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उस व्यक्ति का खंडन जो यह कहता है कि अरफा के दिन का रोज़ा मसनून नहीं है।

08-09-2016

प्रश्न 98334

हमारे यहाँ के एक शैख (मौलाना) का कहना है कि : अरफा के दिन का रोज़ा रखना सुन्नत नही है। और न ही इस का रोज़ा रखना जायज़ है। आप से निवेदन है कि इस प्रश्न का उत्तर दें। क्योंकि यह शैख कुछ पर्चे वितरित करते हैं, जो अरफा के दिन रोज़ा रखने से रोकते हैं। आप से जवाब देने का अनुरोध है।

उत्तर का पाठ

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.

हाजी के अलावा लोगों के लिए अरफा के दिन का रोज़ा रखना सुन्नते मुअक्कदा है। अबू क़तादा रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से अरफा के दिन रोज़ा रखने के बारे में पूछा गया तो आप ने फरमाया : ‘’यह रोज़ा पिछले और अगले साल के (छोटे) पापों को मिटा देता है।‘’ इसे मुस्लिम (हदीस संख्याः 1162) और मुस्लिम ही की एक रिवायत में है : ‘’मुझे अल्लाह से आशा है कि यह पिछले एक साल और अगले एक साल के पापों को मिटा देगा।‘’

इमाम नववी रहिमहुल्लाह ‘’अल-मजमू’’ (6/428) - शाफेई मत की पुस्तक - में कहते हैं :

इस मसला के हुक्म के बारे में इमाम शाफेई और असहाब कहते हैं : अरफा के दिन का रोज़ा रखना उसके लिए मुस्तहब है जो अरफा में नहीं है।

रही बात अरफा में उपस्थित हाजी की तो इसके बारे में ‘’अल-मुख्तसर’’ के अन्दर शाफेई और असहाब कहते हैं : उम्मुल फ़ज्ल की हदीस के आधार पर उसके लिए रोज़ा न रखना मुस्तहब है। और हमारे असहाब के एक समूहका कहना है कि : उसके लिए रोज़ा रखना मकरूह है। और जिन लोगों ने उसके मकरूह होने का स्पष्ट रूप से वर्णन किया उनमें ‘’अलमजमू’’ तथा ‘’अल-मुसन्नफ फित-तंबीह’’ में दारमी, बन्दनीजी, मुह़ामिली और कुछ अन्य लोग शामिल हैं। अंत हुआ।

इब्ने क़ुदामा रहिमहुल्लाह - हंबली मत की पुस्तक – ‘’अल-मुग़्नी’’ (4/443) में कहते हैं :

‘’यह एक महान प्रतिष्ठित दिन, और धन्य त्योहार है, और इसकी फज़ीलत बहुत बड़ी है। नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से साबित है कि इस दिन का रोज़ा दो साल के पापों का कफ्फारा (प्रायश्चित) है।‘’ अंत हुआ।

तथा इब्ने मुफलेह रहिमहुल्लाह ने- हंबली मत की पुस्तक – ‘’अल-फुरूअ’’ (3/108) में कहते हैं :

‘’ज़ुल-हिज्जा के दस दिनों का रोज़ा रखना मुस्तहब है। विशेष रूप से नौवें दिन का रोज़ा रखने पर सबसे अधिक बल दिया गया है। और वह सर्वसहमति के साथ अरफा का दिन है।‘’ अंत हुआ।

कासानी रहिमहुल्लाह - हनफी मत की पुस्तक – ‘’बदाएउस्सनाए’’ (2/76) में कहते हैं :

‘’अरफा के दिन का रोज़ा रखनाः गैर हाजी के हक़ में मुस्तहब है। क्योंकि इस दिन का रोज़ा रखने का आह्वान करनेवाली बहुत सी हदीसें वर्णित हैं। तथा इसलिए कि इस दिन को दूसरे दिनों पर फज़ीलत प्राप्त है। ऐसे ही हाजी के लिए भी अरफा का रोज़ा रखना मुस्तहब है अगर यह रोज़ा उसके लिए अरफा में ठहरने और दुआ करने में दुर्बलता का कारण न बनता हो। कयोंकि इस में अल्लाह की निकटता प्राप्त करने के दो कारण (नेकियाँ) एकत्र हो जाती हैं। और अगर यह हाजी को उससे कमज़ोर बनाता है तो उसके लिए रोज़ा रखना मकरूह है। क्योंकि इस दिन रोज़ा रखने की फज़ीलत को इस साल के अलावा दूसरे साल प्राप्त करना सम्भव है, और सामान्यतःप्राप्त भी हो जाती है। परंतु अरफा में ठहरने और उसमें दुआ करने की फज़ीलत सामान्यतः आम लोगों को जीवन में केवल एक बार प्राप्त होती है। इसलिए उसको प्राप्त करना प्राथमिकता रखता है।‘’

तथा - मालिकी मत की पुस्तक - खरशी की ‘’शर्ह़ मुख्तसर खलील’’ (6/488) में है कि :

‘’अरफा के दिन का रोज़ा रखना यदि वह हज्ज करनेवाला नहीं है और ज़ुल-हिज्जा के दस दिनों का (व्याख्या) इससे लेखक का मतलब यह है कि हाजी के अलावा व्यक्ति के हक़ में अरफा के दिन का रोज़ा रखना मुस्तहब है। रही बात हाजी की तो उसके लिए रोज़ा न रखना मुस्तहब है ताकि वह (अरफा में) दुआ के लिए शक्ति जुटा सके। जबकि ‘’नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने स्वयं हज्ज में रोज़ा नही रखा था।‘’ अंत हुआ।

तथा ‘’हाशिया अद्दसूक़ी’’ (5/80) में है :

‘’फिर उनका कथन कि : और अरफा के दिन का रोज़ा रखना वांछनीय है ... इससे अभिप्राय वांछनीयता का सुनिश्चय है। अन्यथा रोज़ा रखना तो आम तौर पर वांछनीय ही है।‘’ अंत हुआ।

शैख इब्ने उसैमीन रहिमहुल्लाह से सवाल किया गया : हाजी और हाजी के अलावा के लिए अरफा के दिन का रोज़ा रखने का क्या हुक्म है?

तो शैख ने जवाब दिया : हाजी के अलावा दूसरे लोगों के लिए अरफा के दिन का रोज़ा रखना सुन्नते मुअक्कदा है। अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से अरफा के दिन रोज़ा रखने के संबंध में पूछा गया तो आप ने फरमाया : ‘’मुझे अल्लाह से आशा है कि यह पिछले एक साल और अगले एक साल के पापों को मिटा देगा।‘’ और एक रिवायत में है कि : ‘’यह रोज़ा पिछले और अगले साल के (छोटे) पापों को मिटा देता है।‘’

रही बात हाजी की तो उसके लिए अरफा के दिन का रोज़ा रखना मसनून नहीं है। क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने हज्जतुल-वदाअ में अरफा के दिन रोज़ा नहीं रखा था। सहीह बुखारी में मैमूना रज़ियल्लाहु अन्हा से वर्णित है कि : (अरफा के दिन लोगों को नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के रोज़े के बारे में शक हुआ, तो मैं ने आप के पास दूध का बर्तन भेजा, इस हाल में कि आप अरफा के मैदान में ठहरे हुए थे। चुनाँचे आप ने उससे पिया इस हाल मे कि लोग देख रहे थे।‘’ अंत हुआ।

‘’मजमूओ फतावा इब्ने उसैमीन’’ भाग : 20, प्रश्न संख्या : 404.

अतः हाजी के लिए अरफा के दिन का रोज़ा रखना मक्रूह (अवांछनीय) है, मुस्तहब नहीं है। यदि कहने वाले का मक़सद यही है तो उसने सही बात कही है। परंतु अगर उसके कहने का मतलब यह है कि हाजी के अलावा व्यक्ति के लिए अरफा के दिन का रोज़ा रखना धर्मसंगत नहीं है, तो यह बिल्कुल ग़लत और सहीह हदीसों के मुखालिफ है जैसा कि बयान हुआ।

और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।

नफ्ल (स्वेच्छिक) रोज़े
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