हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.
आप ने जिस जश्न का उल्लेख किया है उसके हराम होने में कोई संदेह नहीं है ; क्योंकि इसमें कुफ्फार (नास्तिकों) के साथ समानता पाई जाती है, और यह बात सर्वज्ञात है कि मुसलमानों के लिए ईदुल फित्र और ईदुल अज़्हा के अलावा, और हफ्ते की ईद जुमा के दिन के अलावा कोई अन्य ईद (त्योहार) नहीं है। और किसी दूसरे ईद का कोई भी जश्न मनाना निषिद्ध है, और वह दो मामलों में किसी एक से खाली नहीं है : या तो वह बिदअत होगा, यदि उसका जश्न मनाना अल्लाह की निकटता प्राप्त करने के तौर पर है, जैसे कि मीलादुन्नबी (पैगंबर के जन्म दिवस) का उत्सव मनाना, और या तो काफिरों की समानता अपनाना : यदि वह जश्न मनाना आदत के तौर पर है, निकटता प्राप्त करने के तौर पर नहीं है ; क्योंकि अवैध ईदों का पैदा करना अह्ले किताब (यहूदियों व ईसाइयों) का कार्य है जिनका विरोध करने का हमें आदेश दिया गया है, तो उस समय क्या हुक्म होगा जब वह जश्न स्वयं उनकी ईदों में से एक ईद हो!
इस अवसर पर घरों को गुब्बारों से सजाना में, काफिरों के साथ उनके ईद का जश्न मनाने में प्रत्यक्ष साझेदारी पाई जाती है।
मुसलमान पर अनिवार्य है कि वह इन दिनों को किसी भी तरह के उत्सव, या सजावट, या भोजन के साथ विशिष्ट न करे, वर्ना वह काफिरों का उनके ईद में साझेदार बन जायेगा, और वह एक हराम और निषिद्ध काम है जिसके हराम होने मे कोई सन्देह नहीं है।
शैख इब्ने उसैमीन रहिमहुल्लाह फरमाते हैं : ''इसी तरह मुसलमानों के ऊपर इस अवसर पर सभाएं स्थापित करके, या उपहारों का आदान प्रदान कर, या मिठाइयाँ या खाने की डिशें आवंटित कर या काम से छुटटी करके, इत्यादि, काफिरों की समानता अपानाना हराम है। क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है: ''जिसने किसी क़ौम की समानता अपनाई वह उसी में से है।''
इसी प्रकार मुसलमानों के ऊपर, इस अवसर पर समारोहों का आयोजन करके, या उपहारों का आदान प्रदान करके, या मिठाइयाँ अथवा खाने की डिशें वितरित करके, या काम से छुट्टी करके और ऐसे ही अन्य चीज़ों के द्वारा काफिरों की छवि (समानता) अपनाना हराम है, क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान हैः
''जिस ने किसी क़ौम की छवि अपनाई वह उसी में से है।''
शैखुल इस्लाम इब्ने तैमिय्या रहिमहुल्लाह अपनी किताब ''इक्तिज़ाउस्सिरातिल मुस्तक़ीम मुख़ालफतो असहाबिल जह़ीम'' में फरमाते हैः ''उनके कुछ त्योहारों में उनकी नक़ल करना इस बात का कारण है कि वे जिस झूठ पर क़ायम हैं उस पर उनके दिल खुशी का आभास करेंगे, और ऐसा भी सम्भव है कि यह उन के अंदर अवसरों से लाभ उठाने और कमज़ोरों को अपमानित करने की आशा पैदा कर दे।'' इब्ने तैमिय्या रहिमहुल्लाह की बात समाप्त हुई।
तथा जिस ने भी इन चीज़ों में से कुछ भी कर लिया तो वह पापी (दोषी) है, चाहे उसने सुशीलता व सद्व्यवहार के प्रदर्शन के तौर पर ऐसा किया हो, या दोस्ती की चाहत में, या शर्म की वजह से या इनके अलावा किसी अन्य कारण से किया हो ; क्योंकि यह अल्लाह के धर्म में मुदाहनत (यानी दूसरों को खुश करने के लिए अल्लाह के धर्म से समझौता, चाटुकारिता व पाखण्ड) है, तथा काफिरों के दिलों को मज़बूत करने और उनके अपने धर्म पर गर्व करने का कारण है।''
फतावा इब्ने उसैमीन (3/44) से अंत हुआ।
शैखुल इस्लाम इब्ने तैमिय्या रहिमहुल्लाह का इस मुद्दे के बारे में एक सविस्तार जवाब है, जो निम्नलिखित हैः
आप रहिमहुल्लाह तआला से पूछा गया कि मुसलमानों में से जो व्यक्ति नौरोज़ (ईसाइयों का एक पर्व) में ईसाइयों के खाने के समान करता है, और शेष सभी अवसरों का भी आयोजन करता है, जैसे गत्तास (मसीह के बपतिस्मा का दिन), मीलादे-मसीह (क्रिसमस), खमीस अल-अदस, सबत अन्नूर (पवित्र शनिवार)। और जो उन्हें ऐसी चीज़ें बेचता है जिसके द्वारा वे अपने त्योहारों पर गदद हासिल करते हैं, क्या मुसलमानों के लिए इनमें से कोई चीज़ करना जायज़ है या नहीं?
तो उन्हों ने उत्तर दिया : हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह के लिए योग्य है, मुसलमानों के लिए जायज़ नहीं है कि वे उन (ईसाइयों) की उनके त्योहारों (ईद) से संबंधित किसी चीज़ में नकल करें, न तो खाने में, न कपड़े में, न स्नान में, न आग जलाने (रौशनी करने) में, न किसी रूटीन जैसे जीविका या किसी उपासना को निरस्त करने और इसके अलावा अन्य चीज़ों में। तथा दावत करना, या उपहार देना, या कोई ऐसी चीज़ बेचना जिसके द्वारा ऐसा करने पर मदद हासिल किया जा सकता है जायज़ नहीं है। तथा बच्चों आदि को वह खेल खेलने की अनुमति देना जायज़ है जो त्योहारों में होता है न सजावट का प्रदर्शन करने की अनुमति देना। सारांश यह कि उनके लिए यह जायज़ नहीं है कि उनके त्योहारों को उनके प्रतीकों और विशेष चीज़ों में से किसी भी चीज़ के साथ विशिष्ट करें, बल्कि उनके त्योहार का दिन मुसलमानों के निकट शेष सारे दिनों के समान होगा, मुसलमान उसे उनकी विशिष्टताओं में किसी चीज़ के साथ विशिष्ट नहीं करेंगे . . . . , जहाँ तक उसे उन चीज़ों के साथ विशिष्ट करने की बात है जिनका उल्लेख हो चुका है तो उसके बारे में विद्वानों के बीच कोई मतभेद नहीं है, बल्कि विद्वानों का एक समूह इन चीज़ों के करने वाले के कुफ्र (अधर्म) की ओर गया है, क्योंकि इसमें कुफ्र के प्रतीकों का सम्मान पाया जाता है। तथा उनमें से एक समूह का कहना है : जिसने उनके ईद के दिन सींग लगकर मरा हुआ जानवर ज़बह किया तो गोया उसने सुअर ज़बह किया। तथा अब्दुल्लाह बिन अम्र बिन आस कहते हैं : जिसने अजमियों (गैर अरब) के देशों का अनुसरण किया, उनका नीरोज़ और पर्व मनाया, और उनकी समानता अपनाया यहाँ तक कि वह इसी हालत में मर गया : तो वह क़ियामत के दिन उनके साथ ही उठाया जायेगा। तथा सुनन अबू दाऊद में साबित बिन ज़ह्हाक से वर्णित है कि उन्हों ने कहा : एक आदमी ने अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लमके ज़माने में बुवाना नामी जगह पर एक ऊँट बलिदान करने की मन्नत मानी थी। चुनाँचे वह अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास आया और कहा : मैंने बुवाना नामी स्थान पर एक ऊँट बिलदान करने की मन्नत मानी है। तो नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : क्या वहाँ पर अल्लाह को छोड़कर जाहिलियत के समय काल की किसी मूर्ति की पूजा की जाती थी? उसने कहा: नहीं। आप ने फरमाया : क्या वहाँ पर उनके त्योहारों में से कोई त्योहार होता था? उसने कहा : नहीं। अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया: अपनी मन्नत पूरी करो, क्योंकि अल्लाह की नाफरमानी (अवज्ञा) में कोई मन्नत नहीं पूरी की जायेगी, और न ही उस चीज़ के अंदर जिसका इब्ने आदम मालिक नहीं है।'' तो नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने इस आदमी को उसकी मन्नत पूरी करने की अनुमति नहीं प्रदान की, जबकि मन्नत के बारे में असल बात यह है कि वह अनिवार्य है, यहाँ तक कि उसने आपको यह सूचना दी कि वहाँ पर काफिरों के त्योहारों में से कोई त्योहार नहीं मनाया जाता था। तथा आप ने फरमाया : ''अल्लाह की अवज्ञा में किसी भी मन्नत की पूर्ति नहीं की जायेगी।'' जब एक ऐसे स्थान पर जानवर का बलिदान जिसमें उनका कोई त्योहार मनाया जाता था, एक अवज्ञा है। तो फिर स्वयं त्योहार के अंदर उनके साथ भाग लेना क्या होगा? (अर्थात कितनी गंभीर अवज्ञा होगी?) बल्कि अमीरुल मोमिनीन उमर बिन खत्ताब और सहाबा रज़ियल्लाहु अन्हुम, तथा मुसलमानों के सभी इमामों ने उनपर यह शर्त लगाई है कि वे मुसलमानों के देश में अपने त्योहारों का खुला प्रदर्शन नहीं करेंगे, वे केवल उसे अपने घरों में गुप्त रूप से करेंगे, तो उस समय क्या हुक्म होगा जब खुद मुसलमान ही उनका खुला प्रदर्शन करें? यहाँ तक कि उमर बिन अल-खत्ताब रज़ियल्लाहु अन्हु ने फरमाया : ''गैर अरब (अजमियों) की भाषा न सीखो, और अनेकेश्वरवादियों पर उनके चर्चों में उनके त्योहार के दिनों में न प्रवेश करो। क्योंकि उनके ऊपर क्रोध उतरता है।'' जब तमाशा व तफरीह आदि के लिए प्रवेश करनेवाला इससे रोक दिया गया है ; क्योंकि क्रोध (अल्लाह का गुस्सा) उनके ऊपर उतरता है, तो उस व्यक्ति का हुक्म होगा जो स्वय उस चीज़ को करता है जिसकी वजह से अल्लाह उन पर क्रोधित होता है, जो उनके धर्म के प्रतीकों और अनुष्ठानों में से है!
तथा कई एक पूर्वजों का अल्लाह तआला के फरमान ''जो किसी झूठ और असत्य पर उपस्थित नहीं होते।'' (अल-फुरक़ान, 25:72) के बारे में कहते हैं कि झूठ से अभिप्राय ''काफिरों के त्योहार'' हैं। जब यह बिना किसी कार्य के मात्र उनमें उपस्थित होने के बारे में है, तो फिर उन कार्यों के करने का क्या हुक्म होगा जो उनके विशिष्ट अनुष्ठानों में से हैं? तथा नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से मुसनद और सुनन में रिवायत किया गया है कि आप ने फरमाया : ''जिसने किसी क़ौम की समानता अपनायी, वह उन्हीं में से है।'' और एक रिवायत के शब्द हैं कि : ''वह व्यक्ति हम में से नहीं है जो हमारे अलावा की समानता (छवि) अपनाए।'' यह एक जैयिद (अच्छी) हदीस है। जब यह उनकी समानता और छवि अपनाने में है, अगरचे वे आदतों में से हो, तो फिर उससे बड़ी चीज़ों में उनकी समानता और छवि अपनाने में क्या हुक्म होगा?....''
''अल-फतावा अल-कुबरा'' (2/487), और मजमूउल फतावा (25/329) से समाप्त हुआ। तथा प्रश्न संख्या: (13642) देखना चाहिए।