शुक्रवार 21 जुमादा-1 1446 - 22 नवंबर 2024
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नमाज़ को उसके सर्वज्ञात तरीक़े से स्थापित करने की हिकमत

प्रश्न

मेरे पास एक संदेह है, जिसका मुझे कोई उपयुक्त स्पष्टीकरण (उत्तर) नहीं मिल रहा है... हम तकबीर कहने, सज्दे करने और खड़े होने की विधि से नमाज़ क्यों पढ़ते हैंॽ क्या इसके बजाय हमारे लिए ऐसा करना पर्याप्त नहीं है की हम बैठकर क़ुरआन पढ़ें और अल्लाह से दुआ करेंॽ फिर इस (नमाज़ के) मामले को इस विधि के साथ और इस शक्ल में क्यों बनाया गयाॽ

उत्तर का पाठ

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.

सर्व प्रथम :

आपको ज्ञात होना चाहिए - अल्लाह आपका मार्गदर्शन करे - कि हमारे सच्चे धर्म का आधार सुनने और आज्ञापालन करने की अनिवार्यता पर है, और यह कि हम अल्लाह को सुझाव न दें। जिस तरह कि हम एक डॉक्टर की बात पर भरोसा करते हैं और उसका विरोध नहीं करते हैं, बल्कि हम सुनते और मानते हैं। यदि वह कहता है : यह दवा रात के खाने के बाद है। तो हम यह नहीं कहते : वह रात के खाने से पहले क्यों नहीं हो सकतीॽ

या अगर डॉक्टर कहता है : इसकी मात्रा सात बूँद है। तो हम यह नहीं कहते : वह पाँच बूँद क्यों नहीं हो सकतीॽ बल्कि, जो वह कहता है हम उसे मानते हैं, भले ही उसमें कोई ऐसी चीज़ हो, जिसे हम नापसंद करते हैं, जैसे कि दवा का कड़वा स्वाद, या उसकी महँगी क़ीमत, इत्यादि। हालाँकि, वह एक इनसान है, जिसके पास आरोग्य करने की शक्ति नहीं है, और उससे गलत और सही दोनों की संभावना होती है, और उसकी गलती उसके सही होने की तुलना में अधिक हो सकती है।

अतः हमारे लिए आवश्यक है कि शरीयत की शिक्षाओं के प्रति हमारा समर्पण और अधिक गंभीरता से हो। क्योंकि वह एक ऐसी हस्ती की ओर से अवतरित की गई है, जो सर्वज्ञ (परम हिकमत वाला), सबसे अधिक प्रशंसनीय, सब कुछ जानने वाला और हर चीज़ की ख़बर रखने वाला है।

لا يُسْأَلُ عَمَّا يَفْعَلُ وَهُمْ يُسْأَلُونَ        [الأنبياء: 23] .

“वह जो कुछ करता है, उसके बारे में उससे पूछताछ नहीं की जा सकती, जबकि उनसे पूछताछ की जाएगी।” (सूरतुल-अंबिया : 23)

अल्लाह और उसके रसूल के प्रति पूर्ण समर्पण के बिना ईमान (विश्वास) सिद्ध नहीं हो सकता। अल्लाह सर्वशक्तिमान ने फरमाया :

فَلَا وَرَبِّكَ لَا يُؤْمِنُونَ حَتَّى يُحَكِّمُوكَ فِيمَا شَجَرَ بَيْنَهُمْ ثُمَّ لَا يَجِدُوا فِي أَنْفُسِهِمْ حَرَجًا مِمَّا قَضَيْتَ وَيُسَلِّمُوا تَسْلِيمًا   [النساء: 65] .

“तो (ऐ नबी!) आपके पालनहार की क़सम, वे कभी ईमान वाले नहीं हो सकते, जब तक  वे अपने आपस के विवाद में आपको निर्णायक न बनाएँ, फिर आप जो निर्णय कर दें, उससे अपने दिलों में तनिक भी तंगी महसूस न करें और उसे पूरी तरह से स्वीकार कर लें।” (सूरतुन्निसा : 65)

तथा अल्लाह तआला ने फरमाया :

إِنَّمَا كَانَ قَوْلَ الْمُؤْمِنِينَ إِذَا دُعُوا إِلَى اللَّهِ وَرَسُولِهِ لِيَحْكُمَ بَيْنَهُمْ أَنْ يَقُولُوا سَمِعْنَا وَأَطَعْنَا وَأُولَئِكَ هُمُ الْمُفْلِحُونَ    [النور:51] .

“ईमान वालों की बात तो केवल यह होती है कि जब उन्हें अल्लाह और उसके रसूल की ओर बुलाया जाता है, ताकि वह उनके बीच फैसला करें, तो वे लोग कहते हैं कि हमने सुना और मान लिया, और यही लोग कामयाब होने वाले हैं।" (सूरतुन नूर : 51)

तथा अल्लाह सर्वशक्तिमान ने फरमाया :

آَمَنَ الرَّسُولُ بِمَا أُنْزِلَ إِلَيْهِ مِنْ رَبِّهِ وَالْمُؤْمِنُونَ كُلٌّ آَمَنَ بِاللَّهِ وَمَلَائِكَتِهِ وَكُتُبِهِ وَرُسُلِهِ لَا نُفَرِّقُ بَيْنَ أَحَدٍ مِنْ رُسُلِهِ وَقَالُوا سَمِعْنَا وَأَطَعْنَا غُفْرَانَكَ رَبَّنَا وَإِلَيْكَ الْمَصِيرُ   البقرة:285

"रसूल उस चीज़ पर ईमान लाए, जो उनकी ओर उनके पालनहार की तरफ से उतारी गई और मुसलमान भी ईमान लाए। ये सब अल्लाह पर और उसके फरिश्तों पर, और उसकी किताबों पर, और उसके रसूलों पर ईमान लाए। हम उसके रसूलों में से किसी के बीच अंतर नहीं करते। तथा उन्होंने कहा कि हमने सुना और आज्ञापालन किया। हम तेरी क्षमा चाहते हैं, ऐ हमारे पालनहार! और (हमें) तेरी ही तरफ लौटना है।" (सूरतुल बक़रा : 285)

अल्लामा सा’दी ने कहा :

“यह मोमिनों की ओर से एक प्रतिबद्धता है, जिसमें वह सब कुछ शामिल है जो नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम क़ुरआन और सुन्नत में से लेकर आए हैं, और यह कि उन्होंने उसे स्वीकृति, समर्पण और आज्ञापालन के साथ सुना।” उद्धरण समाप्त हुआ।

तफ़सीर अस-सा’दी (पृष्ठ : 961).

अतः जो व्यक्ति इन आयतों पर चिंतन करेगा, उसे ज्ञात हो जाएगा कि धर्म का आधार सर्व संसार के पालनहार अल्लाह के प्रति स्वीकरण एवं समर्पण, अधीनता और आज्ञापालन पर है। तथा वह अपने धार्मिक और सांसारिक मामले की हर चीज़ में उस महिमावान के प्रति कैसे समर्पण नहीं करेगा, जिसपर वह उसे अपना पालनहार, सृष्टा, मार्गदर्शक, जीविका-दाता और प्रबंधक मानते हुए ईमान लाया हैॽ!

तथा वह अपने रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के प्रति समर्पित नहीं होगा, जिनपर वह अपने पालनहार की ओर से भेजे गए नबी के रूप में ईमान लाया हैॽ!

यदि कोई व्यक्ति प्रश्न में उल्लिखित यह विधि अपनाता है, तो दूर नहीं कि उसका मामला अंततः नास्तिकता (विधर्म) तक पहुँच जाए। क्योंकि आप कह रहे हैं : नमाज़ केवल क़ुरआन पढ़ना और दुआ करना क्यों नहीं हैॽ फिर कोई दूसरा व्यक्ति आकर कहेगा : दुआ करने की क्या ज़रूरत है, क्या क़ुरआन पढ़ना पर्याप्त नहीं हैॽ

फिर कोई तीसरा व्यक्ति आएगा और कहेगा : आखिर नमाज़ ही पढ़ना क्यों ज़रूरी हैॽ क्या “ला इलाहा इल्लल्लाह” (अल्लाह के अलावा कोई सच्चा पूज्य नहीं) कहना पर्याप्त नहीं हैॽ और आप इसी तरह की बात ज़कात, रोज़ा, ह़ज्ज और शरीयत के अन्य सभी अहकाम (नियमों) के संबंध में कह सकते हैं। इस प्रकार इस मामले का अंत शरई अहकाम (नियमों) के इनकार और नास्तिकता व विधर्म पर होगा।

तीसरा :

नमाज़ इसी तरीक़े पर अनिवार्य की गई है, जो कि सबसे अच्छा और सबसे पूर्ण तरीक़ा है, ताकि अल्लाह के प्रति दासत्व और उसके लिए विनम्रता परिपूर्ण हो सके और उसकी मुनाजात से आनंद प्राप्त हो। चुनाँचे आदमी क़िब्ला की ओर मुँह करता है और अल्लाह के सामने विनम्रता के साथ, शीश नवाए खड़ा होता है, फिर वह अल्लाह के लिए विनम्रता अपनाते हुए रुकू करता (झुक जाता) है, फिर सजदा के द्वारा अल्लाह के प्रति उसकी विनम्रता और अधिक हो जाती है।

तकबीर से लेकर तस्लीम तक (यानी शुरू से अंत तक) नमाज़ के तरीक़े का विस्तृत विवरण उसके कार्यों और कथनों में चिंतन के साथ, इब्नुल-क़ैयिम रहिमहुल्लाह की किताब “अस्सलाह” (नमाज़) में देखें।

हम अल्लाह से प्रश्न करते हैं कि वह हमें सन्मार्ग की प्रेरणा दे और नमाज़ को हमारी आँखों की ठंढक बनाए।

और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।

स्रोत: साइट इस्लाम प्रश्न और उत्तर