मंगलवार 2 जुमादा-2 1446 - 3 दिसंबर 2024
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यदि कोई व्यक्ति हुक्म या समय का ज्ञान न होने के कारण रोज़ा तोड़ने वाली चीज़ों का उपयोग कर ले

प्रश्न

मैंने प्रश्न संख्या (80425) पर आपका उत्तर पढ़ा। वास्तव में, मैं भी सवाल पूछने वाले भाई के समान समस्या ही से पीड़ित था। लेकिन मेरे और उनके बीच अंतर यह है कि जब भोजन मेरे गले तक पहुंच जाता था, तो मैं उसे यह सोचकर निगल जाता था कि इससे रोज़ा नहीं टूटता है, क्योंकि यह भोजन पेट से आया था तो मैंने उसे उसके स्रोत में वापस लौटा दिया (ऐसा मैंने अपनी अज्ञानता के कारण किया था)। फिर मैंने पढ़ा कि मेरे लिए उन दिनों की क़ज़ा करना अनवार्य है। लेकिन मुझे उन दिनों की संख्या याद नहीं है जिनमें मैंने ऐसा किया था। क्योंकि वह अतीत में हुआ था। अब मैंने इस आदत को छोड़ दिया है। अतः मुझे क्या करना चाहिए?

उत्तर का पाठ

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.

जब आपको यह नहीं पता था कि इस भोजन को निगलने से रोज़ा टूट जाता है, तो आपके लिए उन दिनों की क़जा करना अनिवार्य नहीं है; क्योंकि रोज़ा तोड़ने वाली चीजों का ज्ञान न होना सही दृष्टिकोण के अनुसार एक वैध उज़्र (बहाना) है।

शैख इब्ने उसैमीन रहिमहुलाह ने फरमाया : '' जो रोज़ा तोड़ने वाली चीज़ें आदमी स्वेच्छा से उपयोग करता है उनसे मनुष्य का रोज़ा उसी स्थिति में टूटेगा, जब तीन शर्तें पाई जाएं, जो कि यह हैं :

पहली शर्तः वह (रोज़ा तोड़ने वाली चीज़ों का) ज्ञान रखने वाला हो, और उसका विपरीत अज्ञानी और अनभिज्ञ है।

इसलिए यदि कोई व्यक्ति अज्ञानता की हालत में कुछ खा लेता है, तो उसपर उस दिन की कज़ा अनिवार्य नहीं है। अज्ञानता के दो प्रकार हैं :

1- हुक्म की अज्ञानता या हुक्म से अनभिज्ञ होनाः जैसे कि यदि कोई व्यक्ति जानबूझकर उल्टी करता है, लेकिन वह इस बात से अवगत नहीं है कि उल्टी रोज़ा को खराब कर देती है। तो ऐसे आदमी पर क़ज़ा अनिवार्य नहीं है क्योंकि वह अज्ञानी (अनभिज्ञ) है। इस बात का प्रमाण कि हुक्म से अनभिज्ञ व्यक्ति का रोज़ा नहीं टूटता है, सहीह बुखारी व सहीह मुस्लिम में वर्णति अदी बिन हातिम रज़ियल्लाहु अन्हु की हदीस है कि (जब उन्होंने रोज़े का इरादा किया तो) उन्हों ने अपने तकिए के नीचे दो रस्सियां (ये ऊँटों को बाँधने की रस्सी होती थी) रख लीं, एक काली और दूसरी सफेद और खाना पीना आरम्भ कर दिया और दोनों रस्सियों को देखते रहे यहाँ तक कि जब सफेद डोरी काली डोरी से स्पष्ट होगई, तो उन्होंने खाना-पीना बंद कर दिया। जब सुबह नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास गए तो आपको इसकी सूचना दी, तो नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उनसे फरमाया : ''तुम्हारा तकिया तो बहुत लंबा-चौड़ा है कि उसमें सफेद धागा और काला धागा दोनों समागया। बल्कि इससे तात्पर्य दिन की सफेदी और रात की कालिमा (अंधकार) है।” और नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उनको कज़ा का हुक्म नहीं दिया; क्योंकि उन्हें आयत का अर्थ पता नहीं था।

2- समय की अज्ञानता या समय से अनभिज्ञ होनाः उदाहरण के तौर पर, कोई व्यक्ति यह समझते हुए खा ले कि अभी फज्र उदय नहीं हुआ है, फिर उसे पता चलता है कि फज्र उदय हो चुका है, तो उसपर क़ज़ा अनिवार्य नहीं है। इसी तरह अगर कोई व्यक्ति दिन के अंत में यह गुमान करते हुए रोज़ा इफ़तार कर लेता है कि सूर्य डूब गया है फिर उसे ज्ञात होता है कि सूर्य अस्त नहीं हुआ है, तो इसपर भी क़ज़ा अनिवार्य नहीं है। इसका प्रमाण वह हदीस है जिसे बुखारी ने अस्मा बिन्त अबु बक्र रज़ियल्लाहु अन्हा से रिवायत किया है कि उन्होंने कहाः

“नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के समयकाल में एक बदली वाले दिन में हम ने रोज़ा इफतार कर लिया, फिर सूर्य निकल आया।”

इस हदीस से इस प्रकार दलील पकड़ी गई है किः यदि रोज़ा फासिद (अमान्य) होता तो क़ज़ा करना अनिवार्य होता, और यदि क़ज़ा अनिवार्य होता तो नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम उन्हें कज़ा का आदेश देते, और यदि आप ने उन्हें कज़ा का आदेश दिया होता तो वह हम तक अवश्य पहुँचाया जाता, क्योंकि यह शरीयत की रक्षा व संरक्षण के अंतर्गत आता है। तो जब यह हम तक नहीं पहुँचाया गया तो ज्ञात हुआ कि रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उन्हें क़ज़ा का आदेश नहीं दिया था, और जब आपने उन्हें क़ज़ा का आदेष नहीं दिया तो पता चला कि रोज़ा फ़ासिद (अमान्य) नहीं है, अतः ऐसी स्थिति में क़ज़ा अनिवर्य नहीं है। लेकिन मनुष्य पर अनिवार्य है कि उसे जैसे ही इसका पता चले वह खाने-पीने से रुक जाए, यहाँ तक कि अगर लुक़मा उसके मुंह में हो तो उसे बाहर थूकना अनिवार्य है।” “मजमूओ फतावा अश-शैख इब्न उसैमीन (19/116) से थोड़े संशोधन के साथ उद्धरण समाप्त हुआ।

फिर उन्होंने दूसरी और तीसरी शर्त का उल्लेख किया है, जो कि यह है कि वह रोज़ा तोड़ने वाली चीज़ों का याद रखने वाला और उन्हें इच्छा पूर्वक करने वाला हो।

इस प्रकार आप को यह ज्ञात हो जाता है कि आपके लिए रोज़े का क़ज़ा करना अनिवार्य नहीं है।

और अल्लाह तआला ही सबसे अच्छा ज्ञान रखता है।

स्रोत: साइट इस्लाम प्रश्न और उत्तर