हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.
आपने एक महान मामले के बारे में पूछा है, लेकिन यह उसके लिए आसान है, जिसके लिए अल्लाह उसे आसान बना देता है। पूर्वजों की उन स्थितियों के बारे में बात करना जिनके लिए वे प्रतिबद्ध थे यहाँ तक कि वे ईमान के उच्च स्तरों तक पहुँचे, एक दीर्घ पक्षीय (विस्तृत) विषय है, जिसे समायोजित करने के लिए कई पुस्तकों और संस्करणों (वॉल्यूम) की आवश्यकता है। लेकिन इन सभी पक्षों को दो बुनियादी चीज़ें समेटे हुए हैं, जिनपर पूर्वजों का पूरा मामला आधारित था : इसलिए जो कोई भी इन दोनों चीज़ों का पालन करेगा, आशा की जाती है कि उसकी स्थिति उन पूर्वजों की स्थिति के समान होगी और वह उनके समूह में शामिल हो जाएगा। हम अल्लाह से प्रश्न करते हैं कि वह हमारे लिए और आपके लिए इन दोनों चीज़ों को आसान कर दे तथा हमें और आपको उन पर सुदृढ़ रखे यहाँ तक कि हम उससे इस अवस्था में मिलें कि वह हमसे प्रसन्न हो; और ये दोनों चीजें निम्नलिखित हैं :
पहली चीज़ : नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम द्वारा लाई हुई बातों का पालन करने का लालायित होना और उनपर धैर्य से काम लेना।
अल्लाह सर्वशक्तिमान के पास उच्च पद प्राप्त करने के लिए अल्लाह तआला ने एक शर्त निर्धारित की है, और वह शर्त नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की लाई हुई बातों का पालन करना है। अल्लाह सर्वशक्तिमान ने फरमाया :
قُلْ إِنْ كُنْتُمْ تُحِبُّونَ اللَّهَ فَاتَّبِعُونِي يُحْبِبْكُمُ اللَّهُ وَيَغْفِرْ لَكُمْ ذُنُوبَكُمْ وَاللَّهُ غَفُورٌ رَحِيمٌ [سورة آل عمران: 31].
“(ऐ नबी, आप) कह दीजिए : अगर तुम (वास्तव में) अल्लाह से महब्बत करते हो, तो मेरा अनुसरण करो, (स्वयं) अल्लाह तुमसे महब्बत करेगा और तुम्हारे पापों को क्षमा कर देगा। और अल्लाह बड़ा क्षमा करने वाला, अत्यंत दयावान् है।” (सूरत आल-इमरान : 31)
शैखुल-इस्लाम इब्ने तैमिय्यह रहिमहुल्लाह ने फरमाया :
“अल्लाह महिमावान् ने हमें रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का अनुसरण करने, आपका आज्ञापालन करने, आपके प्रति वफादारी और आपसे प्रेम करने का आदेश दिया है, और यह कि अल्लाह और उसके रसूल हमारे निकट उनके सिवाय सभी चीज़ों से अधिक प्रिय हों, और उसने हमें रसूल के आज्ञापालन और उनसे प्रेम के फलस्वरूप अल्लाह के प्रेम और उसके सम्मान की गारंटी दी है। अल्लाह सर्वशक्तिमान ने फरमाया :
قُلْ إِنْ كُنْتُمْ تُحِبُّونَ اللَّهَ فَاتَّبِعُونِي يُحْبِبْكُمُ اللَّهُ وَيَغْفِرْ لَكُمْ ذُنُوبَكُمْ [سورة آل عمران: 31].
“(ऐ नबी, आप) कह दीजिए : अगर तुम (वास्तव में) अल्लाह से महब्बत करते हो, तो मेरा अनुसरण करो, (स्वयं) अल्लाह तुमसे महब्बत करेगा और तुम्हारे पापों को क्षमा कर देगा।” (सूरत आल-इमरान : 31)
तथा फरमाया :
وَإِنْ تُطِيعُوهُ تَهْتَدُوا [سورة النور: 54]
“और अगर तुम उसकी बात मानोगे, तो हिदायत (मार्गदर्शन) पाओगे।” (सूरतुन्नूर : 54)
तथा फरमाया :
وَمَنْ يُطِعِ اللَّهَ وَرَسُولَهُ يُدْخِلْهُ جَنَّاتٍ تَجْرِي مِنْ تَحْتِهَا الْأَنْهَارُ خَالِدِينَ فِيهَا وَذَلِكَ الْفَوْزُ الْعَظِيمُ [سورة النساء : 13]
“तथा जो व्यक्ति अल्लाह और उसके रसूल के आदेशों का पालन करेगा, वह (अल्लाह) उसे ऐसे बाग़ों में दाख़िल करेगा जिनके नीचे नहरें बहती हैं। जिनमें वे हमेशा के लिए रहेंगे और यही बड़ी सफलता है।” (सूरतुन-निसा : 13), और क़ुरआन में इस अर्थ की आयतें बहुत हैं। तथा किसी भी व्यक्ति को इस संबंध में उससे बाहर नहीं निकलना चाहिए, जो सुन्नत में स्थापित है, जो इस्लामी शरीयत में वर्णित है तथा जो किताब और सुन्नत में प्रमाणित है और जिसपर इस उम्मत के पूर्वज क़ायम थे।” “मजमूउल-फतावा” (1/334) से उद्धरण समाप्त हुआ।
इस अनुसरण की कल्पना नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की लाई हुई बातों को सीखने और समझने के बिना नहीं की जा सकती। इसलिए शरीयत का अनुसरण करने में पहला क़दम उसे उसके सही स्रोतों से सीखना और उसके साथ धैर्य रखना है।
हुमैद बिन अब्दुर्रहमान से वर्णित है कि (उन्होंने कहा :) मैंने मुआविया रज़ियल्लाहु अन्हु को खुत्बा देते हुए सुना, वह कह रहे थे : मैंने नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को फरमाते हुए सुना : “अल्लाह जिसके साथ भलाई चाहता है, उसे दीन की समझ प्रदान करता है।” इसे बुखारी (हदीस संख्या : 71) और मुस्लिम (हदीस संख्या : 1037) ने रिवायत किया है।
तथा उसमान रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है, वह नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से रिवायत करते हैं कि आपने फरमाया : “तुममें सबसे बेहतर वह है, जो क़ुरआन सीखे और उसे सिखाए।” इसे बुख़ारी (हदीस संख्या : 5027) ने रिवायत किया है।
शैखुल-इस्लाम इब्ने तैमिय्यह रहिमहुल्लाह कहते हैं :
“नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के फरमान : (तुममें सबसे बेहतर वह है, जो क़ुरआन सीखे और उसे सिखाए।) के अर्थ में उसके अक्षरों और अर्थों सभी को सीखना दाख़िल है; बल्कि उसके अर्थों को सीखना उसके अक्षरों को सीखने का प्रथम उद्देश्य है और यही ईमान में वृद्धि करता है।” “मजमूउल-फ़तावा” (13/403) से उद्धरण समाप्त हुआ।
चुनाँचे पूर्वजों का तरीक़ा नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की लाई हुई बातों को सीखने के लिए धैर्य रखना था और फिर उसके बाद उन्होंने जो कुछ सीखा, उसे करने के लिए धैर्य रखते थे।
इब्ने मसऊद रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि उन्होंने कहा : “हम में से एक आदमी जब दस आयतें सीख लेता था, तो उनसे आगे नहीं बढ़ता था, यहाँ तक उनके अर्थ जान लेता और उनपर अमल कर लेता।” इसे तबरी ने अपनी “तफ़्सीर” (1/74) में रिवायत किया है।
तथा इब्ने उमर रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि उन्होंने कहा : “हमने अपने जीवन का एक समय ऐसा जिया है कि हममें से एक व्यक्ति क़ुरआन से पहले ईमान दिया जाता था। मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर कोई सूरत उतरती थी, तो वह उसके हलाल और हराम को सीखता था और यह कि उसे उसमें किस चीज़ के पास ठहरना चाहिए, जिस तरह कि तुम लोग क़ुरआन को जानते हो। फिर उन्होंने कहा : मैं आज ऐसे लोगों को देखता हूँ कि उनमें से किसी को क़ुरआन दिया जाता है, तो वह उसे शुरू से अंत तक पढ़ जाता है, लेकिन उसे उसके आदेश और निषेध का पता नहीं होता और न तो वह यह जानता है कि उसे उसमें कहाँ ठहरना चाहिए। वह उसे रद्दी खजूर को बिखेरने की तरह बिना मनन चिंतन के पढ़ता है।” इसे हाकिम ने “अल-मुसतदरक” (1/35) में रिवायत किया है और कहा है : “यह हदीस शैखैन यानी बुखारी एवं मुस्लिम की शर्त पर सहीह है और मैं इसके अंदर कोई दोष नहीं जानता।” तथा ज़हबी ने उनके साथ सहमत जताई है।
तथा अबू अब्दुर्रहमान अस्सुलमी से वर्णित है कि उन्होंने कहा : “हमसे नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के सहाबा में से उस व्यक्ति ने बताया, जो हमें पढ़ाया करते थे कि वे लोग अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से दस आयतें पढ़ते थे। फिर वे अन्य दस आयतें उस समय तक नहीं शुरू करते थे जब तक कि वे यह नहीं जान लेते कि इन (दस आयतों) में क्या ज्ञान और कार्य है। वे कहते हैं कि : इस तरह हमने ज्ञान और कार्य दोनों सीखा।” इसे इमाम अहमद ने “अल-मुसनद” (38/466) में रिवायत किया है और अल-मुसनद के संवीक्षकों ने उसे हसन के रूप में वर्गीकृत किया है।
दूसरी चीज़ : उनका नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का अनुपालन करना : ऐसी सच्चाई व ईमानदारी के साथ अनुपालन था, जिसमें भ्रष्ट इरादे का समावेश नहीं था और ऐसे विशवास (यक़ीन) के साथ, जो संदेह के साथ मिश्रित नहीं था।
इसलिए जब उन्होंने नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की लाई हुई बातों को सीखा, तो उन्होंने उसे सच्चे इरादे के साथ सीखा और उसे दृढ़ विश्वास के साथ ग्रहण किया। तथा जब उन्होंने जो कुछ सीखा था, उस पर अमल किया, तो उसमें सच्चाई (ईमानदारी) को अपनाया, और रियाकारी व दिखावा तथा अपने ज्ञान एवं इबादत के साथ दुनिया के इरादे को दूर करने के लिए अपने आपसे संघर्ष किया; वे सर्वशक्तिमान अल्लाह के इस कथन का पालन करते थे :
يَاأَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا اتَّقُوا اللَّهَ وَكُونُوا مَعَ الصَّادِقِينَ [التوبة: 119].
“ऐ ईमान वालो! अल्लाह से डरो और सच्चे लोगों के साथ रहो।” (सूरतुत्तौबा : 119)
शैख अब्दुर्रहमान अस-सा’दी रहिमहुल्लाह ने कहा :
وَكُونُوا مَعَ الصَّادِقِينَ
“और सच्चे लोगों के साथ रहो।” अर्थात् उन लोगों के साथ रहो जो अपने कथनों, कर्मों और स्थितियों में सच्चे हैं। जिनके कथन सत्य हैं, तथा उनके कर्म और उनकी स्थितियाँ सच्चाई पर आधारित हैं, जो आलस्य और उदासीनता से मुक्त, और बुरे इरादों से सुरक्षित हैं, इख़्लास (सत्यनिष्ठा) और अच्छे इरादे पर आधारित हैं। क्योंकि सत्य नेकी का मार्गदर्शन करता है और नेकी जन्नत की ओर ले जाती है।
अल्लाह तआला ने फरमाया :
هَذَا يَوْمُ يَنْفَعُ الصَّادِقِينَ صِدْقُهُمْ
“आज वह दिन है कि सच्चे लोगों को उनकी सच्चाई लाभ पहुँचाएगी।” “तफ़्सीर अस-सा’दी (पृष्ठ : 355) से उद्धरण समाप्त हुआ।
इब्ने रजब रहिमहुल्लाह ने कहा :
“गुण और विशेषताएँ शारीरिक कार्यों की अधिकता के कारण नहीं हैं, बल्कि उनके अल्लाह के लिए ख़ालिस (विशुद्ध), सुन्नत के पालन पर ठीक होने के कारण हैं।
तथा दिलों के ज्ञान और उनके कार्यों की बहुतायत के कारण हैं।
अतः जो व्यक्ति अल्लाह का तथा उसके धर्म और उसके प्रावधानों और उसके नियमों का सबसे अधिक ज्ञान रखने वाला है, तथा वह उससे सबसे अधिक डरने वाला, सबसे अधिक प्रेम करने वाला और सबसे अधिक आशा रखने वाला है : वह उससे बेहतर है जो ऐसा नहीं है, भले ही वह शारीरिक कार्य करने में उससे अधिक हो...
इसीलिए कुछ पूर्वजों ने कहा है : अबू बक्र रज़ियल्लाहु अन्हु को रोज़े या नमाज़ की अधिकता के कारण सहाबा पर प्राथमिकता प्राप्त नहीं हुई, बल्कि ऐसी चीज़ (यक़ीन) की वजह से जो उनके दिल में जागुज़ीं थी...
तथा अबू सुलैमान से बनी इसराईल की दीर्घायु और कर्मों में उनकी कड़ी मेहनत का उल्लेख किया गया, और यह कि कुछ लोग इस कारण उनपर रश्क करते हैं (वैसा ही पाने की भावना रखते हैं)।
तो उन्होंने कहा : अल्लाह तुमसे केवल यह चाहता है कि उसके पास जो कुछ है उसके बारे में तुम्हारा इरादा सच्चा हो। या जैसा उन्होंने कहा।
तथा इब्ने मसऊद रज़ियल्लाहु अन्हु ने अपने साथियों से कहा : तुम मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के साथियों (सहाबा-किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम) की तुलना में अधिक रोज़ा और नमाज़ करने वाले हो, लेकिन वे लोग तुमसे बेहतर थे।
उन्होंने कहा : वह कैसेॽ
उन्होंने कहा : वे इस दुनिया में तुम से अधिक अरुचि रखने वाले, तथा आख़िरत में अधिक रुचि रखने वाले थे।” “मजमूओ रसाइल इब्ने रजब” (4/412-413) से उद्धरण समाप्त हुआ।
निष्कर्ष यह कि; ईमान के उच्च पदों को प्राप्त करने का मार्ग, जैसा कि सदाचारी पूर्वजों (उनपर अल्लाह की प्रसन्नता हो) का मामला था, केवल यह है कि सबसे पहले नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम द्वारा लाई हुई बातों को समझने पर धैर्य से काम लिया जाए, फिर आपने ने जा आदेश दिया है उसे करने पर धैर्य रखा जाए, और जिससे आपने मना किया है उससे बचने पर धैर्य अपनाया जाए, और यह सब सच्चाई व ईमानदारी, निष्ठा (इख़्लास), इस दुनिया में अरुचि (त्याग) और आख़िरत में रुचि के साथ होना चाहिए।
तथा पूरे मामले का मूल तत्व और सार अल्लाह सर्वशक्तिमान से विलापकर प्रार्थना करना तथा उससे मार्गदर्शन और उसपर दृढ़ता माँगना है। क्योंकि सारा मामला उसी सर्वशक्तिमान् के हाथ में है।
तथा बंदा दुआ के स्वीकार होने के समय को तलाश करे, जैसे कि रात का अंतिम तिहाई भाग। पूर्वज ऐसे समय की तलाश करते थे।
इब्ने शिहाब ज़ुहरी से वर्णित है, वह अल-अग़र्र और अबू सलमह बिन अब्दुर्रहमान से रिवायत करते हैं और वे दोनों अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत करते हैं कि उन्होंने कहा : अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : हमारा पालनहार हर रात, जबकि रात का अंतिम तिहाई भाग रह जाता है, निचले आसमान पर उतरता है और कहता है : कौन है जो मुझे पुकारे, तो मैं उसकी दुआ स्वीकार करूंॽ कौन है जो मुझसे माँगे, तो मैं उसे प्रदान करूँॽ कौन है जो मुझसे अपने पापों की क्षमा माँगे, तो मैं उसे क्षमा कर दूँ। यहाँ तक कि फज्र उदय हो जाए।”
इसीलिए वे रात के अंतिम भाग की नमाज़ को शुरू रात की नमाज़ पर प्राथमिकता देते थे।
इसे इमाम अहमद ने “अल-मुसनद” (13/35) में रिवायत किया है और अलबानी ने “इरवाउल-ग़लील” (2/196) में उसे सहीह क़रार दिया है।
और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।