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उस व्यक्ति की नमाज़ का क्या हुक्म है जो अंतिम तशह्हुद के लिए बैठा, लेकिन वह तशह्हुद के शब्द (दुआ) को पढ़ना भूल गयाॽ
हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.
सर्व प्रथम :
अंतिम तशह्हुद और उसके लिए बैठना नमाज़ के दो रुक्न (अनिवार्य अंग) हैं जिनके बिना नमाज़ शुद्ध (मान्य) नहीं होती है।
“ज़ाद अल-मुस्तक़्ना” में नमाज़ के अरकान (स्थंभों यानी उसके आवश्यक भागों) का वर्णन करते हुए कहा गया है : “और अंतिम तशह्हुद तथा उसके लिए बैठना।”
शैख़ इब्ने उसैमीन रहिमहुल्लाह ने उसकी व्याख्या करते हुए कहा : उनका कथन “और अंतिम तशह्हुद” यही नमाज़ के स्तंभों में से दसवाँ स्तंभ है।
इसका प्रमाण : अब्दुल्लाह इब्ने मसऊद रज़ियल्लाहु अन्हु की हदीस है, वह कहते हैं : “इससे पहले कि तशह्हुद हम पर अनिवार्य होता, हम कहा करते थे: अस्सलामो अलल्लाहि मिन इबादिह, अस्सलामो अला जिबराईला व मीकाईला, अस्सलामो अला फुलान व फुलान” (अल्लाह पर सलाम हो उसके बंदों की तरफ से, तथा सलाम (शांति) हो जिबरील और मीकाईल पर, तथा सलाम हो अमुक और अमुक पर।) [इसे दारुक़ुतनी ने सहीह इस्नाद के साथ वर्णन किया है]। इस हदीस में प्रासंगिक बिंदु "तशह्हुद के हमारे ऊपर अनिवार्य किए जाने से पहले” का वाक्यांश है।
यदि कोई कहने वाला कहता है : पहले तशह्हुद से हमारे कथन का खंडन होता है ; क्योंकि वह भी तशह्हुद है, इसके बावजूद पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उसे छोड़ दिया और सज्दा-ए-सह्व के द्वारा उसकी छतिपूर्ति की। और यह वाजिबात का हुक्म है (कि सज्दा-ए-सह्व के द्वारा उसकी छतिपूर्ति की जाती है), तो क्या अंतिम तशह्हुद भी उसी के समान न होगाॽ
तो इसका उत्तर यह है कि : नहीं, क्योंकि मूल सिद्धांत यह है कि दोनों तशह्हुद फ़र्ज़ (अनिवार्य) हैं, और पहला तशह्हुद अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की सुन्नत के द्वारा इस मूल सिद्धांत से निकल गया। क्योंकि रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने जब उसे छोड़ दिया, तो सज्दा-ए-सह्व के द्वारा उसकी छतिपूर्ति की। इसलिए अंतिम तशह्हुद अपनी अनिवार्यता पर रुक्न बाक़ी रहा।
और उनका यह कहना कि : "और उसके लिए बैठना [अर्थात अंतिम तशह्हुद के लिए]" यह नमाज़ का ग्यारहवाँ रुक्न (स्तंभ) है। यानी अंतिम तशह्हुद के लिए बैठना नमाज़ का एक रुक्न (अनिवार्य हिस्सा) है। इसलिए अगर हम यह मान लें कि एक व्यक्ति सज्दे से उठकर सीधा खड़ा हो जाए और तशह्हुद पढ़े, तो यह उसके लिए पर्याप्त नहीं होगा। क्योंकि उसने एक रुक्न (स्तंभ) को छोड़ दिया, जो कि तशह्हुद के लिए बैठना है। अतः उसका बैठना आवश्यक है और यह कि तशह्हुद भी उसी बैठक में पढ़ना चाहिए। क्योंकि उन्होंने कहा : “उसके लिए बैठना” चुनाँचे बैठने को तशह्हुद से संबंधित किया है, ताकि उससे यह समझा जाए कि तशह्हुद को उसी बैठक में पढ़ना ज़रूरी है।”
“अश्-शर्हुल मुम्ते” (3/309) से उद्धरण समाप्त हुआ।
दूसरा :
नमाज़ के किसी रुक्न (स्तंभ) को भूल जाने वाले व्यक्ति के संबंध में सामान्य नियम यह है कि उसे करना अनिवार्य है, अन्यथा उसकी नमाज़ सही (मान्य) नहीं होगी।
शैख इब्ने उसैमीन रहिमहुल्लाह ने कहा : “अरकान (स्तंभ) अनिवार्य होते हैं और उनकी अनिवार्यता वाजिबात से भी अधिक होती है। लेकिन अरकान और वाजिबात के बाच अंतर यह है कि अरकान (स्तंभ) भूलने की स्थिति में समाप्त नहीं होता है। जबकि वाजिबात भूलने की स्थिति में समाप्त हो जाते हैं और सज्दा-ए-सह्व के द्वारा उनकी छतिपूर्ति की जाती है। जबकि अरकान का मामला इसके विपरीत है ; इसलिए जो व्यक्ति किसी रुक्न (स्तंभ) को भूल गया, तो उसकी नमाज़ इसके बिना शुद्ध (मान्य) नहीं होगी।”
तथा उन्होंने कहा : “इस बात का प्रमाण कि अरकान (स्तंभों) की सज्दा-ए-सह्व के द्वारा छतिपूर्ति नहीं होती है, यह है किः जब नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने ज़ुहर या अस्र की दो रकअत नमाज़ से सलाम फेर दिया, तो उसे पूरा किया और जो कुछ आपने छोड़ दिया था उसे अदा किया और सह्व का सज्दा किया। इससे पता चला कि अरकान सह्व (भूलने) की वजह से समाप्त नहीं होते हैं, और उन्हें करना आवश्यक होता है।”
“अश्-शर्हुल मुम्ते” (3/315, 323) से उद्धरण समाप्त हुआ।
इसके आधार पर, जो व्यक्ति अंतिम तशह्हुद को भूल गया है और सलाम फेर दिया है, तो यदि बहुत समय नहीं बीता है तो वह फिर से जाकर बैठ जाएग और तशह्हुद पढ़ेगा और फिर सलाम फेर देगा। फिर वह सह्व के लिए सज्दा करेगा और फिर दुबारा सलाम फेरेगा। लेकिन अगर एक लंबा समय बीत चुका है, तो वह नमाज़ को दोहराएगा।
और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।