्य रोज़े रखना सहीह है, क्योंकि इब्ने उम्र और आयशा रजियल्लाहु अन्हुमा से रिवायत है कि उन्हों ने कहा : ‘‘तश्रीक़ के दिनों में रोज़ा रखने की रूख्सत नहीं दी गई है, सिवाय उस आदमी के जिसके पास क़ुर्बानी का जानवर न हो।’’ अर्थात हज्ज तमत्तो करनेवाला जब उसके पास हदी का जानवर न हो।
यह एक सहीह हदीस है जिसे बुखारी ने रिवायत किया है, और उसी पर हर अनिवार्य रोज़ा को क़यास किया जाएगा।’’ अंत हुआ।
हंबली मत में विश्वस्त विचार यह है कि रमजान के रोज़ों की क़ज़ा के तौर पर उन दिनों में रोज़ा रखना सहीह नहीं है।
‘‘कश्शाफ़ अल-कि़नाअ’’ (2/342)।
रहा मसअला हज्जे तमत्तो और हज्ज़े कि़रान करने वाले के लिए कुर्बानी न मिलने की स्थिति में इन दिनों का रोज़ा रखने की, तो इस पर आयशा और इब्ने उमर रजियल्लाहु अन्हुम की उपर्युक्त हदीस दलालत करती है, तथा मालिकिय्या और हनाबिला का मत भी यही है, और शाफेई का भी प्राचीन मत यही है।
जबकि हनफिय्या और शाफेइय्या इस बात की ओर गए हैं कि उन दिनों का रोजा रखना जायज़ नहीं है।
‘’अल-मौसूआ अल-फिक़्हिय्या’’ (7/323)
इनमें राजेह (सही) पहला कथन है, और वह यह कि क़ुर्बानी का जानवर न पाने वाले के लिए उन दिनों के रोजे रखना जायज हैं।
इमाम नववी रहिमहुल्लाह अल-मजमू (6/486) में कहते हैं :
‘‘यह बात ज्ञान में रहना चाहिए कि असहाब (शाफेइय्या) के यहाँ सबसे सहीह कथन नया कथन है और वह यह है कि उन दिनों में दरअसल रोज़ा रखना सहीह ही नहीं है, न तो हज्जे तमत्तु करने वाले के लिए और न ही किसी और के लिए।
जबकि प्रमाण के दृष्टिकोण से सबसे राजेह कथन हज्जे तमत्तु करने वाले के लिए उसका सहीह और जायज़ होना है। क्योंकि उसके लिए रुखस्त के बारे में वर्णित हदीस सही है जैसाकि हम बयान कर चुके हैं, और वह इस बारे में स्पष्ट है, अतः इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।’’ अंत हुआ।
उत्तर का सारांश यह है कि:
तश्रीक़ के दिनों में न तो नफ़ली रोजे रखना सहीह है, और न ही फर्ज रोज़े, लेकिन केवल हज्जे तमत्तु या हज्जे कि़रान करने वाले के लिए क़ुर्बानी का जानवर न मिलने की अवस्था में रोज़ा रखने की छूट है।
शैख इब्ने बाज़ रहिमहुल्लाह कहते हैं:
‘‘ज़ुल-हिज्जा के तेरहवें दिन को न तो नफ़ली रोज़ा रखना जायज है और न ही फर्ज, क्योंकि ये खाने-पीने और अल्लाह तआला को याद करने के दिन हैं, तथा नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उन दिनों का रोजा रखने से मना किया है, और हज्जे तमत्तु में क़ुर्बानी का जानवर ना पाने वाले के अलावा किसी और को उन दिनों के रोजे रखने की छूट नहीं दी है।’’ अंत हुआ।
‘‘मजमूओ फतावा इब्ने बाज़’’ (15/381)
शैख इब्ने उसैमीन रहिमहुल्लाह कहते हैं:
‘‘ईदुल अज़्हा के बाद तीन दिन तश्रीक़ के दिन कहलाते हैं, और उन्हें तश्रीक़ के दिन इसलिए कहा जाता है कि लोग उन दिनों में मांस सुखाते थे - अर्थात उसे सूखने के लिए धूप में रखते थे ताकि जब वे उसे संग्रहित करें तो उसमें सड़ांध न पैदा हो। इन तीन दिनों के बारे में नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है:
‘‘तश्रीक़ के दिन खाने-पीने और अल्लाह तआला का जि़क्र करने के दिन हैं।’’
जब ये दिन ऐसे ही हैं, अर्थात वे शरई तौर पर खाने-पीने और अल्लाह तआला का जि़क्र करने के लिए बनाए गए हैं, तो ये रोज़ा रखने का सगय नहीं हो सकते। इसीलिए इब्ने उमर और आयशा रजि़यल्लाहु अन्हुम का कथन है : किसी के लिए भी तश्रीक़ के दिनों का रोजा रखने की रियायत नहीं दी गई है, सिवाय उस व्यक्ति के जिसे (हज्ज की) क़ुर्बानी का जानवर न मिल सके।’’ अर्थात हज्जे तमत्तु और हज्जे कि़रान करने वालो। चुनांचे ये दोनों तीन दिन का रोज़ा हज्ज के दौरान और सात रोज़े अपने घर वापस आकर रखेंगे। अतः हज्ज कि़रान और हज्ज तमत्तो अदा करने वालों के लिए यदि वे क़ुर्बानी का जानवर न पाएं, तो उनके लिए इन तीन दिनों का रोज़ा रखना जायज़ है ताकि उनके रोज़ा रखने से पहले हज्ज का मौसम समाप्त न हो जाए। यहाँ तक कि अगर किसी व्यक्ति के जि़म्मे लगातार दो महीने के रोजे़ हैं, तो वह ईदुल अज़्हा और उसके बाद तीन दिनों में रोज़े नहीं रखेगा, फिरउसके बाद अपने रोज़ों को निरंतर जारी रखेगा।’’ अंत हुआ।
‘‘मजमूओ फतावा इब्ने उसैमीन’’ (20/प्रश्न संख्या: 419)।
उपर्युक्त बातों के आधार पर, जिसने तश्रीक़ के दिनों या उसमें से किसी दिन का रोजा रखा, जबकि वह ऐसा हाजी नहीं है जो हज्जे तमत्तु या हज्जे कि़रान कर रहा हो और उसके पास क़ुर्बानी का जानवर न हो, तो उसे चाहिए कि अल्लाह तआला से क्षमायाचना करे, क्योंकि उसने ऐसा कार्य किया है जिससे पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से मना किया है। और अगर उसने उन दिनों का रोज़ा रमजान के छूटे हुए रोज़ों की क़ज़ा के तौर पर रखा है, तो यह उसके लिए पर्याप्त नहीं होगा, बल्कि उसे फिर से क़ज़ा करना चाहिए।
और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।